माया मरी न मन मरा, मर मर गये शरीर।
यही तो भुशुंड जी ने कहा हे गरुण जी माया की प्रचंड सेना संसार भर में छाई हुई है। कामादि (काम, क्रोध और लोभ) उसके सेनापति हैं और दम्भ, कपट और पाखंड योद्धा हैं। माया कभी भी अकेली नहीं रहती। (कटक= समूह) (भट= योद्धा)
इसलिए मोह ,तृष्णा में नहीं पड़ना चाहिए यही मुक्ति के बाधक है बाबा तुलसी ने भी सुन्दर कांड में विभीषण के माध्यम से यही कहा है।
पुनःसंत कबीर ने कहा- यह संसार एक माया है जो शंकर भगवान से भी अधिक बलवान है।यह स्वंय आप के प्रयास से कभी नहीं छुट सकता है। केवलऔर केवल प्रभु ही इससे हम आपको उवार अर्थात छुड़ा सकते है।
स्वामी राजेश्वरानंद जी का सुन्दर भजन
हे पक्षियों के स्वामी गरूण जी! इस संसार में ऐसा कौन ज्ञानी, तपस्वी, शूरवीर, कवि, विद्वान और गुणों का धाम है, जिसकी लोभ ने विडंबना अर्थात (मिट्टी पलीद) न की हो।
हे पक्षियों के स्वामी गरूण जी! लक्ष्मी के मद ने किसको टेढ़ा और प्रभुता ने किसको बहरा नहीं कर दिया? ऐसा कौन है जिसे मृगनयनी (सुंदर और रूपवान स्त्री) के नेत्र बाण न लगे हों। (बधिर=बहरा,जो सुनता न हो) (मृगलोचनि=हिरण के समान सुन्दर आँखोंवाली महिला) (अस=तुल्य, समान,इस जैसा) (सर= बाण ,तालाब)
शिवजी कहते है हे भवानी-जो ज्ञानियों में और भक्तों में शिरोमणि हैं एवं त्रिभुवनपति भगवान के वाहन है, उन गरुड़ को भी माया ने मोह लिया। फिर भी नीच मनुष्य मूर्खतावश घमंड किया करते हैं।
ब्रह्मा जी ने भी तो गरुण जी से यही कहा।
देव रिषि नारद ने भी गरुण जी से यही कहा
हे पक्षीराज! उनमें से भी किस-किस को मोह ने अंधा (विवेकशून्य) नहीं किया? संसार में ऐसा कौन है जिसे काम ने न नचाया हो? तृष्णा ने किसको मतवाला नहीं बनाया? क्रोध ने किसका हृदय नहीं जलाया? (अंधा= विवेकशून्य) (केहि= किसे, किसको, किस,किसी प्रकार, किसी भाँति)
पर वही माया श्री रघुवीर की दासी है। यद्यपि समझ लेने पर वह मिथ्या ही है, किंतु वह श्री रामजी की कृपा के बिना छूटती नहीं। हे नाथ! यह मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ। (पद रोपि= प्रतिज्ञा करके)
जो माया सारे जगत् को नचाती है और जिसका चरित्र (करनी) किसी ने (लख=समझ) नहीं पाया, हे गरुड़जी! वही माया प्रभु रामजी की भृकुटी के इशारे पर अपने समाज अर्थात (परिवार) सहित नटी की तरह नाचती है।
हे गरुण जी ऐसा में ही नहीं कह रहा वेदो का भी यही मत है।
भक्त कि तो हमेशा यही विचार धारा होती है।
ब्रह्मा,विष्णु महेश की माया बड़ी प्रबल है किन्तु वह भी भरतजी की बुद्धि की ओर ताक नहीं सकती।क्योंकि भरतजी के हृदय में तो सीता-रामजी का निवास है।
क्योकि
क्योकि भरत जी का तो यही कहना है। और यही सिद्धान्त है।
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