राम कथा कलिकामद गाई । सुजन संजीवन मूर सुहाई ।।

राम कथा कलिकामद गाई । सुजन संजीवन मूर सुहाई ।।

राम कथा कलिकामद गाई ।

मंगलाचरण

जय जय राम कथा । जय श्री राम कथा।।

इसे श्रवन कर मिट जाती है । जिसे श्रवन कर मिट जाती है ।।

कथा श्रवन कर मिट जाती है । सौ जन्म जन्म की  व्यथा ।।

जय जय राम कथा। जय श्री राम कथा ।।

तुलसीदास जी द्वारा महिमा,

राम कथा कलिकामद गाई । सुजन संजीवन मूर सुहाई ।।

बुधि विश्राम सकल जन रंजन ।राम कथा कली क्लूस विभंजन ।।

मेरा परमारथ बन जाये । गाकर
तेरा परमारथ बन जाये । सुनकर
श्री नारद कर व्यथा ।।
जय जय राम कथा । जय श्री राम कथा ।।
यग्वालिक जी  द्वारा महिमा,

महा मोह महिसेष विशाला ।राम कथा कालिका कराला ।।
राम कथा शशि  किरण  समाना । संत चकोर  करहि जेहि पाना  ।।

(यथा=जिस प्रकार,जैसे)
पीकर तभी अमर हो जाये । गाकर तू भी अमर हो जाये ।।
श्री हुनमंत यथा
जय जय राम कथा । जय श्री राम कथा ।।
शंकर जी  द्वारा महिमा,

राम कथा कलि  बिटप कुठारी । सादर सुन गिरिराज  कुमारी  ।।
राम कथा सूंदर कर तारी । संसय बिहग उड़ाव निहारी ।।

मेरा सब संसय भागेगा । गाकर
तेरा सब संसय भागेगा । सुनकर
माँ पार्वती कर  जथा
जय जय राम कथा ।जय श्री राम कथा।।
गरुण जी द्वारा महिमा,

सुनहु तात जेहि कारन आयउँ। सो सब भयउ दरस तव पायउँ।।
देखि परम पावन तव आश्रम। गयउ मोह संसय नाना भ्रम।।

अब श्रीराम कथा अति पावनि। सदा सुखद दुख पुंज नसावनि।।
सादर तात सुनावहु मोही। बार बार बिनवउँ प्रभु तोही।।

इसे श्रवन कर मिट जाती है। सौ जन्म जन्म के व्यथा ।।
जय जय राम कथा।जय श्री राम कथा ।।
शंकर जी द्वारा महिमा,

राम चरन रति जो चह अथवा पद निर्बान
भाव सहित सो यह कथा करउ श्रवन पुट पान॥

लंकनी हनुमान जी से बोली हृदय में भगवान का नाम धारण करके जो भी काम करेंगे उसमें निश्चित सफलता मिलेगी. (सूत्र) कोई भी कार्य के पूर्व भगवान का सुमिरन करें तो उसमें निश्चित सफलता मिलेगी । (सितलाई  सीतल+आई=शीतलता)

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई

——————————————————————————–
शिव ने पार्वती जी को राम कथा सुनाई। बोले-मैं उन्हीं श्री रामजी के बाल रूप की वंदना करता हूँ,जिनका नाम जपने से सब सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं। मंगल के धाम, अमंगल के हरने वाले और श्री दशरथ जी के आँगन में खेलने वाले बालरूप  राम जी मुझ पर कृपा करें। कुल मिलाकर  आठ प्रकार सिद्धियां हैं अणिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, महिमा, ईशित्व और वशित्व (सुलभ=सहज ही प्राप्त हो जाता है)
अणिमा – इससे बहुत ही छोटा रूप बनाया जा सकता है।
लघिमा – इस सिद्धि से छोटा, बड़ा और हल्का बना जा सकता है।
महिमा – कठिन और दुष्कर कार्यों को आसानी से पूरा करने की सिद्धि।
गरिमा – अहंकारमुक्त होने का बल।
प्राप्ति – इच्छा शक्ति से मनोवांछित फल प्राप्त करने की सिद्धि।
प्राकाम्य – कामनाओं की पूर्ति और लक्ष्य पाने की दक्षता।
वशित्व – वश में करने की सिद्धि।
ईशित्व – ईष्टसिद्धि और ऐश्वर्य सिद्धि।
जब भगवान निर्गुण से सगुन हुए तब प्रथम बालरूप धारण किया इसी से शिव जी की उपासना बालरूप की है। शिव जी चाहते है की हमारे हृदय रुपी आँगन में प्रभु बसे क्योकि बालक ही आँगन में (विचरता=विचरण= चलना-फिरना) है। (द्रवउ=कृपा कीजिये,द्रवित) (अजिर=आँगन) (अजिर बिहारी=भक्तो के मन में बिना थके रमते रहना) (जिसु=जिसका)

बंदउँ बालरूप सोई रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू।।
मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी।।

शिव जी शांत रस में रामजी को भजते है इसी से बालरूप को इष्ट मानते है बाल रूप अवस्था में विधि अविधि को नहीं देखते अपितु  थोड़ी सेवा में बहुत प्रसन्न हो जाते है जैसे बच्चा मिटटी के खिलोने के बदले अमूल्य पदार्थ दे देता है पर  इस कथन से भगवान में अज्ञानता का आरोपण होता है की वे ऐसे अज्ञानी है कि किसी के फुसलाने में आ जाते है पर वस्तुतः भाव इसमें यह है कि भगवान को जो जिस तरह से भजता है भगवान उसके साथ उसी प्रकार का नाटक करते है दूसरा भाव यह है की बालक रूप में जितनी सेवा भक्त कर सकता है उतनी सेवा अन्य रूप में नहीं हो सकती! इस ग्रन्थ मे कई ठौर पर  शिवजी का ध्यान करना, हृदय मे अन्य अवस्थाओं के रूपों और छवि कि मूर्ती को धारण करना और बाल, विवाह, उदासीन, राज्यभिषेक आदि सभी समय के रूपो मे शिवजी का  मगन  होना वर्णित  है। इसका मुख्य कारण  शिव राम के अनन्य भक्त है ! (भाखी=भाषी=बोलनेवाला) (छबिसिंधु=शोभा के समुद्र )
भगवान की बाल लीला पर-

परमानंद प्रेम सुख फूले। बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले॥

वन में सीता हरण के समय-

संभु समय तेहि रामहि देखा। उपजा हियँ अति हरषु बिसेषा॥
भरि लोचन छबिसिंधु निहारी। कुसमय जानिन कीन्हि चिन्हारी।।

जय सच्चिदानंद जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन।।
चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता।।
भए मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी॥

रामजी द्वारा शिव जी को विवाह के लिए मनाना-

अंतरध्यान भये अस भाखी। शंकर सोइ मूरत उर राखी ॥

राम राज्याभिषेक के समय शिव जी द्वारा राम जी की स्तुति-

बैनतेय सुनु संभु तब आए जहँ रघुबीर।
बिनय करत गदगद गिरा पूरित पुलक सरीर।।

बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग।।

 (जथा=अव्य=यथा,जैसे,धन) (जथारथ=यथार्थ,विश्वसनीय व्यक्ति)
शिवजी का अपने स्वयं के विवाह के समय-

बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई। हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई।।
देखत रूपु सकल सुर मोहे। बरनै छबि अस जग कबि को है॥

पुनःवनवास के समय सती से कहा-

बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥
सोउ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा।।

इन प्रसंगो  से स्पष्ट है कि  शिव जी सभी रसों के आनंद के भोक्ता है! स्वामी जी के मत अनुसार शिव जी बाल रूप के उपासक नहीं है!
भुसण्डी जी और लोमेश जी की सेवा भी बाल रूप की है!  (बपुष=शरीर,देह) (कोटि सत=अरबों= सौ करोड़ की संख्या)

इष्टदेव मम बालक रामा। सोभा बपुष कोटि सत कामा॥
निज प्रभु बदन निहारि निहारी। लोचन सुफल करउँ उरगारी॥

हे गरुण जी बालकरूप राम का भाव =अन्य अवस्था के चरित्र में धर्मा चरण है, धर्म के अनुसरण कि शिक्षा है पर बालक रूप में ही तो रामजी ने  माता को अपना अखंड रूप दिखाया था! बालक रूप में ही  चिरंजीव मुनि उनके मुख में प्रविष्ट हुए थे और माया का दर्शन उसी में कराया गया था! इसी रुप में बहुत रंग के चरित होते है इस लिए यह योगियों, महायोगेश्वर शंकर जी का इष्ट है ! यह ध्यान पूर्ण रूप से माधुर्यमय है इसमें ऐश्वर्य का लेश नहीं है!

बालकरूप राम कर ध्याना। कहेउ मोहि मुनि कृपानिधाना॥
सुंदर सुखद मोहि अति भावा। सो प्रथमहिं मैं तुम्हहि सुनावा॥

—————————————————————————
जानकी जी ने हनुमान से कहा हे तात! मेरा प्रणाम निवेदन करना और इस प्रकार कहना- दीनों (दुखियों) पर दया करना आपका विरद है (और मैं दीन हूँ) अतः उस विरद को याद करके, हे नाथ! मेरे भारी संकट को दूर कीजिए।  (संभारी=संभारी से जनाया कि आपका “दीनदयाल” बाना गिरने को है उसे सभालिये दूसरा भाव भारी का अर्थ है जिन जिन दीनो आपने संकट दूर किया उन सभी में  मेरा संकट भारी है)
(सूत्र) प्रार्थना में आप मांग बनाए रखें या न रखें, लेकिन दीन भाव जरूर बनाए रखें। दीन भाव एक तरह से प्रार्थना के प्राण हैं। यहां सीताजी ने एक शब्द प्रयोग किया है पूरनकामा। और स्वार्थ मुक्त है फिर भी दीन दुखियो पर कृपा करना आपका स्वभाव है! भगवान को भक्त से कोई कामना नहीं है। वे इस तरह कृपा बरसाते हैं,जैसे जलता हुआ दीया, दीपक को यह फिक्र नहीं होती कि रोशनी किसे दें या न दें। परमात्मा की कृपा भी इसी प्रकार बरसती है। (विरद=बिरद=स्वभाव=बड़ा और सुंदर नाम,कीर्ति, यश) (अस=शब्द कह कर ये भी जनाया है की मेरा संदेसा ज्यो का त्यों कह देना)

कहेहु तात अस मोर प्रनामा। सब प्रकार प्रभु पूरनकामा।।
दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।।

——————————————————————————–
तुलसीदासजी ने कहा राम नाम अत्यन्त पवित्र है, वेद-पुराणों का सार है, कल्याण का भवन है और अमंगलों को हरने वाला है।

एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा।।

रघुपति नाम उदारा का भाव= रघुनाथ जी के तो अनन्त नाम है,

जद्यपि प्रभु के नाम अनेका। श्रुति कह अधिक एक तें एका॥

परन्तु श्री नारद जी ने श्री रामजी से यह बर मांग लिया है कि ‘राम’ नाम सब नामों से उदार होवे।

राम एक तापस तिय तारी। नाम कोटि खल कुमति सुधारी॥

उदार का भाव जो भक्ति, मुक्ति अनेक जन्मो के योग, तप, ब्रत, दान, ज्ञान आदि समस्त साधनों के करने पर भी दुलर्भ है वह इस (कलि काल=कलजुग) में यह नाम दे देता है। प्रमाण क्या है ?

कलयुग केवल नाम अधारा। सुमिर सुमिर नर उतरहि पारा।
मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी।।

इसी नाम के प्रभाव से शिवजी अमंगल वेष धारण किये हुए भी मंगल राशि हैं! ये भी नाम का प्रभाव है! राम नाम उस अमंगल को पास भी नहीं आने देते।

नाम प्रसाद संभु अबिनासी। साजु अमंगल मंगल रासी॥

राम नाम जप यज्ञ है। यज्ञ सहधर्मिणी सहित किया जाता है, इस लिए शंकर आदिशक्ति सर्वेश्वरी अर्धांगिनी सहित जपते हैं।
——————————————————————————–
तुलसीदासजी -वह देश धन्य है जहाँ गंगाजी हैं,वह स्त्री धन्य है जो पाति व्रत धर्म का पालन करती है। (सुरसरि=गंगाजी) पुनीत है, इसके चरित मनोहर है, ये पाप तथा विविध तापो का नाश करने वाली है! अतः जिस देश में है वह देश भाग्यवान है! क्योकि वहाँ के वासी प्रभु के नख से निकली हुई गंगा का दरस, परस, मज्जन, से कृतार्थ और पावन होते है! स्वामी शंकराचार्य जी ने भी इसकी महिमा कही है! गंगा जी की महिमा सभी जानते है!

धन्य देस सो जहँ सुरसरी। धन्य नारि पतिब्रत अनुसरी॥

वह स्त्री धन्य है जो पातिव्रत धर्म का पालन करती है। पर पातिव्रत धर्म क्या है?

एकइ धर्म एक ब्रत नेमा। कायँ बचन मन पति पद प्रेमा॥
करेहु सदा संकर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा॥
धन्य सो भूपु नीति जो करई। धन्य सो द्विज निज धर्म न टरई।।

वह राजा धन्य है जो न्याय करता है और वह ब्राह्मण धन्य है जो अपने धर्म से नहीं डिगता है।
लक्ष्मी के चार पुत्र हैं धर्म, आग, राजा, और चोर धर्म सबसे बड़ा पुत्र है जो मानव बड़े भाई अर्थात धरम का का अपमान करता है तो बाकी तीनों भाई मिलकर उसके घर पर धावा वोल देते हैं.या तो आग लगेगी या राजा टेक्स में ले जायगा या चोर ले जायेगे !

लक्ष्मी के सुत चार हैं,धर्म अग्नि नृप चोर।
ज्येठे के अपमान ते,तीन करहिं घर फोर॥

प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान।
जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान॥

इसलिए कहा- वह धन धन्य है, जिसकी पहली गति होती है (जो दान देने में व्यय होता है) वही बुद्धि धन्य और परिपक्व है जो पुण्य में लगी हुई है। (धन की तीन गतियाँ होती हैं- दान, भोग और नाश। दान उत्तम है, भोग मध्यम है और नाश नीच गति है। जो पुरुष न देता है, न भोगता है, उसके धन की तीसरी गति होती है।) (सोइ=वही) (अभंगा=अखंड)

सो धन धन्य प्रथम गति जाकी। धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी॥

(पाकी=परिपक़्व पुण्य परायण में कच्चा पन नहीं होना चाहिए) अर्थात जो नियम लिए है वह होना ही चाहिए!

करइ जे धरम करम मन बानी। बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी।।
धन्य घरी सोइ जब सतसंगा। धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा॥

वही घड़ी धन्य है जब सत्संग हो और वही जन्म धन्य है जिसमें ब्राह्मण की अखण्ड भक्ति हो। सत्संग की घड़ी धन्य है क्योकि (लव=थोड़ा अंश, अल्प मात्रा)  लव मात्र सत्संग का सुख स्वर्ग (अपवर्ग=मोक्ष) के सुख से भी अधिक है! तब (घड़ी=काल का एक प्राचीन मान जो चौबीस मिनट का होता है) घड़ी भर के सत्संग को क्या कहा जाय ?

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥

सत संगति दुर्लभ संसारा। निमिष दंड भरि एकउ बारा।।
बड़े भाग पाइब सतसंगा। बिनहिं प्रयास होहिं भव भंगा॥

(निमिष=पलक झपकने में लगने वाला समय,क्षण,पल) पुनः सत्संग ही सब पुरुषार्थो का सामान रूप से साधन है!
———————————————————————————–
तुलसीदासजी ने कहा शुकदेवजी, सनकादि, नारदमुनि आदि जितने भक्त और परम ज्ञानी श्रेष्ठ मुनि हैं, मैं धरती पर सिर टेककर उन सबको प्रणाम करता हूँ। अगर एक हो तो उनके चरणों में सिर धरु पर जे तो अनेक है इसी लिए धरती पर सिर रख कर सभी को नमन किया। (बिसारद= पंडित, विद्वान्,विशेषज्ञ)

सुक सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिबर बिग्यान बिसारद॥
प्रनवउँ सबहि धरनि धरि सीसा। करहु कृपा जन जानि मुनीसा॥

दूसरा भाव सभी मुनियो को शुकदेवजी, सनकादि, नारदमुनि से आत्म तत्व का ज्ञान प्राप्त हुआ! और सब मुनि इनको अपने से बड़ा जानते मानते हैं। अतः “मुनिवर” और विज्ञानविशारद’ कहा। विज्ञान विशारद  कहकर इनको ज्ञानी भक्त सूचित किया। इन सभी के “सबहि धरनि धरि सीसा” कहने का भाव क्योकि तुलसीदास ने स्वयं कहा

चहू चतुर कहुँ नाम अधारा। ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा।।

तुलसीदासजी=वानरों के राजा सुग्रीवजी,रीछों के राजा जामवंत जी, राक्षसों के राजा विभीषणजी और अंगदजी आदि जितना वानरों का समाज है। पशु,पक्षी, देवता, मनुष्य, असुर समेत जितने श्री रामजी के चरणों के उपासक हैं, मैं उन सबके चरणकमलों की वंदना करता हूँ,जो श्री रामजी के निष्काम सेवक हैं। खग मृग चरणों को सरोज कहना  कहाँ तक ठीक है? क्योकि जो भी जीव, चाहे वह पशु पक्षी  कोई भी  क्यों  न हो, श्री राम जी की  अकाम भक्ति करेगा वह रामाकार हो जायगा और रामजी का लोक और मुक्ति पायेगा ! रामरूप हो जाने से उसके भी चरण श्रीराम चरण समान हो जायेगे।
इस कारण सरोज कहा (सरोज=कमल) (कीस=वानरों)

कपिपति रीछ निसाचर राजा। अंगदादि जे कीस समाजा॥
बंदउँ सब के चरन सुहाए। अधम सरीर राम जिन्ह पाए॥

रघुपति चरन उपासक जेते। खग मृग सुर नर असुर समेते।।
बंदउँ पद सरोज सब केरे। जे बिनु काम राम के चेरे॥

तुलसीदासजी जानकी की उत्तमता दिखाते हुए कहते हैं,कि मैं जनक महाराज की पुत्री, जगत् की माता, करुणानिधान रामचन्द्र जी अतिशय प्रिय जो जानकी जी हैं,उनके दोनों चरण कमलों को मनाता हूँ जिनकी कृपा से मैं निर्मल बुद्ध पाऊँ क्योंकि निर्मल मन से ही रामजी को पाया जा सकता है।सीता पार्वती जी से बोली -हे देवी! आपके चरण कमलों की पूजा करके देवता, मनुष्य और मुनि सभी सुखी हो जाते हैं। (करुणानिधान= करुणा का सागर का खजाना= करुणा परिपूर्ण हृदय वाला)

जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।।

तुलसीदासजी ने कहा जगत में जितने जड़ और चेतन जीव हैं, सबको राममय जानकर मैं उन सबके चरण कमलों की सदा दोनों हाथ जोड़कर वन्दना करता हूँ। (पाणि=कर,हाथ) (जत=जितना) (सकल= सब)

जड़ चेतन जग जीव जत, सकल राममय जानि।
बंदउँ सब के पद कमल, सदा जोरि जुग पानि॥

तुलसीदास जी ने कहा:-देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी (खग), प्रेत, पितर, गंधर्व, किन्नर और निशाचर सबको मैं प्रणाम करता हूँ। ये सभी मुझ पर कृपा करे। (रजनिचर=निशाचर,चंद्रमा,राक्षस,जो रात में घूमता-फिरता हो) (गंधर्ब=ये पुराण के अनुसार स्वर्ग में रहते हैं और वहाँ गाने का काम करते हैं) (किंनर=एक प्रकार के देवता,विशेष-इनका मुख धोड़े के समान होता है और ये संगीत में अत्यंत कुशल होते हैं।ये लोग पुलस्त्य ऋषि के वशंज माने जाते हैं) (सर्ब= समस्त, सब, सारा, संपूर्ण)

देव दनुज नर नाग खग, प्रेत पितर गंधर्ब।
बंदउँ किंनर रजनिचर, कृपा करहु अब सर्ब॥

तुलसीदासजी ने कहा- चौरासी लाख योनियों में चार प्रकार के (स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जरायुज) जीव जल, पृथ्वी और आकाश में रहते हैं, उन सबसे भरे हुए इस सारे जगत को श्री सीताराममय जानकर मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ। (सूत्र) तुलसीदास ने संसारिक जीव ईश्वर का अंश माना है! यह तो केवल और केवल सनातन धर्म की विचार धारा है।अन्य धर्म में नहीं। तभी तो सनातन धर्म मानने वाला अपने प्रभु से सर्वे भवन्तु सुखिनः की प्रार्थना करता है।
(आकर= उत्पत्ति-स्थान, खान,योनियों)

आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी।।
सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी।।

कबीरा कुंआ एक हैं पानी भरैं अनेक।
बर्तन में ही भेद है, पानी सबमें एक।।

भगवान शंकर ने भी माता पार्वती से कहा कि-उमा, जो मनुष्य काम क्रोध मोह मद जैसे समस्त विकारों को त्याग कर राम नाम का ही आधार पर जीते है तो समस्त जगत उन्हें राममय ही दिखता है और राम में ही समस्त जगत मिल जाता है। फिर उन्हें राम के अतिरिक्त कुछ भी पाने की जिज्ञासा नहीं रह जाती।

उमा जे राम चरण रति, विगत काम मद क्रोध,
निज प्रभु मय देखहिं जगत, केहिं सन करहिं विरोध।।

कबीर साहेब जी हमे बताते है कि जिस तरह से हाथ की सभी ऊंगली समान नही होती। उसी प्रकार इस संसार में अलग अलग तरह के अलग अलग गुणों व स्वभावो के मनुष्य है। जिन में से कुछ तो मनुष्य है अच्छे स्वभाव रखने वाले किसी से कोई मतलब नहीं। कुछ देवता यानी भगवान को मानने वाले पूर्ण सतगुरु से नाम दीक्षा लेकर अपने अच्छे कर्म करते हुए साधू संतों जैसे स्वभाव वाले। ओर फिर आखिर में ढोर के ढ़ोर पत्थर जैसे खुद तो भगवान पर अविश्वास है। साधू संतो से भी लड़ाई झगड़ा करने से बिल्कुल भी नहीं हिचकते।

तुलसी एहि संसार में, भाँति भाँति के लोग।
सब सो हिल मिल बोलिए,नदी नाव संयोग।।

काकभुशुण्डि ने गरुड़ से कहा- स्वयं सुखराशि होते हुए भी जीव दुःखो के भीषण प्रवाह में डूबता उतरता जा रहा है। देह को सच्चा मानकर, संसार को सच्चा मानकर मर्कट की नाँई बन्धकर नाच कर रहा है।(मायादौलत= भ्रम,इंद्रजाल, जादू,कपट,धोखा,दया, ममता)
(माया मोह मतलब= माया जाल, सांसारिक आकर्षण; ममता)
(मायाजाल मतलब= धोखे का जाल, मोह का फंदा 2. माया 3. घर-गृहस्थी का जंजाल)
(मायापट मतलब=माया का परदा; माया रूपी आवरण या पट)
(मायाबद्ध मतलब=माया में बँधा हुआ,जो माया रूपी जाल में फँसा या बँधा हो)
(मायामंत्र मतलब=मोहनी विद्या,सम्मोहन क्रिया)
(मायावर्ग मतलब=(गणित) वह बड़ा वर्ग जिसमें अनेक छोटे-छोटे वर्ग होते हैं और उनमें कुछ संख्याएँ या अंक कुछ ऐसे क्रम से रखे रहते हैं कि उनका हर तरफ़ से जोड़ बराबर या एक सा ही आता है(मैज़िक स्क्वायर)
(मायावाद मतलब = वह सिद्धांत कि केवल ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या है तथा भ्रम के कारण जगत सत्य प्रतीत होता है; संसार को मिथ्या मानने का सिद्धांत) “सो” जो ऊपर ईस्वर अंस में कहा गया। माया जड़ है और जीव चेतन है,जड़ पदार्थ चेतन को कैसे बाँध सकता है? और चेतन स्वयं कैसे जड़ के वश होता है? इस शंका के निवारण के  लिये कहते है -बंध्यो जीव मरकट के नाहीं तोता और बंदर स्वयं अज्ञान से बेंधते हैँ। जीव अबिनासी अर्थात इसका विनाश नहीं होता।चेतन माने जड़ नहीं है।अमल अर्थात गंदगी इसमें नहीं है निर्मल है। सहज सुख रासी नेचुरल ही पूरा प्लेजर आनंद है।

ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी।।
सो मायाबस भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाई।।

गोस्वामीजी विनयपत्रिका में लिखते हैं-

माया बस सरूप बिसरायो! तेहि भरम ते नाना दुःख पायो।।

———————————————————————————–
शिवजी कहते हैं हे पार्वती! वह सुख वर्णन नहीं किया जा सकता। शरीर पुलकित है, मुख से वचन नहीं निकलता। वे प्रभु के सुंदर वेष की रचना देख रहे है।

प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना। सो सुख उमा जाइ नहिं बरना॥
पुलकित तन मुख आव न बचना। देखत रुचिर बेष कै रचना॥

कैसे पहचाना? आकाशवाणी और प्रभु की वाणी का मिलान करके एक समझकर पहिचान लिया आकाशवाणी क्या है?
पहला भाव यह आकाश वाणी है!

कस्यप अदिति महातप कीन्हा। तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा॥
ते दसरथ कौसल्या रूपा। कोसलपुरीं प्रगट नर भूपा॥
तिन्ह कें गृह अवतरिहउँ जाई। रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई॥

वही भगवान यहाँ कहते हैं!

कोसलेस दसरथ के जाए, हम पितु बचन मानि बन आए॥

दूसरा भाव यह आकाश वाणी है!

नारद बचन सत्य सब करिहउँ। परम सक्ति समेत अवतरिहउँ॥

नारद के वचन क्या है? नारद के वचन ये है

बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा।।
कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी।।
मम अपकार कीन्ही तुम्ह भारी। नारी बिरहँ तुम्ह होब दुखारी।।

ये सब बातें श्रीराम में देखी नृप तन धारण किए हैं,नारि-विरह से दुःखी हैं और सुग्रीव के यहाँ आये हैं अब वानर सहायता करेंगे! हनुमान जी शिवरूप से वहाँ थे जहाँ आकाशवाणी हुई थी |अर्थात कौशलपुरी में राजा दसरथ के यहाँ अवतार लेंगे वही यहाँ कहते है पुनः भगवान ने अपने मुख से कहकर अपना चरित जनाया है इसी से हनुमान जी ने पहचान लिया!
भगवान ने अपने मुख से कहकर अपना चरित जनाया

कोसलेस दसरथ के जाए, हम पितु बचन मानि बन आए॥
इहाँ हरि निसिचर बैदेही। बिप्र फिरहिं हम खोजत तेही।।
आपन चरित कहा हम गाई। कहहु बिप्र निज कथा बुझाई।।

तीसरा भाव प्रभु के ना पहिचाने का अन्य भाव कि माया के बस भूले रहे इससे नहीं पहिचाना। प्रभु की वाणी सुनने से माया निवृत्त हुई तब पहिचाना।जब तक प्रभु को नहीं पहिचाना था तब माथा नवाकर प्रश्न किया था और जब पहिचान लिया तब चरणों पर गिर पड़े।

तव माया बस फिरउँ भुलाना। ता ते मैं नहिं प्रभु पहिचाना।।
प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना। सो सुख उमा जाइ नहिं बरना॥

पर भगवान को कोई कब जान सकता है? जब भगवान्‌ स्वयं कृपा करके किसी को जनाना चाहें तभी वह जान सकता!

तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन। जानहिं भगत भगत उर चंदन॥
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई॥

(सूत्र) भगवान जब स्वयं कृपा करके किसी को बताना चाहे तभी वह जान सकता है! जब भगवान अपनी इच्छा,वचन वा हास्य  से योग माया का आवरण हटाते है तभी जीव उसको पहचान सकता है अन्यथा नहीं ! जीव के प्रयत्न से या विचार शक्ति से माया का आवरण कभी नहीं हटता है!
सुग्रीव के इन वचनों तथा जीव के प्रयत्नों से या विचार शक्ति से माया का आवरण कभी नहीं हटता।

अतिसय प्रबल देव तब माया। छूटइ राम करहु जौं दाया।।
श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई। छूट न अधिक अधिक अरुझाई।।

ब्रह्मा जी से सुना था की शक्ति समेत वन में आएंगे पर यहाँ शक्ति समेत नहीं देखा इससे राम जी को नहीं पहिचाना पर जब कहा इहाँ हरी निसिचर बैदेही तब पहिचाना!

नारद बचन सत्य सब करिहउँ। परम सक्ति समेत अवतरिहउँ।।

जैसे ही कहा

इहाँ हरी निसिचर बैदेही। बिप्र फिरहिं हम खोजत तेही॥

तब पहिचाना
हे उमा उस सुख का वर्णन नहीं किया जा सकता!
Mahender Upadhyay

Share
Published by
Mahender Upadhyay

Recent Posts

बंदउँ संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥

संत-असंत वंदना जितनी वन्दना मानस में बाबा तुलसी ने की उतनी वंदना किसी दूसरे ग्रंथ… Read More

5 months ago

जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा। तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा॥

  जिमि जिमि तापसु कथइ अवतार के हेतु, प्रतापभानु  साधारण धर्म में भले ही रत… Read More

11 months ago

बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू॥

बिस्व बिदित एक कैकय अवतार के हेतु, फल की आशा को त्याग कर कर्म करते… Read More

11 months ago

स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥

स्वायंभू मनु अरु अवतार के हेतु,ब्रह्म अवतार की विशेषता यह है कि इसमें रघुवीरजी ने… Read More

12 months ago

सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥

सुमिरत हरिहि श्राप गति अवतार के हेतु, कैलाश पर्वत तो पूरा ही पावन है पर… Read More

12 months ago

नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा।।

  अवतार के हेतु, भगवान को वृन्दा और नारद जी ने करीब करीब एक सा… Read More

12 months ago