हनुमान जी लंका में सब कुछ करके आये पर बोले क्या रहे है? मैंने तो कुछ नहीं किया।
हनुमान जी बोले रहे है मेरा समर्थ पुरुषार्थ केवल इतना है कि में वानर जाति का होने से पेड़ की एक शाखा से दूसरी शाखा पर जा सकता हूँ। (मनुसाई=पुरुषार्थ)
नारद जी काम से कैसे बचे? जब सुमिरन से श्राप खत्म हो जाता है तो काम क्या करेगा? नारद जी सफलता पाए थे केवल और केवल हरी के भजन से, पर गलती से या अभिमान वश काम पर विजय को अपना पुरुषार्थ समझ बैठे।
पर नारद जी को तो अहंकार ने डस लिया तभी तो शंकर जी बोले,बार बार बिनवउँ मुनि तोही।
यद्पि शिवजी बड़े है तो भी विनय करते है क्योकि यह बड़ो का स्वाभाव है कि छोटो के कल्याणार्थ अपनी मान मर्यादा छोड़ कर विनय करके उनको समझते है जिससे वह उनकी सलाह को मान ले।
यथाः हनुमान जी रावण से विनती करते है।
यथाः विभीषण जी रावण से विनती करते है।
यथाः राम जी प्रजा से विनती करते है।
हे नारद कथा सुनाने में कोई रोक नहीं है पर आपके सुनाने का तरीका ठीक नहीं है इससे अभिमान झलकता है अतः इस तरीके से इस कथा को श्री हरि को मत सुनना।
अहंकार का जन्म ही मूर्खता से होता है! शंकर जी ने मना किया प्रभु को न बताना शंकर जी ने इस प्रसंग के शुरू में बहुत अच्छा दोहा बोला! महादेवजी ने हँसकर कहा- हे पार्वती न कोई ज्ञानी है न मूर्ख। श्री रघुनाथजी जब जिसको जैसा करते हैं, वह उसी क्षण वैसा ही हो जाता है।
पार्वती बोली ऐसा क्यों ? तब शंकर जी बोले
शिवजी ने तो भले के लिए उपदेश दिया। पर नारद को अच्छा न लगा। हे भरद्वाज कौतुक सुनो, हरि की इच्छा वलवती है (बलवान= शक्तिशाली, पुष्ट, मजबूत) (कौतुक=लीला )
जिसके ऊपर आपत्ति आना होती है उसे हितोपदेश अच्छा नही लगता, शिवजी ने भले के लिए कहा पर नारद जी उल्टा समझ बैठे कि इन्हे (शिवजी) को मेरी ख्याति अच्छी नहीं लगती। अकेले खुद ही ‘कामारि’ बने रहना चाहते हैँ। याज्ञवल्वयजी भरद्वाज जी को सावधान करते है कि यह कौतुक सुनने योग्य है। शिवजी का वचन भ्रम,(तम=अंधकार) के मिटाने के लिए सूर्य की किरण के समान है। सो उसी से नारदजी को भ्रम हो गया इसी को हरि इच्छा कहते है। इसके सामने किसी का बल नहीं लगता ठीक इसी तरह से शिव जी ने सती को समझाया था पर उनके भी समझ में बात न आयी तब शिवजी ने विचार किया वि यहाँ हरि इच्छा रूपी बलवती भावी काम कर रही है । सामान्य भावी होती तो मैं मिटा देता। (कामारि=कामदेव के शत्रु)
काम क्रोध लोभ और अहंकार से सभी भाई है यदि एक हार जाता है तो दूसरा स्वतः ही आ जाता है नारद ने काम को पराजित किया तो अहंकार ने नारद को दबा लिया नारद ने सबसे पहले इंद्र की सभा में अपनी विजय का वर्णन किया वहां सभी ने नारद जी की तारीफ की और यही से अहंकार का जन्म हुआ जिससे नारद जी ने शंकर जी की सलाह तक नहीं मानी उसका परिणाम जगत में नारद जी ने स्वयं अपना उपहास कराया।
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