राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका॥
राम जनम के हेतु
हे पार्वती तुमने जगत के कल्याण के लिए प्रश्न किया है (सूत्र) जो राम कथा को सुनता है वो भी धन्य हो जाता है और जो राम कथा को सुनाता है वह भी धन्य हो जाता है अर्थात श्रोता और वक्ता दोनों ही धन्यवाद के पात्र है इस लिए बाबा ने दो बार धन्य धन्य कहा कारण भगीरथ की गंगा तो जहाँ जहाँ बहती है उसी जगह को पवित्र करती है पर राम कथा तो सकल लोक जग पावनि गंगा है।
शंकर जी पार्वती से बोले जब-जब धर्म का ह्रास होता है और नीच अभिमानी राक्षस बढ़ जाते हैं और वे ऐसा अन्याय करते है जिसका वर्णन नहीं हो सकता तथा ब्राह्मण, गो, देवता पृथ्वी कष्ट पाते है। (सीदहिं= सीदना=दुख या कष्ट पाना,नष्ट या बरबाद होना,कष्ट झेलना,पीड़ित होना)
शंकर जी पार्वती से बोले जनम एक दुइ कहउँ बखानी। तीन ना कहकर एक दुइ कहने का भाव श्री हरि ने एक बार तोअपने सेवको के हित के लिए शरीर धारण किया और दो बार श्राप के कारण अवतार लिया। (सूत्र) शंकर जी ने सावधान किया क्योंकि पार्वती कथा तो पिछले जन्म में भी सुनने गई थी पर दुर्घटना घट गई कथा सुनी नहीं अतः सावधान किया दूसरा भाव सावधान का भाव चंचल मन ही सब दुखों का आदि (मूल,पहला) कारण है।
शंकर जी पार्वती से बोले-
हे पार्वती सम्पूर्ण राम चरित को कहने का समर्थ किसी में नहीं है संत मुनि वेद पुराण सभी जानते है कि रामजी अतर्क्य है तर्कशास्त्र द्वारा उनको कोई कैसे समझ सकता है? प्रभु के अवतार का कारण ,नाम, गुण, लीला सभी अतर्क्य पर फिर भी सभी अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार कहते है।
हे पार्वती इनमें में भी शामिल हूँ शिव जी ने स्वयं कहा “स्वमति अनुमान”जय विजय, जलंधर, मनु शतरूपा, नारद जी का प्रसंग तो वेद पुराणों तथा मुनियों के ग्रंथों में मिलता है पर भानु प्रताप की कथा अन्य किसी ग्रन्थ में नहीं है। इस कथा को केवल शिवजी जानते है यह प्रसंग उमा शम्भु संवाद में ही मिलेगी। (अतर्क्य=जिसपर तर्क वितर्क न हो सके)
शंकर जी पार्वती से बोले- कोई आचार्य यह नहीं कह सकता कि अमुक अवतार का अमुक ही कारण है एक ही अवतार के अनेक कारण कहे जाते हैं,फिर भी कोई यह नहीं कह सकता कि बस यही कारण इस अवतार के हैं अन्य नहीं श्री साकेत विहारी जी का ही अवतार ले लीजिये इसका हेतु क्या कहेगे? मनुशतरूपा का तप, या भानुप्रताप-रावण का उद्धार,या सुर विप्र संत की रक्षा? या फिर ये सभी कारण है या नहीं कौन जानता है? हो सकता कुछ कारण ऐसे भी है जो कोई भी नहीं जान पाए अतः यह कोई नहीं कह सकता कि अवतार का बस यही कारण है। (इदमित्थं=इसी प्रकार से,ऐसा)
उन दोनों भाइयों ने ब्राह्मण (सनकादि) के श्राप से असुरों का तामसी शरीर पाया। एक बार सतकादिक इच्छानुसार धूमते हुए योग माया के बल से बैकुंठ धाम को गये।आनंदपूर्वक हरि के दर्शन के लिए उनके भवन की छै ड्योडिया लाँघ गये।सातवीं कक्षा पर जय-विजय द्वारपाल थे। समदृष्टि के कारण ऋषियों ने इनसे न पूछकर ही जाना चाहा, सतकादिक को नग्न और बालक जान कर हँसते हुए दोनो द्वारपालो ने बेत अड़ाकर रोका। इस पर ऋषियों को (हरी प्रेरणा से) क्रोध हुआ और इन्हें श्राप दिया!
कि तुम रजोगुण एवं तमोगुण रहित भगवान के निकट रहने योग्य नहीं हो अतःअपनी भेद दृष्टि के कारण काम, क्रोध लोभात्मक, योनिओ में जाकर जन्म लो।
इस घोर श्राप पर ये दोनो जय और विजय दीन दुखी होकर प्रार्थना करने लगे कि चाहे हम नीच योनि से ही क्यों न जन्मे पर हमें सदा हरि का स्मरण बना रहे ठीक उसी समय लक्ष्मीजी के साथ भगवान वहां पर आ गये।
मुनि दर्शन पाकर भगवान की स्तुति करने लगे। फिर भगवान ने कहा ये दोनो मेरे पार्षद हैं और आप भक्त है। आपने जो दंड इन्हें दिया है। उसे मैं अंगीकार करता हूँ। आप ऐसी कृपा करे कि ये जल्दी मेरे निकट फिर चले आवे। ऋषि लोग भगवान के अभिप्राय को न समझ सके और बोले कि यदि हमने व्यर्थ श्राप दिया हो तो आप हमें दंड दें भगवान ने कहा आपका दोष नहीं है! श्राप तो मेरी इच्छा से हुआ है। भगवान ने जय बिजय से कहा मुझ में वैर-भाव से मन लगा श्राप मुक्त होकर थोड़े ही काल तुम मेरे लोक में आ जाओगे। (सुरपति=देवराज, इंद्र,देवराज) (सुरपति मद मोचन= अर्थात उन्हों ने इंद को जीत लिया)
एक का नाम था हिरण्यकशिपु और दूसरे का हिरण्याक्ष, हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष प्रसिद्ध देत्य जुड़वा भाई ऋषि कश्यप की दूसरी पत्नी,दिति के गर्भ से उत्पन्न हुए। वे दोनों इन्द्र के मद को दूर करने वाले सारे विश्व में प्रसिद्ध हुए। सुरपति इंद्र को गर्व था कि मेरे समान ऐश्वर्य और बल शाली कोई नहीं है इंद्र के इस मद को जय विजय ने समाप्त किया द्वारपालो को भी यही अभिमान था की उनके समान कोई नहीं है।
अभिमान के कारण पतन हो गया।
शंकर जी पार्वती से बोले (सूत्र) मनमानी का फल स्वर्ग से पतन तीन जन्म द्विज वचन का भाव यह की एक तो उन्होंने ब्राम्हणो को नहीं माना दूसरे अपनी तरफ भी नहीं देखा की की हम कौन है हमको ऐसा करना चाहिए की नहीं तीसरे भगवान को भी नहीं माना की वे ब्रह्म है इन तीन अपराध के कारण असुर हुए।
“बिजई समर” समर में विजयी कहने का भाव के छल-कपट करके विजय नहीं प्राप्त की,अपितु सामने लड़कर जीता है। इन्द्र के गर्व को तोड़ा और कभी किसी से हारे नहीं,अतः विजयीऔर विख्यात वीर कहलाये। (बिजई=विजई=जय पाने वाले, सबको जीतने वाला) (निपाता=नाश वा वध किया)
ये दोनों दैत्य समर में विख्यात वीर थे। ये कभी नहीं हारे हमेशा जीतते ही गये। सो भगवान ने वाराहावतार धारण करके हिरण्याक्ष को मारा। हिरण्यकश्यप के पुत्र प्रहलाद भगवान के भक्त थे। अतःहिरण्यकश्यप ने प्रहलाद को बड़ी बड़ी यातनाये दीं। पर प्रहलाद ने कभी हरिभजन को नहीं छोड़ा,भगवान ने नरसिंह अवतार धारण करके हिरण्यकश्यप को मारा (वराह= सूअर, शूकर)
भगवान के हाथों वध होने पर मुक्ति होती है मगर जय और विजय को सनकादि के श्राप के कारण मुक्ति नहीं हुई जय और विजय भगवान के इतने प्रिय थे कि जय और विजय ने तो श्राप के अनुसार तीन जन्म लिए पर भगवान ने उन दोनों का वध करने के लिए चार वार अवतार लिया हिरण्याक्ष के लिए वराह रूप से,हिरण्यकश्यप के लिए नरसिंह रूप से ,रावण कुम्भकरण के लिए राम रूप से ,शिशुपाल और दन्तवक्र के लिए कृष्ण रूप से (मुकुत=मुक्त मोक्ष को प्राप्त) (प्रवाना=प्रमाण,मान,मर्यादा)( हते=मारे जाने पर)
भगवान ने भक्तानुरागि शरीर धारण किया अर्थात रामावतार लिया। रामावतार भक्तानुरागी अवतार है रामजी भक्त पर इतना अनुराग करते हैं अपने प्रिय भक्त जय विजय के लिये जंगलों में नंगे पैर भटके पैरों में काँटे गड़े। यह दृश्य देखकर ज्योतिषी चकित हुए।
जय और विजय सत्ययुग में दैत्य, त्रेता युग में निशाचर कुम्भकरण और रावण हुए और द्वापर युग में आसुरी प्रकृति के छत्रिय, शिशुपाल और दन्तवक्र हुए दोनों की विकारावस्था क्रमशः कम होती गई, और अंत में मुक्त हुए। (सुभट=रणकुशल योद्धा)
कश्यप जी वैदिक काल के ऋषि है| एक मन्वंतर में सारी सृष्टि उन्हीं की रची हुई थी। सप्तषियों में से भी एक हैं।अदिति और दिति आदि इनकी बहुत सी पत्नियाँ थी।जिनसे इन्होंने सृष्टि बृद्धि की अदिति इन्द्र सूर्य आदि देवताओं की माता है और दिति देत्यों की माता है। किसी किसी कल्प में कश्यप अदिति ही मनु शतरूपा एवं दशरथ कौसिल्या हुआ करते है।
कलयुग = 4,32,000 वर्ष
द्वापर 432000+432000 = 8,64,000 वर्ष
त्रेता 864000 +432000 = 12,96,000 वर्ष
सतयुग 1296000+432000 = 17,28,000 वर्ष
इन सभी का जोड़ = 40,32,000 वर्ष का एक महायुग इसी को चतुर्यग भी कहते है।
जब यह चतुर्यग 72 बार व्यतीत होता है तब एक मन्वंतर होता है।
वह मन्वंतर 12 बार व्यतीत होता है। तब एक कल्प होता है।
पूज्य संतश्री शम्भूशरण जी लाटा महाराज एवं बक्सर वाले मामा जी जो सीता को अपनी बहन मानते थे उनके सुन्दर विचार-
शिष्य का गुरु के चरणों में प्रेम होना अच्छी बात है पर गुरु का शिष्य के प्रति प्रेम बहुत अच्छी बात है।
पार्वती जी ने कहा हे महादेव जब हरि के प्रिय है तो जय विजय को श्राप कैसे लगा?
शंकर जी ने कहा ये तो भगवान की लीला है। एक बार भगवान नेअपने द्वारपालो से कहा की हमारी इच्छा है कि हम धरती पर अवतार लेवे, तुम दोनों को हमारे साथ चलना पड़ेगा दोनों ने कहा चलेंगे महाराज, तुम दोनों को असुर बनना पड़ेगा बनेगे महाराज, तुम दोनों को मुझ से युद्ध करना पड़ेगा करेंगे महाराज इसको कहते है निष्ठा यह बहुत ही कठिन है। निष्ठा में ना का कोई रोल नहीं होता केवल और केवल हां ही होती है।
भगवान ने पूछा तुमको कुछ कहना है ?
क्या कह सकते है पर प्रभु सुनो
कठपुतली कुछ नहीं बोल सकती हे उमा सारा संसार कठपुतली है।
उमा दारु जोषित की नाईं। सबहि नचावत रामु गोसाईं॥
भगवान ने पूछा तुमको और कुछ कहना है ? दोनों ने कहा सुनो प्रभु
इसका फल आपके प्रिय रहेंगे महाराज दूसरों को अच्छा लगने के लिए उनकी मर्जी से चलना पड़ता है। भगवान को वही अच्छा लगता है जो उनकी मर्जी से चलता है।
दोनों ने कहा अगर महाराज बैरी बनेगे तो ऐसे बनेगे कि एक बार आपको भी पसीना आ जाये।
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