रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा।।
विभीषण जी ने निशिचर वंश क्यों कहा, इनके पिता तो ऋषि हैं? इसके दो कारण पहला अपनी अधमता दिखाने के लिए ऐसा कहा अपनी अधमता दिखाना यह दीनता ही है दूसरा माता निशचरी है, माता के पास ही पले भी और वंश की सत्यता संस्कार पर ही होती है! विजया नंद त्रिपाठी जी लिखते हैं- मातृ कुल पितृ कुल भेद से दो कुल या वंश होते हैं। रावणादि का पितृ कुल ऋषिकुल था, और मातृ कुल देत्य कुल था। विभीषणजी को अपने स्वजनो की बुरी करणी विचार करके ऋषि कुल से परिचय देने में उन्हें लज्जा लगी। यह कार्पण्य भक्ति के लक्षणों में है,अतः निशिचर वंश कहना स्वार्थ प्राप्त था। दूसरा भाव (कुल, संग, स्वाभाव, और शरीर) इन चारों से पुरुष की परीक्षा होती है अतः विभीषण जी ने अपनी अधमता को अपने मुख से चारो प्रकार से कह रहे है। क्रम से सुनिए निसचर वंश में जनम, यह कुल से अधम दशानन का भ्राता यह संग अधम का सहज पाप प्रिय यह स्वाभाव से अधम और तामस देह यह शरीर से अधम बताया है। हे नाथ दशानन आपका विरोधी है में उसका भाई हूँ अतः में शरण योग्य नहीं हूँ, आप सुरत्राता है में निसिचर सुर विरोधी हूँ तात्पर्य यह की जो आपके सनेही है में उन्ही का विरोधी हूँ और जो आपके विरोधी है उनका में सनेही हूँ हे नाथ आपको धर्म प्रिय है पर मुझको पाप प्रिय है। अतः किसी भी परिस्थति में सब प्रकार से आपकी शरण के अयोग्य हूँ किसी प्रकार भी शरण के योग्य नहीं हूँ। (सुरत्राता= विष्णु,कृष्ण) (उलूकहि=उल्लू) (तम=अँधेरा, अंधकार, तमाल वृक्ष, पाप ,अपराध) (कार्पण्य= दैन्य भाव) (सुर= देव)
नाथ दसानन कर मैं भ्राता। निसिचर बंस जनम सुरत्राता॥
मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ। सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ॥
(कुल, संग, स्वाभाव, और शरीर) से सहज पाप प्रिय हूँ। (सूत्र) पाप के कारण भजन नहीं होता यह तो राम जी ने स्वयं ही कहा है। यथाः
उल्लू को अंधकार-सहज प्रिय है,जैसे उल्लू अशुभ पक्षी है। वैसे ही मुझे पाप सहज प्रिय है। और देह तामसी है अतएव अशुभ है। जैसे अंधकार दुखद होता है वैसे ही पाप ढुखद होता है। (तम= अंधकार) यथाः
उलूक से संत-विरोधी जनाया, भुसुंडजी जी ने कहा है संतों की निंदा में लगे हुए लोग उल्लू होते है, और उल्लू को तो मोह रूपी रात्रि प्रिय होती है।
रही एक बात वह यह है कि मैंने आपका यह सुजस सुना है की आप शरण सुखद है कैसा भी कोई पापी हो आपकी शरण जाने पर आप उसे अवश्य शरण देते है। (भव= जन्म-मरण, संसार) (आरति= पीड़ा,कष्ट) (त्राहि= रक्षा करो)
और प्रभु यह भी सुना=
और प्रभु आपने तो स्वयं ही कहा है।
हनुमान जी ने तो मुझ से कहा कि हे विभीषण जी सुनिए, मैं ऐसा अधम हूँ, मैने तो मानव तन भी नहीं पाया, पर फिर भी रामजी ने तो मुझ पर भी कृपा ही की है। और आपका शरणागत के प्रति स्नेह का स्मरण करके हनुमान जी के दोनों नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आये। (बिलोचन= आँख, नयन, लोचन)
प्रभु भंजन भव भीर।आदि विशेषणों का भाव है कि प्रभु आप समर्थ है में सब प्रकार से असमर्थ हूँ प्रभु आप भवभीर भंजन है में सभीत हूँ प्रभु आप आरति हरण है में आर्त हूँ प्रभु आप शरण सुखद है में शरण में हूँ प्रभु आप रघुवीर है में आपके शत्रु अर्थात रावण का भाई हूँ आपके दरबार में दीन का आदर है में सब प्रकार से दीन हूँ। (भवभीर= आवागमन का दुख, संसार का संकट) (भंजन= भंग, ध्वंस, नाश)
विभीषण ने रामजी से कहा मैं अत्यंत नीच स्वभाव का राक्षस हूँ। मैंने कभी शुभ आचरण नहीं किया। जिनका रूप मुनियों के भी ध्यानमें नहीं आता, उन प्रभु ने स्वयं हर्षित होकर मुझे हृदय से लगा लिया। विभीषण जी अपने को तीन तरह से अनधिकारी बताते है! पहला अपने को निशचर कह कर भजन का अनधिकारी कहा! दूसरा अपना अधम स्वभाव बता कर ज्ञान का अनधिकारी कहा तीसरा सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ बता कर कर्म का अनधिकारी कहा! (सूत्र) जब तक आप अपने को अधिकारी बताते रहोगे तब तक ईश्वर को प्राप्त करना असंभव ही है।
प्रभु ने मुझे हृदय से लगाया और तो और मेरे लिए अपनी प्रतिज्ञा भी तोड़ दी! वन में ब्राह्मणों एवं मुनियों के हड्डियों के ढेर को देखकर श्रीराम ने पृथ्वी को निशाचर हीन करने की प्रतिज्ञा की थी।कि मैं पृथ्वी को राक्षस रहित कर दूँगा। पर मुझ पर कृपा की।
सुन्दर कांड वास्तव में अति सुंदर कथाओ का भंडार है। इसका कारण यह कि सेवा धर्म की पराकाष्ठा हनुमानजी में और शरणागत धर्म का उच्चतम उदाहरण विभीषण जी में मोजूद है।
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