प्रार्थना में दीन भाव जरूर बनाए रखें। दीन दयाल बिरिदु संभारी।

प्रार्थना में दीन भाव जरूर बनाए रखें। दीन दयाल बिरिदु संभारी।

प्रार्थना में दीन भाव जरूर बनाए रखें। दीन दयाल बिरिदु संभारी

प्रार्थना में आप मांग बनाए रखें या न रखें, लेकिन दीन भाव जरूर बनाए रखें। दीन भाव एक तरह से प्रार्थना के प्राण हैं। यहां सीताजी ने एक शब्द प्रयोग किया है पूरनकाम तो स्वार्थ मुक्त है फिर भी दीन दुखियो पर कृपा करना आपका स्वभाव है! भगवान को भक्त से कोई कामना नहीं है। पर फिर वे इस तरह कृपा बरसाते है, जैसे जलता हुआ दीपक, दीपक को यह फिक्र नहीं होती कि रोशनी किसे दें या न दें। ठीक उसी तरह परम पिता परमात्मा की कृपा बरसती है। जानकी जी ने हनुमान से कहा हे तात! मेरा प्रणाम निवेदन करना और इस प्रकार कहना-कि (दीनों=दुखियों) पर दया करना आपका (विरद=स्वभाव) है और मैं दीन हूँ अतः उस विरद को याद करके, हे नाथ! मेरे भारी संकट को दूर कीजिए। (संभारी=संभारी से जनाया कि आपका “दीनदयाल” बाना गिरने को है उसे सभालिये दूसरा भाव भारी का अर्थ है जिन जिन दीनो आपने संकट हरे उन सबसे मेरा संकट भारी है)। (विरद=बिरद=स्वभाव=बड़ा और सुंदर नाम,कीर्ति, यश) (अस=शब्द कह कर ये भी जनाया है की मेरा संदेसा ज्यो का त्यों कह देना)

कहेहु तात अस मोर प्रनामा। सब प्रकार प्रभु पूरनकामा।।

दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।।

यही तो सती ने भी कहा हे प्रभो! यदि आप दीनदयालु कहलाते हैं और वेदों ने आपका यह यश गाया है कि आप दुख को हरने वाले है। (आरती=दुख)

जौ प्रभु दीनदयालु कहावा। आरती हरन बेद जसु गावा।।

बाबा तुलसी ने कहा- हे प्रभु पतितों को पवित्र करने का तो आपका  प्रण (बाना) है, ऐसा कवि, वेद, संत और पुराण कहते है

जासु पतित पावन बड़ बाना। गावहिं कबि श्रुति संत पुराना॥

मो सम दीन न दीन हित, तुम्ह समान रघुबीर।
अस बिचारि रघुबंस मनि, हरहु बिषम भव भीर।।

बाबा तुलसी अपने आप को सभी पुरुषार्थ से हीन मानते है मुझ सा कोई दीन नहीं है और प्रभु आपका तो विरद ही दीनों का हित करना है आपको दीन अत्यंत प्रिय है अतः मेरा और आपके जैसा कोई जोड़ इस संसार में नहीं है मेरा उद्धार तो केवल और केवल आप ही कर सकते हो रघुवंशमणि कहने का भाव रघुकुल के सभी राजा वीर, दानी, शरणागत की रक्षा करते आये है और आप तो उस कुल के शिरोमणि हो हे रघुवंशमणि! मेरे जन्म-मरण के भयानक दुख का हरण कर लीजिए। हरहु बिषम भव भीर।बिषम- यह भव संकट किसी और से समाप्त नहीं होगा, अतः भय भीत होकर शरण में आया हूँ क्योंकि आपका तो स्वाभाव है कि (भीर=कष्ट, दुख, कायर, डरपोक)

जौं सभीत आवा सरनाई। रखिहउँ ताहि प्रान की नाई।।

लक्ष्मणजी ने रामजी से कहा-  

गुर पितु मातु न जानउँ काहू। कहउँ सुभाउ नाथ पतिआहू।।

मोरें सबइ एक तुम्ह स्वामी। दीनबंधु उर अंतरजामी

भरत जी ने गुरु वसिष्ठ का उपदेश नहीं माना अतः गुरु जी मुझे भले ही द्रोही कहे पर हे तीर्थ राज प्रयाग आपकी कृपा से सीताराम जी के चरणों मेरा प्रेम प्रतिदिन बढ़ता रहें।

जानहुँ रामु कुटिल करि मोही। लोग कहउ गुर साहिब द्रोही।।
सीता राम चरन रति मोरें। अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें॥
जेहि बिधि प्रभु प्रसन्न मन होई। करुना सागर कीजिअ सोई॥

ऐसा भाव तो किसी साधु का ही हो सकता है

तात भरत तुम्ह सब बिधि साधू। राम चरन अनुराग अगाधू।।

हनुमान जी तो अपना पुरुषार्थ तो मानते ही नहीं। (साखामग=बन्दर) (मनुसाई=पुरुषार्थ)

साखामग कै बड़ि मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई॥
सो सब तव प्रताप रघुराई । नाथ न कछु मोरि प्रभुताई।।
मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ। सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ॥

अपने गुरुदेव के समक्ष यह भाव होना चाहिए कि न मेरे अंदर भक्ति है, न शक्ति है, मेरे में तो तमाम अवगुण भरे पड़े है अर्थात मै सभी साधनो से विहीन हूँ फिर भी आपने (गुरुदेव) मुझे दीन हीन जानकर मुझ पर कृपा की जो मुझे आपकी शरण मिली। अब मुझे विश्वास है कि आप हर तरह से मेरा कल्याण करेंगे।

ता पर मैं रघुबीर दोहाई। जानउँ नहिं कछु भजन उपाई॥
नाथ सकल साधन मैं हीना। कीन्ही कृपा जानि जन दीना॥

तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीति न पद सरोज मन माहीं।।

मोरें तुम्ह प्रभु गुर पितु माता। जाउँ कहाँ तजि पद जलजाता॥

दशरथ विश्वामित्र से कहा- राजा प्रेममग्न हो गए और पुत्रों सहित आगे खड़े हो गए। (बोले-)हे नाथ! यह सारी सम्पदा आपकी है। मैं तो स्त्री-पुत्रों सहित आपका सेवक हूँ।-हे मुनि! लड़कों पर सदा स्नेह करते रहिएगा और मुझे भी दर्शन देते रहिएगा।

नाथ सकल संपदा तुम्हारी। मैं सेवकु समेत सुत नारी।।

निषादराज जी एक बहुत बड़े सत्य का निवेदन श्री भरतजी से करते हैं। वे कहते हैं कि वे कुबुद्धि और कुजाति के हैं पर जब से उन्हें प्रभु श्री रामजी ने अपनाया है उनका सम्मान हर जगह होने लगा है। (सूत्र) यह सिद्धांत है कि प्रभु के अपनाते ही जीव सबके मध्य गौरव पा जाता है और उसकी बढ़ाई सब तरफ होने लगती है।

कपटी कायर कुमति कुजाती। लोक बेद बाहेर सब भाँती॥
राम कीन्ह आपन जबही तें। भयउँ भुवन भूषन तबही तें॥

जामवंत ने कहा- हे रघुनाथजी! प्रभु की कृपा से सब कार्य हुआ। आज हमारा जन्म सफल हो गया। सुग्रीव राम जी से बोले हे प्रभो अब तो इस प्रकार कृपा कीजिए कि सब छोड़कर दिन-रात मैं आपका भजन ही करूँ। (दिन राती=जागते सोते दोनों अवस्था में क्योकि दिन जागने के लिए है और रात्रि विश्राम के लिए है= अर्थात निरंतर)

प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू। जन्म हमार सुफल भा आजू।।
अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँति। सब तजि भजनु करौं दिन राती॥

मनु-शतरूपा- दोनों हाथ जोड़कर और धीरज धरकर राजा ने कोमल वाणी कही- हे नाथ! आपके चरणकमलों को देखकर अब हमारी सारी मनोकामनाएं पूरी हो गई।

सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि धीरजु बोली मृदु बानी॥
नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे॥

केवट ने कहा- आपके दर्शन एवं आपकी कृपा (अनुग्रह) से वासना नहीं रही अतः कुछ नहीं चाहिए।  

अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें। दीन दयाल अनुग्रह तोरें॥
जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा॥

पर इस संसार सागर में श्री रघुनाथजी के समान शील और स्नेह को निबाहने वाला कौन है?

को रघुबीर सरिस संसारा। सीलु सनेहु निबाहनिहारा॥
सेवक हम स्वामी सियनाहू। होउ नात यह ओर निबाहू॥

हम तो सेवक हों और सीतापति श्री रामजी हमारे स्वामी हो और यह नाता अन्त तक निभ जाए॥ तब कही

जो इच्छा करिहहु मन माहीं। हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं।।

———————————————————————————————————–

Mahender Upadhyay

Share
Published by
Mahender Upadhyay

Recent Posts

बंदउँ संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥

संत-असंत वंदना जितनी वन्दना मानस में बाबा तुलसी ने की उतनी वंदना किसी दूसरे ग्रंथ… Read More

7 months ago

जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा। तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा॥

  जिमि जिमि तापसु कथइ अवतार के हेतु, प्रतापभानु  साधारण धर्म में भले ही रत… Read More

1 year ago

बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू॥

बिस्व बिदित एक कैकय अवतार के हेतु, फल की आशा को त्याग कर कर्म करते… Read More

1 year ago

स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥

स्वायंभू मनु अरु अवतार के हेतु,ब्रह्म अवतार की विशेषता यह है कि इसमें रघुवीरजी ने… Read More

1 year ago

सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥

सुमिरत हरिहि श्राप गति अवतार के हेतु, कैलाश पर्वत तो पूरा ही पावन है पर… Read More

1 year ago

नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा।।

  अवतार के हेतु, भगवान को वृन्दा और नारद जी ने करीब करीब एक सा… Read More

1 year ago