कर्म कमण्डल कर गहे,तुलसी जहँ लग जाय।सरिता, सागर, कूप जल
भगवान ने स्वयं माता सबरी और अपने अवधवासियो से कहा
जो व्यक्ति अपने आचरण में सच्चा, विनम्र, सत्यवादी और करुणाशील है वह राम को प्रिय है। यानी केवल पूजा-पाठ, मंत्र, यज्ञ, या दिखावे की भक्ति से नहीं सरलता प्रमुख है।
सरल,दुनिया में जो देव पुजे है सभी पुजे है प्रभाव से।
प्रभु ने स्वयं कहा है!
(सूत्र) सहज स्वरूप जीव का क्या है? माया रहित सरूप ही जीव का सहज सरूप है। सहज सरूप के प्राप्ति के समान और किसी पदार्थ की प्राप्ति नहीं है। अतः इसको अनूपा कहा! सहज स्वरूप की प्राप्ति ही (कैवल्य= मोक्ष, मुक्ति) पद है। राम जी ने स्वयं कहा है यह मेरे दर्शन का फल है। मेरे साक्षात्कार के बिना मुक्ति नहीं होती। मेरा दर्शन (साक्षात्कार) परम अनूप है। जो मेरा स्वरूप ही बना देता है। (अनूप=उपमारहित, अतिसुंदर)
इसी लिए तो बाबा तुलसी ने इस संसार की सुन्दर व्याख्या की है।
(सूत्र) ऐसा भाव जिस किसी साधक का है उसको कोई और साधन करने की जरूरत नहीं है। पर माया में लिप्त होने से जीव का सहज सरूप नहीं रहता।और फिर यह माया जीव से पूरे जीवन भर किसी न किसी रूप में लिपटी ही रहती है।
मेघ मण्डल का जल पवित्र होता है पर पृथ्वी का (संसर्ग=संयोग) होते ही गन्दा हो जाता है, इसी तरह जीव का यहाँ संसार आते ही माया उसे लपेट लेती है और गंदा और अपवित्र बना देती है।
ऐसा ही गुणों का हाल है। सत, रज और तम तीनों ही गुण नीचे आने पर अशुद्ध हो जाते हैं, उनमें विषमता आ जाती है।लैम्प की चिमनी (शीशा) पर जब धूल व कालोच चढ़ जाती है तब वह पूरा प्रकाश नहीं देती ,उस प्रकाश में धुंधलापन होता है। इसी प्रकार स्थूल मल सत, रज और तम गुणों के प्रभाव को दबा देते हैं, उनकी करैण्ट (शक्ति) ठीक ठीक प्रवाहित नहीं हो पाती और वे जीव के पतन का कारण बन जाते हैं।
प्रभु दर्शन किस प्रकार होता है और जीव का सहज स्वरूप कैसा है? वेद रीति यह कहती है कि करोड़ों कल्पों तक ज़प, तप, होम, योग, यज्ञ और ब्रह्म ज्ञान में रत रहे तब अन्तर बाहर शुद्ध होकर भक्ति प्राप्त होती हे,तब दर्शन होते हेँ। यह साधन साध्य (क्रियासाध्य रीति) है। (सूत्र) पर इस साधन में कोई निश्चित नहीं कि प्रभु की प्राप्ति या दर्शन होगे ही। पर प्रभु के दर्शन केवल और केवल कृपा साध्य रीति से होता है! क्योकि प्रभु ने स्वयं कहा है! (अघ= अपवित्र,पापी, पाप) (कोटि= करोड़)
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