ramcharitmanas sampurn ramayan

बंदों अवधपुरी आति पावनि। सरजू सारि कलिकलुष नसावनि॥

बंदों अवधपुरी आति पावनि।

सरयू का साधारण अर्थ स से सीता रा से राम जू इसलिए सरजू के जल को सीता राम जू का सगुण रूप माना जाता है।जैसा की कहा गया है सरयू सगुण पुमान्” का अर्थ है कि सरयू नदी भगवान का साकार रूप है।

बंदों अवधपुरी आति पावनि। सरजू सारि कलिकलुष नसावनि॥

बाबा ने कलयुग की कालिमा को नष्ट करने वाली सरजूजी और अवधपुरी की वन्दना करते है।
सरजू सारि कलिकलुष नसावनि॥
पाप तो अन्य युगों में भी होते थे।
चारों युगों में धर्म का स्वरुप बदलता रहता है,चारों युगों में धर्म के साथ साथ सतोगुण रजोगुण और तमोगुण इन तीनों की मात्रा भी बदलती रहती है। हमारी प्रकृति तीन गुणों से मिलकर बनी है प्रकृति का अर्थ ही त्रिगुणों का मिश्रण है।हमारा शरीर पंच तत्व और इन तीनों गुणों से मिलकर बना है।

सतयुग में धर्म अपने चारों पैर अर्थात सत्य, दया, तप और शौच, पर स्थिर रहता था।
सतयुग में सतगुण की प्रधानता के कारण ज्ञानयोग के द्वारा जीव का कल्याण होता था।

(शौच की व्याख्या शौच का आध्यात्मिक अर्थ)

1. शरीर की शुद्धता-
प्रतिदिन स्नान, स्वच्छ वस्त्र, और आसपास की सफाई रखना।

सात्विक आहार- शुद्ध, ताजे, पौष्टिक और अहिंसक भोजन लेना। मांस, मदिरा, तंबाकू आदि से दूर रहना।
योग और प्राणायाम- से शरीर को स्वस्थ और ऊर्जा से भरपूर बनाए रखना, जिससे साधना में सहयोग मिले सके।
2. मन की शुद्धता-
नकारात्मक विचारों से दूरी- ईर्ष्या, द्वेष, लालच, क्रोध आदि का त्याग करना।
सकारात्मकता और करुणा- प्रेम, सहानुभूति, क्षमा और सहनशीलता जैसे गुणों का विकास करना।
ध्यान- मन को नियंत्रित करने और एकाग्रता बढ़ाने का प्रमुख साधन ध्यान है।
3. विचारों की शुद्धता-
सत्संग और स्वाध्याय- धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन, संतों की संगति और आत्मचिंतन।

सुविचारों का अभ्यास- सत्य, धर्म, सेवा और आत्मज्ञान जैसे विचारों पर चिंतन।
वाणी की शुद्धता- सत्य बोलना, मधुर बोलना और अनावश्यक वाद-विवाद से बचना।

कृतजुग सब जोगी बिग्यानी। करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी॥

त्रेतायुग में धर्म के तीन पैर रह जाते है। रजोगुण प्लस सतोगुण की प्रधानता कारण कर्मयोग के द्वारा जीव का कल्याण होता था।

त्रेताँ बिबिध जग्य नर करहीं। प्रभुहि समर्पि कर्म भव तरहीं॥

द्वापरयुग में धर्म दो पैरो पर खड़ा रहता है। रजोगुण की प्रधानता के कारण भक्ति योग के द्वारा जीव का कल्याण होता था।

द्वापर करि रघुपति पद पूजा। नर भव तरहिं उपाय न दूजा॥

पर महाराज कलियुग में धर्म केवल एक पग पर रह गया है, तमोगुण की प्रधानता के कारण और मनुष्य के अपने मन माने आचरण के कारण हकीकत में भजन भी नहीं होता ये कोई और नहीं ब्रह्म ज्ञानी रावण ने कहा।

होइहि भजनु न तामस देहा। मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा॥

तामसी वृत्ति के कारण ज्ञानयोग कर्मयोग भक्ति योग इन तीनो में हमारा भरोसा नहीं रहता, इसलिए पाप का प्रभाव अधिक बढ़ता रहता है। कलियुग का मनुष्य अधिक चंचल, स्वार्थी, और मोहग्रस्त होने के कारण भ्रमित हो जाता है। इसलिए पाप करना अधिक सहज और सरल हो गया है।

और महराज सत्य को पहचानना बहुत कठिन हो गया है सही और गलत के बीच की रेखा धुंधली हो जाती है क्या सही है और क्या गलत है इसका निर्णय न कर पाने के कारण भ्रम की स्थिति भी आम होती है। संसार के भोग-विलास, तकनीक, और भौतिक सुख सुविधाओं में अत्यधिक आकर्षण के कारण मनुष्य का मन अत्यधिक चंचल रहता है। अधिकांश लोग अपने हित को सबसे पहले रखते हैं,स्वार्थ बढ़ जाता है।और स्वार्थ के स्तर तो देखिये।

शिव जी ने उमाजी से कहा-

सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती।।
जेहि तें कछु निज स्वारथ होई। तेहि पर ममता कर सब कोई।।

कलियुग में तमोगुण की अधिकता के कारण पाप का विस्तार बहुत तीव्र और व्यापक होता है। समाज और धर्म की अनदेखा करना तो महाराज आम बात हो जाती है, पाप तमोगुण का ही स्वरूप है जहाँ तमोगुण के कारण मनुष्य में अज्ञान, आलस्य, मोह, हिंसा, क्रोध, काम, लोभ, मद आदि बढ़ जाते हैं। चंचलता, स्वार्थ, और भ्रम के कारण मनुष्य धर्माचरण का पालन करना कठिन हो जाता है। इन सभी कारणों से आध्यात्मिक मार्ग से भटकाव स्वाभाविक हो जाता है।

तामस बहुत रजोगुन थोरा। कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा॥

कलियुग बड़ा ही भयानक है शांति, धर्म, धैर्य, संयम, संतोष आदि सब लुप्त हो जाते हैं। फिर मनुष्य इस संसार में भटकता रहता है।

कलियुग के पापों के क्षय अर्थात नाश का सुन्दर और सरल उपाय रामजी ने और बाबा तुलसी ने स्वयं बताया है।

जा मज्जन ते बिनहिं प्रयासा। मम समीप नर पावहिं बासा।।

बहुत धर्म करने से जो सामीप्य मुक्ति मिलती है वह तो केवल सरयू स्नान से ही मिल जाती है, रामजी के इस कथन का आशय यह है कि सब धर्मो के फल से सरयू-स्नान का फल सबसे अधिक है। जीव मेरे समीप मेरे धाम में निवास करते है।

जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि। उत्तर दिसि बह सरजू पावनि।।

सरजूजी रामजी के लिए धरती पर अवतरित हुई सरयू वशिष्टजी की पुत्री थी, जिस कारण से रामजी सरजूजी को अपनी बहन मानते थे।

बाबा तुलसी ने तो दो दो उपाय बताये-
दरस परस मज्जन अरु पाना। हरइ पाप कह बेद पुराना॥

वेद-पुराण कहते है कि श्रीसरयू का दर्शन, स्पर्श, स्नान और जलपान पापो को हरता है। (दरस, परस, मज्जन, पान) चार कर्मो में से किसी भी एक कर्म से पाप का क्षय होता है। (सूत्र) बाबा तुलसी ने पवित्र नदियों में स्नान करने की विधि बताई पहले दूर से दर्शन होते हैं, निकट पहुँचने पर जल का स्पर्श होता है, भक्त जन उसके जल को अपने शीश पर चढ़ाते है, जल में प्रवेश करके फिर स्नान किया जाता है। अंत में जल पीते हैं-यह रिवाज है। और यदि हम और आप ऐसा न भी कर सके तो बाबा तुलसी ने इससे भी सरल उपाय बताया है।

कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना। एक अधार राम गुन गाना।।

कलिजुग केवल हरि गुन गाहा। गावत नर पावहिं भव थाहा।।
नामु लेत भवसिंधु सुखाहीं। करहु बिचारु सुजन मन माहीं॥
नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥

बंदों अवधपुरी आति पावनि। सरजू सारि कलिकलुष नसावनि॥

नदी पुनीत अमित महिमा अति। कहि न सकइ सारदा बिमल मति॥
प्रमाण में बाबा ने लिखा वनवास के दौरान-

जे सर सरित राम अवगाहहिं। तिनहिं देवसर सरित सरारहिं॥

जिन तालाबों और नदियों में रामजी स्नान करते हैं या उनमें थाह लेते चलते हैं।उनके भाग्य की प्रसंशा पंच-सरोवर और देवनदियाँ करती है हमारे शास्त्रों में पांच पवित्र सरोवर है जिन्हें पंच सरोवर कहा जाता है।
मान सरोवर, बिंदु सरोवर, नारायण सरोवर, पम्पा सरोवर और पुष्कर सरोवर ये पांच सरोवर है। श्रीमद्भागवत पुराण में भी इनका उल्लेख मिलता है। चार सरोवर भारत में हैं, जबकि मान सरोवर चीन में है।

देवसर और देवसरिताएँ यह कहते हैं कि अभी तक हम अपने आप को धन्य मानते थे कि देवताओ से हमारा सम्बन्ध है, देवता हम में स्नान करते हैं। पर चित्रकूट के सभी तालाब, नदियाँ ये तो हमसे भो अधिक भाग्यवान हैं कि इनमें देवताओं के भी देवता स्नान करते हैं।
बाबा हरिहरप्रसादजी लिखते हैं कि देवसरि गंगाजी कहती है कि मुझे तो केवल रामजी के पदनख के स्पर्श मात्र से इतनी बड़ाई मिली पर चित्रकूट में तो सभी सर सरिता ने रामजी के पूरे शरीर का स्पर्श किया। तो फिर इनकी पावनता और प्रशंसा कौन कर सकता है?
राम अबगाहहिं’ इसमें प्रवेश करना, थाह लेते हुए. पार होना और स्नान करना सभी आ जाते है। क्योंकि सब नदी-तालाबो में नहाते तो होंगे नहीं। (अवगाहन= जल में घुसकर किया जानेवाला स्नान)

सुरसरि सरसइ दिनकर कन्या। मेकलसुता गोदावरि धन्या॥
सब सर सिंधु नदीं नद नाना। मंदाकिनि कर करहिं बखाना॥

रामजी के चित्रकूट में वास करने से मन्दाकिनी के भाग्य की सभी प्रशंसा करते है।
मन्दाकिनी की कौन-कौन बड़ाई करते हैं-
गंगा जी,गंगा जी जो सर्वतीर्थमयी हैं, ब्रह्मद्रव हैं, सरस्वती,सरस्वती ब्रह्मरूपा, सूर्यकुमारी यमुना, यमुना सूर्य भगवान की पुत्री, मेकलसुता अर्थात नर्मदाजी, नर्मदा जिसमें शिवजी सदा निवास करते है। गोदावरी आदि बड़ी-बड़ी महिमा मयी नदियाँ और सभी अनेक तालाब, समुद्र, नदियाँ और नद (सोनभद्र, ब्रह्मपत्र, महानद आदि) मन्दाकिनी की बड़ाई कर रहे हैं। और प्रशंसा करते हुए कहते है कि चित्रकूट के सभी तालाब,नदियाँ धन्य भाग्य कि वनवास के दौरान प्रभु इसके तट पर वास करते है। (अवगाहन =स्नान) (मेकलसुता=नर्मदा जी)

महिमा कहिअ कवनि बिधि तासू। सुखसागर जहँ कीन्ह निवासू॥

उनकी महिमा किस प्रकार कही जा सके, जहाँ सुखसिंधु अर्थात सुख के सागर राम जी ने निवास किया है जो क्षीर-सागर और अवध को छोड़कर (दोनों स्थान ही प्रभु को प्रिय है) और दोनों स्थानों को छोड़ कर श्रीसीता राम लक्ष्मण जी चित्रकूट में आकर रहे।
जब रामजी का सभी के साथ संपर्क कुछ समय का ही रहा तब उनकी महिमा का वर्णन नहीं किया जा सकता तब फिर सरजु जी की महिमा का गुणगान कौन कर सकता है?
इसलिए

नदी पुनीत अमित महिमा अति। काहि न सके सारदा बिमल मति॥

पर सरयूजी में तो रामजी का नित्य स्नान होता था, तब फिर सरजु जी की पुनीतता और महिमा का वर्णन कैसे कोई कर सकता है?

कोटि कल्प काशी बसे,मथुरा कल्प सहास।
एक निमिष सरयू बसै,तुलै न तुलसी दास।।

करोड़ों कल्पो तक भोला भंडारी औघड़ दानी शिव जी की काशी नगरी मे निवास करने से जो फल प्राप्त होता है।
हजार कल्प तक श्री नंद नंदन यशोदा नंदन बांके बिहारी श्री कृष्ण भगवान के जन्म स्थली मथुरा नगरी मे निवास करने से जो फल प्राप्त होता है।
वह फल परम ब्रह्म परमात्मा साकेत बिहारी दो भुज धारी भगवान श्रीराम जी  के जन्म स्थान श्री अयोध्या धाम मे सरयू महारानी के तट पर एक निमिष निवास करने से प्राप्त हो जाता है।
तुलसी दास जी कह रहे है।सरयू महारानी के तट स्थित अयोध्या धाम की महिमा का वर्णन या गुनगान और बखान नही कर सकता।

नदी पुनीत अमित महिमा अति। काहि न सके सारदा बिमल मति॥

स्कन्द पुराण वैष्णव खंड 2 के अनुसार-
हजार मन्वन्तर तक काशी वास करने का जो फल है वह श्रीसरयू जी के दर्शन मात्र से प्राप्त हो जाता है।
मथुरा पुरी में एक कल्पतक वास करने का फल सरयू दर्शन मात्र से प्राप्त हो जाता है।
साठ हजार वर्ष तक गंगा जी में स्नान करने का जो फल है। वह इस कलिकाल में रामजी की पुरी श्रीअयोध्या में आधे पल भर में प्राप्त हो जाता।  अयोध्यापुरी पृथ्वी को स्पर्श नहीं करती, यह विष्णु के चक्र पर बसी हुई है।सरजु जी में तो रामजी का  नित्य स्नान होता था, इसलिए सरजु जी की महिमा अमित है।

हिमालय के कैलाश मानसरोवर से सरयूजी उद्गम माना जाता है, सरयू को बह्मचारिणी बताया गया है।इसके अन्य नाम देविका व रामप्रिया भी है। कई पौराणिक कथा के अनुसार सरयू का अवतरण गंगा से पहले हुआ था।सरयू जल को सक्षात ब्रह्म स्वरुप बताया जाता है। जो मोक्ष प्रदान करता है।अयोध्या में रामजी का पूजा अर्चना बिना सरयू जल के सम्भव नहीं है। इस कारण अयोध्या के किसी भी मंदिर में प्रवेश करने से पहले सरयू का दर्शन तथा स्नान आवश्यक होता है। इसके जल में स्नान कर वह तीर्थ भी पाप मुक्त हो जाते है। जो दूसरो को पाप मुक्त करते है।

पद्मपुराण के उत्तरखंड, में भी सरयू नदी का माहात्म्य वर्णित है।
सरयू में नित दूध बहत है मूरख जाने पानी।
अर्थात पावन सलिला सरयू में निरंतर दूग्ध रूपी अमृत बह रहा है मूर्ख जिसे पानी समझते है। सरयू ब्रह्मद्रव है, सरयू नदी अयोध्यावासियों की बड़ी प्रिय नदी रही है।
कालिदास के रघुवंश् में राम सरयू को जननी के समान ही पूज्य कहते है। सरयू के तट पर अनेक यज्ञों का वर्णन कालिदास ने अपने महाकाव्य रघुवंश, में किया है। कालिदासजी ने सरयू, गंगा के संगम को तीर्थ बताया है। यहां दशरथ के पिता अज ने प्राण त्याग दिए थे।

पुराणों में कहा गया है कि सरयू भगवान विष्णु के नेत्रों से प्रकट हुई हैं।
आनन्द रामायण के यात्रा कांड में उल्लेख आया है कि प्राचीन काल में शंकासुर दैत्य वेदों को चुराकर समुद्र में छिप गया था। तब भगवान विष्णु ने मत्स्य रूप धारण कर दैत्य का वध किया था, और ब्रह्माजी को वेद सौंपकर अपना वास्तविक स्वरूप धारण किया था।उस समय हर्ष के कारण विष्णुजी के आंखों से प्रेमाश्रु टपक पड़े थे। ब्रहमाजी ने उन प्रेमाश्रु को मान सरोवर में डालकर सुरक्षित कर लिया था। इस जल को महा पराक्रमी वैवस्वत महाराज ने वाण के प्रहार से मान सरोवर से बाहर निकाला था। यही जल धारा सरयू के नाम से जानी जाने लगी।बाद में भगीरथ महाराज अपने पूर्वजों के उद्धार के लिए गंगा जी को धरा पर लाये
और उन्होंने ही गंगा व सरयू का संगम कराया था।

वाल्मीकी रामायण तथा अन्य पौराणिक आख्यानों के अनुसार ब्रह्माजी ने अपने मनोयोग से हिमालय पर्वत में रमणीय क्षेत्र में एक सरोवर का निर्माण किया। जिस सरोवर का नाम मानस-सरोवर पड़ा। इस सरोवर से निकली नदी सरयू नाम से लोक प्रसिद्ध हुई। जिसका बाबा तुलसी  ने इनका उदबोधन मानस नंदनी नाम से भी किया।

सरयू के किनारे घना जंगल था। जहां शिकार के लिए जाते समय दशरथ जी द्वारा श्रवणकुमार की हत्या हो गई थी।
भगवान राम ने इसी नदी में अपनी जल समाधि ली थी।
अयोध्या के पास से बहने के कारण इस नदी का विशेष महत्व है।

 पुराणों में एक कथा आती है। एक बार लक्ष्मणजी तीर्थयात्रा जाने के लिये  रामजी से प्रार्थना करने लगे।
राम ने कहा-‘ भैया! आपकी तीर्थ यात्रा जाने की इच्छा है तो बहुत ही अच्छी बात है।
पर आप श्रीअयोध्यापुरी की व्यवस्था करके अवश्य पधारिये। इतना कहने के बाद रामजी मुसकराने लगे, लक्ष्मणजी ने कहा-भगवन दास से कौन-सी गलती हो गयी, जिसके कारण आप मुसकरा रहे हैं। राम ने कहा- लक्ष्मण समय आने पर खुद ही आप समझ जायेगे।
आज्ञा प्राप्त करके लक्ष्मण जी तीर्थ यात्रा जाने के लिये अपनी तैयारी करने लगे। सैकड़ों सेवक, मन्त्री, मित्र, पुरजन, परिजन भी साथ में जाने के लिये तैयारी में लगे हुए थे। सभी को तीर्थ यात्रा जाने की बड़ी प्रसन्नता थी। गुरुदेव वशिष्ठजी ने यात्रा का मुहूर्त श्रावण शुक्लपक्ष पंचमी को निकाला।
मुहूर्त के अनुसार सूर्योदय के पहले प्रस्थान करना था। इसी को ध्यान में रखकर तैयारी हो रही थी। अयोध्यापुरी की देख-भाल करने के लिये भरतजी, शत्रुघ्नजी, हनुमानजी एवं सुमन्तजी आदि मन्त्रियों को समझा दिया गया।
इस प्रकार करते-कराते रात्रि के दो बज गये, लक्ष्मणजी सोचने लगे। आज प्रात: पाँच बजे यात्रा करनी है। यदि अब विश्राम करूँगा तो विलम्ब होगा।
अब ब्रह्म मुहूर्त होने वाला भी है। अत: पहले जाकर श्री सरयूजी का स्नान कर लें। ऐसा निश्चय करके स्नान करने लक्ष्मणजी सरयूजी के किनारे पधारे। वहाँ बहुत प्रकाश हो रहा था।राजघाट पर हजारों राजा-महाराजा स्नान कर संध्या करके आकाश मार्ग से चले जा रहे थे।

लक्ष्मणजी सोचने लगे। कोई राम नवमी का पर्व नहीं, कोई उत्सव-विशेष नहीं, फिर इस ब्राह्म वेला में इतनी भीड़ कैसे इकट्ठा हो गयी। इस प्रकार सोचते हुए महिलाओं के घाट पर पहुँचे, जहाँ क्रमशः कौसल्या, कैकेयी, सुमित्रा आदि हजारों माताएँ स्नान कर रही थीं। लक्ष्मण जी यह सारा दृश्य देखकर लौट आये। राम ने पूछा- लक्ष्मण! आज आपके तीर्थ यात्रा जाने का मुहूर्त था, परंतु आप अभी तक स्नान ही नहीं किये। लक्ष्मणजी प्रणाम करके कहने लगे- भगवन मैंने एक आश्चर्यमय घटना सरयूजी के किनारे देखि। राम के पूछने पर लक्ष्मणजी ने सारी घटना सुना दी। राम ने कहा- लक्ष्मण! आपने उन लोगों से पूछा नहीं कि आप कौन हैं, कहाँ से पधारे हैं।

लक्ष्मण जी ने कहा- आज मैं पुन: जाऊँगा और सबसे परिचय पूछुँगा। लक्ष्मणजी दूसरे दिन पुनः दो बजे रात्रि में गये। कल की तरह आज भी हजारों लोग स्नान कर रहे थे। कोई किसी से बोलता नहीं है। सबके मुँह पर प्रसन्नता एवं तेज झलक रहा है। लक्ष्मण जी हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए बोले- भगवन! आप लोगों का परिचय जानना चाहता हूँ। हजारों राजाओं ने कहा- हम लोग काशी, गया, जगन्नाथ, बद्रीनाथ, केदारनाथ, श्रीरंगम्‌, रामेश्वरम्‌ और द्वारकापुरी आदि अड्सठ करोड़ तीर्थ देवताओं का रूप धारण करके यहाँ नित्य प्रति श्रीअयोध्या का दर्शन एवं सरयू जी का स्नान करने आते है। इसके बाद लक्ष्मण जी महिलाओं के घाट पर गये और उन्होंने उन माताओं को प्रणाम करके उनका परिचय पूछा। उन माताओंने कहा-‘हम गंगा, यमुना, सरस्वती, ताप्ती, तुंगभद्रा, कमला, कोशी, गंडक, नर्मदा, कृष्णा एवं क्षिप्रा आदि भारत की हजारों पवित्र नदियाँ नित्य प्रति राम पुरी का दर्शन एवं सरयूजी का स्नान करने आती हैं।उसी समय एक विकराल काला पुरुष आकाश मार्ग से आया और  सरयूजी की धारा में गिरा। थोड़ी देर बाद जल से निकला तो गौरवर्ण, हाथमें शंख, चक्र, गदा आदि धारण किये।
लक्ष्मणजी ने ऋषियों से पूछा- भगवन! ये देवता कौन हैं, जो अभी कितने काले थे और सरयूजी में गोता लगाते ही गौरवर्ण के हो गये। ऋषियों ने कहा- लक्ष्मण! ये तीर्थ राज प्रयाग हैं। हजारों यात्री नित्यप्रति तीर्थराज प्रयाग के संगम में स्नान करके अपना पाप छोड़ जाते हैं। पाप का स्वरूप काला होता है, इसलिये सरयूजी में स्नान करने मात्र से इनका सारा पाप नष्ट हो गया।
लक्ष्मणजी राजमहल में आकर यह आश्चर्यमयी घटना श्री रामजी को सुनाने लगे। राम ने कहा- भैया लक्ष्मण! इस पुरी के दर्शन हेतु अड्सठ करोड़ तीर्थ अयोध्या में आते हैं और आप अयोध्या छोड़कर अन्य तीर्थो का दर्शन करने जा रहे थे। इसीलिये जब आपने मुझ से मुसकराने का कारण पूछा था, तब मैंने कहा था कि उचित समय पर आप स्वयं जान जायँगे। अब आप निर्णय कर लीजिये कि तीर्थ यात्रा में जाना है या नहीं। लक्ष्मणजी श्रीराम के चरणों में गिर गये और बोले- प्रभु! धन्य है यह अवधपुरी, जहाँ सारे तीर्थ दर्शन स्नान हेतु आते हैं। अब दास कहीं किसी यात्रा में नहीं जायेगा।
अवध की लीलाओ का अनुभव करने के लिये हजारों संत महात्मा एवं बड़े-बड़े सद्गृहस्थ अपना घर छोड़कर सीताराम-नाम का जप करते हुए श्रीअवध की गलियों में विचरण करते रहते हैं।

इसलिये बाबा ने कहा

नदी पुनीत अमित महिमा अति। काहि न सके सारदा बिमल मति॥

बंदों अवधपुरी आति पावनि। सरजू सारि कलिकलुष नसावनि॥

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Mahender Upadhyay

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