दूसरा भाव सभी मुनियो को शुकदेवजी, सनकादि, नारद मुनि से आत्म तत्व का ज्ञान प्राप्त हुआ! और सब मुनि इनको अपने से बड़ा जानते मानते हैं। अतः”मुनिवर” और विज्ञान विशारद कहा। “विज्ञान विशारद” कहकर इनको ज्ञानी भक्त सूचित किया। इन सभी के “सबहि धरनि धरि सीसा” कहने का भाव क्योकि तुलसीदास ने स्वयं कहा-
तुलसीदासजी=वानरों के राजा सुग्रीवजी, रीछों के राजा जामवंत जी, राक्षसों के राजा विभीषणजी और अंगदजी आदि जितना वानरों का समाज है। पशु, पक्षी, देवता, मनुष्य, असुर समेत जितने रामजी के चरणों के उपासक हैं, मैं उन सबके चरणकमलों की वंदना करता हूँ, जो श्री रामजी के निष्काम सेवक हैं। खग मृग चरणों को सरोज कहना कहाँ तक ठीक है? क्योकि जो भी जीव, चाहे वह पशु पक्षी कोई भी क्यों न हो, राम जी की अकाम भक्ति करेगा वह रामाकार हो जायगा और रामजी का लोक और मुक्ति पायेगा! रामरूप हो जाने से उसके भी चरण राम चरण समान हो जायेगे, और पूजनीय रहेंगे! इस कारण पद सरोज कहा (सरोज=कमल) (कीस=वानरों)
रामजी ने स्वयं कहा की सभी आशाओं को छोड़ कर अगर मेरी शरण में कोई आता है तो उसको साधु बना देता हूँ और साधु तो पूजनीय होते है और उनकी देखभाल ऐसे करता हूँ जैसे माँ अपने छोटे बच्चे की तरह करती है।
तुलसीदासजी जानकी की उत्तमता दिखाते हुए कहते हैं,कि मैं जनक महाराज की पुत्री,जगत की माता करुणानिधान रामचन्द्र जी अतिशय प्रिय जो जानकी जी हैं,उनके दोनों चरण कमलों को मनाता हूँ जिनकी कृपा से मैं निर्मल बुद्ध पाऊँ क्योंकि निर्मल मन से ही रामजी को पाया जा सकता है। (करुणानिधान= करुणा का सागर का खजाना= करुणा परिपूर्ण हृदय वाला)
सीता पार्वती से बोली- हे देवी! आपके चरण कमलों की पूजा करके देवता, मनुष्य और मुनि सभी सुखी हो जाते हैं।
तुलसीदास सीता जी से निरमल मति माँग रहे है क्योंकि राम जी को पाने का यह (सूत्र) स्वयं राम जी ने सुग्रीव से कहा है।
तुलसीदासजी ने कहा-जगत में जितने जड़ और चेतन जीव हैं, सबको राममय जानकर मैं उन सबके चरणकमलों की सदा दोनों हाथ जोड़कर वन्दना करता हूँ।(पाणि=कर,हाथ) (जत=जितना) (सकल=सब)
तुलसीदासजी ने कहा:-देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी (खग), प्रेत, पितर, गंधर्व, किन्नर और निशाचर सबको मैं प्रणाम करता हूँ। अब सब मुझ पर कृपा कीजिए। (रजनिचर=निशाचर,चंद्रमा,राक्षस,जो रात में घूमता-फिरता हो) (गंधर्ब=ये पुराण के अनुसार स्वर्ग में रहते हैं और वहाँ गाने का काम करते हैं) (किंनर=एक प्रकार के देवता,विशेष-इनका मुख घोड़े के समान होता है और ये संगीत में अत्यंत कुशल होते हैं।ये लोग पुलस्त्य ऋषि के वशंज माने जाते हैं) (सर्ब=समस्त,सब,सारा,संपूर्ण)
तुलसीदासजी ने कहा- चौरासी लाख योनियों में चार प्रकार के (स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जरायुज) जीव जल, पृथ्वी और आकाश में रहते हैं, उन सबसे भरे हुए इस सारे जगत को श्री सीताराममय जानकर मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ। (सूत्र) तुलसीदास ने संसारिक जीव को ईश्वर का अंश माना है! (आकर=उत्पत्ति-स्थान,खान,योनियों)
कबीरा कुंआ एक हैं -कुआ एक ही है जिससे लोग पानी भरते हैं। भाव इस श्रष्टि का मालिक एक ही है (पूर्ण परम ब्रह्म)
पानी भरैं अनेक- सभी लोग पानी भरते हैं। भाव सभी लोगों का देने वाला दाता एक ही है।
बर्तन में ही भेद है-पानी एक है और बर्तनों में ही भेद है।
पानी सब में एक-सभी बर्तनों में पानी एक ही है। भाव सभी जीवों में प्राण शक्ति एक ही है.जाति, धर्म, सम्प्रदाय, ऊंच नीच सभी वर्ग इंसान के बनाये हुए हैं, ईश्वर किसी भी व्यक्ति में कोई भेद नहीं करता है। परम सत्ता की नजर में हम सभी एक हैं और उसी की संतान हैं। जैसे कुआं तो एक होता है लेकिन उसमे नाना रंग के मटके पानी की तलाश में आते हैं, नाना जातियों, धर्मों के लोग उससे अपनी प्यास को शांत करते हैं, लेकिन कुआ किसी में कोई भेद नहीं करता है। उसकी नजर में सभी समान है और वह सभी को पानी उपलब्ध करवाता है। यही तथ्य ईश्वर के साथ भी है, वह किसी से भेद नहीं करता है। बर्तनों में भेद हो सकते हैं लेकिन पानी में कोई भेद नहीं होता है। मनुष्य ने अपनी सुविधा के हिसाब से ईश्वर का नामकरण कर लिए है और उसे कई नाम दे डाले हैं। फिर उन नामों की श्रेष्ठता को लेकर आपस में लड़ाई झगडा और संघर्ष करता है जिस पर कबीर को बड़ा ही दुःख होता है। सभी कहते हैं की उनका ईश्वर सबसे श्रेष्ठ हैं, दूसरों के नहीं, यही झगड़े की मूल जड़ है। स्वंय से ऊपर उठ कर ईश्वर का आंकलन करना आवश्यक है तभी सभी संघर्षों का अंत होगा।
भगवान शंकर ने भी माता पार्वती से कहा -उमा, जो मनुष्य काम क्रोध मोह मद जैसे समस्त विकारों को त्याग कर राम नाम का ही आधार पर जीते है तो समस्त जगत उन्हें राममय ही दिखता है और राम में ही समस्त जगत मिल जाता है। फिर उन्हें राम के अतिरिक्त कुछ भी पाने की जिज्ञासा नहीं रह जाती।
कबीर साहेब जी हमे बताते है कि जिस तरह से हाथ की सभी ऊंगली समान नही होती। उसी प्रकार इस संसार में अलग अलग तरह के अलग अलग गुणों व स्वभावो के मनुष्य है। जिन में से कुछ तो मनुष्य है अच्छे स्वभाव रखने वाले किसी से कोई मतलब नहीं। कुछ देवता यानी भगवान को मानने वाले पूर्ण सतगुरु से नाम दीक्षा लेकर अपने अच्छे कर्म करते हुए साधू संतों जैसे स्वभाव वाले। ओर फिर आखिर में ढोर के ढ़ोर पत्थर जैसे खुद तो भगवान पर अविश्वास है। साधू संतो से भी लड़ाई झगड़ा करने से बिल्कुल भी नहीं हिचकते।
काकभुशुण्डि ने गरुड़ से कहा- स्वयं सुखराशि होते हुए भी जीव दुःखो के भीषण प्रवाह में डूबता उतरता जा रहा है। देह को सच्चा मानकर, संसार को सच्चा मानकर मर्कट की नाँई बन्धकर नाच कर रहा है। (मायादौलत=भ्रम, इंद्रजाल,जादू, कपट,धोखा, दया, ममता)
१ (माया मोह मतलब=माया जाल,सांसारिक आकर्षण; ममता)
२ (मायाजाल मतलब=धोखे का जाल; मोह का फंदा 2. माया 3. घर-गृहस्थी का जंजाल)
३ मायापट मतलब=माया का परदा; माया रूपी आवरण या पट।
४ मायाबद्ध मतलब=माया में बँधा हुआ,जो माया रूपी जाल में फँसा या बँधा हो।
५ मायामंत्र मतलब=मोहनी विद्या,सम्मोहन क्रिया।
६ मायावर्ग मतलब=(गणित) वह बड़ा वर्ग जिसमें अनेक छोटे-छोटे वर्ग होते हैं और उनमें कुछ संख्याएँ या अंक कुछ ऐसे क्रम से रखे रहते हैं कि उनका हर तरफ़ से जोड़ बराबर या एक सा ही आता है; जिसको (मैज़िक स्क्वायर) भी कहते है।
७ मायावाद मतलब = वह सिद्धांत कि केवल ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या है तथा भ्रम के कारण जगत सत्य प्रतीत होता है; संसार को मिथ्या मानने का सिद्धांत) “सो” जो ऊपर ईस्वर अंस में कहा गया। माया जड़ है और जीव चेतन है, जड़ पदार्थ चेतन को कैसे बाँध सकता है?और चेतन स्वयं कैसे जड़ के वश होता है?इस शंका के निवारण के लिये कहते है -बंध्यो जीव मरकट के नाहीं तोता और बंदर स्वयं अज्ञान से बेंधते हैँ। जीव अबिनासी अर्थात इसका विनाश नहीं होता।चेतन माने जड़ नहीं है।अमल अर्थात गंदगी इसमें नहीं है निर्मल है। सहज सुख रासी नेचुरल ही पूरा प्लेजर आनंद है।
गोस्वामीजी विनयपत्रिका में लिखते हैं-
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