उपजइ राम चरन बिस्वासा। भव निधि तर नर बिनहिं प्रयासा।।
कृपानिधाना कहने का भाव दण्डकारन वन में और भी ऋषियों के लिए सुख देना चाहते है! इस वन में तो अत्रि मुनि की ही प्रधानता है इसलिए अन्य वन में जाने की मुनि अत्रि से आज्ञा ली (सूत्र) भगवान अपने आचरण द्वारा हम सभी को यह उपदेश दिया कि जब हम छत्रिय वेश धारण कर मुनियो, विप्रो का सम्मान करते है! तो यही कर्तव्य अन्य जीवो को भी करना चाहिए!
हे मुनि मुझ पर निरंतर कृपा करते रहिएगा और अपना सेवक जानकर स्नेह न छोड़िएगा। (संतत= सदा,निरंतर)
धर्म धुरंधर रामजी के वचन सुनकर ज्ञानी अत्रि मुनि प्रेमपूर्वक बोले- चक्रवती महाराज के परम प्रतापी राजकुमार एक मुनि के सामने इस प्रकार कृपा की याचना करते है (अगस्त्यजी) ने कहा हे राम यह आपका स्वाभाव है कि सब कुछ मालूम होते हुए भी हमेशा आप सेवकों को सदा ही बड़ाई दिया करते हैं, इसलिए हे रघुनाथजी! आपने मुझ से पूछा है। यथाः
वनवास के समय प्रभु श्रीराम महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में आ पहुंचे हैं। एक लम्बा समय वनवास में काटना है तो एक निरापद जगह की तलाश में हैं। हे मुनि वर वह जगह बताइये जहां मैं सीता और लक्ष्मण के साथ कुछ समय व्यतीत कर सकू। सकल ब्रह्माण्ड का स्वामी, सर्वव्यापी द्वारा इस तरह का मासूम प्रश्न वाल्मीकि को मानो निःशब्द कर देता है वाल्मीकि सुन कर मुस्करा पड़ते हैं। अब वे क्या उत्तर दें? कौन सी जगह उन्हें बता दी जाये जहां राम न रहते हों राम तो कण कण में व्याप्त हैं, इस ब्रह्माण्ड में कोई जगहअछूती नहीं जहाँ राम ना हो। अतः राम के इतने सरल वचन सुनकर वाल्मीकि साधु साधु कह पड़ते है। (निरापद= आपत्तिरहित, निर्विघ्न, बिना संकट के)
धर्म धुरंधर प्रभु के वचन सुनकर ज्ञानी मुनि प्रेम पूर्वक बोले ब्रह्मा, शिव, सनकादिक सभी परमार्थवादी जिसकी कृपा की चाह करते है हे राम वही आप (जिसको निष्काम भक्त प्रिय है और जो) निष्काम भक्तो के प्यारे एवं दीनबंधु है। जिन्होंने ऐसे कोमल वचन कहे! (परमारथ बादी= जो ब्रह्म से साक्षात करने में प्रबल है, ब्रह्म तत्व को जानने वाले, ज्ञानी) (अबिगत= जो जाना न जाए) (अलख= जो दिखाई न पड़े, जो नजर न आए,अगोचर) (अनादि= जिसका आदि या आरंभ न हो) (अनूपा= अतिसुंदर, निराला)
आपकी चतुराई जानी। चतुराई क्या? यह कि आप सबसे वड़े हैं इसी से ऐसी विनम्र वाणी बोले। अर्थात् अपनी नम्रता से ही आप सर्व श्रेष्ठा है यही चतुराई है। अन्य भाव श्री, लक्ष्मी की चतुराई जानी कि क्यों सब देवताओं को छोड़कर लक्ष्मी जी ने आपको ही जयमाल पहनाई थी। ऐसा करके उन्होंने बता दिया कि सब में आप ही बड़े हैं।श्री जी ने यह (शील=स्वभाव) देखकर ही आपका भजन किया। (सूत्र) त्रैलोक्य की प्रभुता भी शीलवान का ही भजन करती है।
केहि बिधि कहौं जाहु अब स्वामी। भाव यह की कैसे कहू कि वन को जाओ, क्योकि आप तो सर्वत्र होआप तो अन्तर्यामी हो पुनः नाथ के जाने से सेवक अनाथ हो जायेगा, यह कैसे कहू कि मुझ को अनाथ करके जाइये अन्य भाव, आप स्वामी है अतः सेवक स्वामी को जाने को कैसे कह सकता है? आप नाथ है नाथ के बिना सेवक अनाथ होकर कैसे रहना चाहेगा? ऐसा कह कर धीर मुनि प्रभु को देखने लगे उनके नेत्रों से जल बह रहा है, शरीर पुलकित है नेत्र मुख कमल में लगे हुए है अत्रि जैसा संत मन में विचार कर रहा है! कि मैने ऐसे कौन से जप तप किये कि मन, ज्ञान, गुण और इन्द्रियों से परे प्रभु के दर्शन पाये।
श्री रामजी ने मुनि से कहा- हे प्रभो! अब आप मुझे वही मंत्र (सलाह) दीजिए, जिस प्रकार मैं मुनियों के द्रोही राक्षसों को मारूँ। प्रभु की वाणी सुनकर अगस्त्यजी मुस्कुराए और बोले-हे नाथ! आपने क्या समझकर मुझसे यह प्रश्न किया? जगत का दाता अगस्त जी से मांग रहा है।
सुतीक्ष्ण जैसा संत बोल रहे मेरे हृदय में दृढ़ विश्वास नहीं होता, क्योंकि मेरे मन में भक्ति, वैराग्य या ज्ञान कुछ भी नहीं है।
अवध प्रभाव जान तब प्राणी। किस कारण अयोध्या को विश्व का मस्तक कहा गया है।… Read More
संत-असंत वंदना जितनी वन्दना मानस में बाबा तुलसी ने की उतनी वंदना किसी दूसरे ग्रंथ… Read More
जिमि जिमि तापसु कथइ अवतार के हेतु, प्रतापभानु साधारण धर्म में भले ही रत रहा… Read More
बिस्व बिदित एक कैकय अवतार के हेतु, फल की आशा को त्याग कर कर्म करते… Read More
स्वायंभू मनु अरु अवतार के हेतु,ब्रह्म अवतार की विशेषता यह है कि इसमें रघुवीरजी ने… Read More
सुमिरत हरिहि श्राप गति अवतार के हेतु, कैलाश पर्वत तो पूरा ही पावन है पर… Read More