साधन कर्म है हे हनुमान प्रभु को पाने का साधन तो सतोगुणी व्यक्ति ही कर सकता है रजो गुणी व्यक्ति भी थोड़ा बहुत कर सकते है पर महाराज तमोगुणी व्यक्ति से तो कुछ भी नहीं होता है अतः मेरे से साधन भी नहीं होता।(सूत्र) ये भजन का मूल मन्त्र है जब तक अन्न विचार व्यवहार चरित्र सही नहीं होगा तब तक इस शरीर से साधना नहीं हो सकती, परमार्थ नहीं हो सकता है।अर्थात प्रभु की प्राप्ति नहीं हो सकती।यही तो रावण ने भी कहा-
भव सागर से पार होने के दो ही उपाय है पहला प्रीति दूसरा विरोध रावण ने विरोध का रास्ता पकड़ा और उस पर मनसा वाचा कर्मणा से द्रण भी रहा।
हे हनुमान इसी से में ज्ञान हीन भी हूँ कछु साधन नाहीं। साधनो से ही भगवान मिलते है पर विभीषण की दीनता तो देखिये जिसकी प्रशंसा भगवान ने समर्पण, शरणागति के कारण स्वयं विभीषण से कहा मैने अवतार रावण को मारने के लिए नहीं लिया ये काम तो बैकुंठ से बैठे बैठे ही कर देता पर तुम्हारे जैसे संत कहाँ मिलते।
हे हनुमान-
हे हनुमान मुझ से तो वह कर्म भी नहीं बनता अतः में कर्म हीन हूँ क्योंकि साधन करना कर्म है प्रीति न पद सरोज मन माहीं।। का भाव उपासना से रहित हूँ जब कुछ साधन ही नहीं तब भला प्रीति कहाँ से हो अतः ‘तामस तन” कहकर तब साधन रहित होना-कहा और अंत में प्रीत का न होना कहा।
हे हनुमान पद सरोज’ का भाव कि प्रभु के चरण कमलवत है,उनमें मन को भ्रमर होकर.लुब्ध रहना चाहिये सो हमारा मन मधुप होकर उसमें नहीं लुभाता, मुझ में तो यह भी नहीं है। (लुब्ध=आसक्त, मोहित)
हनुमान जी ने कहा- हे विभीषणजी! सुनिए आपका तो केवल तामस तन है पर कुल तो उत्तम है यथाः
और मै-भला कहिए, मैं ही कौन बड़ा कुलीन हूँ? मै (जाति का) चंचल वानर हूँ और सब प्रकार से नीच हूँ, सब प्रकार से गया बीता हूँ प्रातःकाल जो हम लोगों (बंदरों) का नाम ले ले तो उस दिन उसे भोजन नहीं मिलता। (कुलीन=उच्च कुल)
हे सखा! सुनिए, मैं ऐसा अधम हूँ, पर श्री रामचंद्रजी ने तो मुझ पर भी कृपा ही की है। भगवान के गुणों का स्मरण करके हनुमान जी के दोनों नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया।
और सुनो विभीषण= श्रीरामजी कुल की अपेक्षा नहीं रखते, वे तो केवल भक्ति का नाता मानते है। यथाः
सदा प्रीती का निर्बाह करना कठिन है पर प्रभु सदा एक रस निबाहते है प्रभु को सेवक से कोई आशा नहीं है। पर वे तो सेवक पर बिना कारण ममता और प्रीत करते है। (निबाह=निर्वाह, गुज़ारा)
विभीषण स्वयं हनुमान जी से बोल रहे है बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता।।अर्थात चाहे ब्रमाण्ड भर खोज डालें तो भी संत नहीं मिलते ओर जब प्रभु की कृपा होती है। तब घर बैठे संत मिल जाते हैं, ग्रन्थकार यहाँ उपदेश देते हैं कि जब इस तरह साधन करे जेसे विभीषणजी ने किया तब श्रीराम जी कृपा करें ओर तब सन्त मिलें! विभीषण जी का दीन भाव तो देखिये।
श्री रामचंद्रजी समुद्र हैं तो धीर संत पुरुष मेघ हैं। श्री हरि चंदन के वृक्ष हैं तो संत पवन है।
संत-असंत वंदना जितनी वन्दना मानस में बाबा तुलसी ने की उतनी वंदना किसी दूसरे ग्रंथ… Read More
जिमि जिमि तापसु कथइ अवतार के हेतु, प्रतापभानु साधारण धर्म में भले ही रत… Read More
बिस्व बिदित एक कैकय अवतार के हेतु, फल की आशा को त्याग कर कर्म करते… Read More
स्वायंभू मनु अरु अवतार के हेतु,ब्रह्म अवतार की विशेषता यह है कि इसमें रघुवीरजी ने… Read More
सुमिरत हरिहि श्राप गति अवतार के हेतु, कैलाश पर्वत तो पूरा ही पावन है पर… Read More
अवतार के हेतु, भगवान को वृन्दा और नारद जी ने करीब करीब एक सा… Read More