सलाह,रहसि जोरि कर पति पग लागी। बोली बचन नीति रस पागी॥

 

सलाह,रहसि जोरि कर पति पग लागी। बोली बचन नीति रस पागी॥

रहसि जोरि कर पति पग लागी।

मन्दोदरी प्रथम बार एकांत में हाथ जोड़कर पति (रावण) के चरणों लगी और नीति रस में पगी हुई वाणी बोली- हे प्रियतम! श्री हरि से विरोध छोड़ दीजिए। मेरे कहने को अत्यंत ही हितकर जानकर हृदय में धारण कीजिए।वह रावण को जो प्रभु से वैर करने को रोकती है इसका कारण यह नहीं कि सीता जी के आने से उसे इर्षा है,वह तो जानती हे कि प्रभु  ब्रह्म हैं ओर सीताजी परम शक्ति हैं। वह नीति शास्त्र के वचन कहती है। “नीति रस पागी॥ का भाव रावण अनीति करता हे। बड़ों से वैर करना अनीति है! इसमें नीति यह है कि जो अपने से बली हो उससे “साम” (साम का अर्थ है शान्ति और समझदारी के साथ व्यवहार) कर लेना चाहिए! (रहसि=एकांत)


रहसि जोरि कर पति पग लागी। बोली बचन नीति रस पागी॥
तारा ने भी बाली को इसी तरह समझाया है मंदोदरी और तारा ये दोनों ही पंच कन्या है।गहि कर चरन नारि समुझावा।।
सुनु पति जिन्हहि मिलेउ सुग्रीवा। ते द्वौ बंधु तेज बल सींवा।।
कोसलेस सुत लछिमन रामा। कालहु जीति सकहिं संग्रामा।।
अतः हे प्रियतम! श्री हरि से विरोध छोड़ दीजिए। मेरे कहने को अत्यंत ही हितकर जानकर हृदय में धारण कीजिए। (कंत=पति) (करष=मनमुटाव,रोष) (परिहरहू=त्याग दो)
कंत करष हरि सन परिहरहू। मोर कहा अति हित हियँ धरहू॥
हे नाथ! पवनपुत्र हनुमान ने जो करनी की, उसका हजार मुखों से भी वर्णन नहीं किया जा सकता। हे नाथ जिसके दूत का बल वर्णन नहीं किया जा सकता, उसके स्वयं नगर में आने पर हम सभी लोगों की बड़ी बुरी दशा होगी!
नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी। सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥
जासु दूत बल बरनि न जाई। तेहि आएँ पुर कवन भलाई।।
अतः
तासु नारि निज सचिव बोलाई। पठवहु कंत जो चहहु भलाई॥
निज सचिव’ के जाने से तुम्हारा ही जाना मना जायगा।रावण को स्वयं जाने को नहीं कहती, क्योंकि वह ‘अभिमानी प्रकृति का है, शत्रु से झुकना तो मानों वह जानता ही नही! (बसीठ=दूत) (जरठ=बूढ़ा) (बर=वर=उत्तम, श्रेष्ठ)
प्रथम बसीठ पठउ सुनु नीती। सीता देइ करहु पुनि प्रीती॥
माल्यवंत अति जरठ निसाचर। रावन मातु पिता मंत्री बर॥
माल्यवंत अतिरिक्त मंत्री दुष्ट एवं अयोग्य है!माल्यवंत  अत्यंत बूढ़ा राक्षस था। माल्यवंत रावण का नाना  और श्रेष्ठ मंत्री था। और अन्य मंत्री तो आपके मुँह पर ये ठकुरसुहाती (मुँहदेखी) कह रहे हैं। ऐसे व्यक्ति ही खतरनाक होते है !
कहहिं सचिव सठ ठकुर सोहाती। नाथ न पूर आव एहि भाँती॥
हे नाथ यही तो तुम्हारे भाई विभीषण ने भी कहा जो मनुष्य अपना कल्याण, सुंदर यश,सुबुद्धि,शुभ गति और नाना प्रकार के सुख चाहता हो, वह  परस्त्री के ललाट को चौथ के चंद्रमा की तरह त्याग दे (अर्थात् जैसे लोग चौथ के चंद्रमा को नहीं देखते,उसी प्रकार परस्त्री का मुख ही न देखे)!
जो आपन चाहै कल्याना। सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना॥
सो परनारि लिलार गोसाईं। तजउ चउथि के चंद कि नाईं॥
और हे नाथ में भली भाती जानती हूँ कि
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें। हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें॥
शंभु और अज का नाम लिया, क्योंकि रावण ब्रह्मा का पर पोता है। और शिवजी का सेवक हे।पर राम का द्रोही है,अतःहित नहीं हो सकता,क्योंकि ब्रह्मा और शिव राम के सेवक है।
हे पतिदेव मेने सुना है!
संकर सहस बिष्नु अज तोही। सकहिं न राखि राम कर द्रोही
जासु चरन अज सिव अनुरागी। तासु द्रोहँ सुख चहसि अभागी॥
यह तो अंगद ने भी कहा है-अरे दुष्ट! यदि तू श्री रामजी का वैरी हुआ तो तुझे ब्रह्मा और रुद्र भी नहीं बचा सकेंगे।
जौं खल भएसि राम कर द्रोही। ब्रह्म रुद्र सक राखि न तोही॥

बाल्मीक रामायण में रावण ने ही कहा है। चाहे मेरे शरीर के दो टुकड़े हो जाये,पर नम्र नही होऊँगा,यह मुझ में स्वाभाविक दोष है,में करूँ तो  क्या करू स्वभाव का उल्लंघन तो में कर ही नहीं सकता!

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Mahender Upadhyay

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