शिव जी ने हंस का शरीर धारण कर कुछ समय तक नीलगिरि पर्वत पर निवास किया और रघुनाथ जी के गुणों को आदर सहित सुनकर फिर कैलास को लौट आये। (मराल=हंस)
तुलसी बाबा ने मानस में भगवान के चरित के साथ साथ पांच महा भागवत चरितों का गुणगान भी है उमा चरित, शंकर चरित, हनुमान चरित, भरत चरित, भुसुण्डि चरित।
सतीजी शिव जी की मन, वचन और कर्म से पूर्ण भक्त है। भगवान भी अपने भक्तों के हृदय की बात सुजान होने के कारण जानते है उन पर हमेशा करुणा होती है। अतः भक्त के दुख में दुखी होते है।
सती जी का शिव जी में प्रेम तो देखिये।
इसी कारण शिवजी सती के दुख में दुखी हुए काम से नहीं, क्योंकि शिवजी तो अकाम है।
शिव जी का सती के विरह दुख से दुखी पर फिर भी रामजी जी में प्रेम निरंतर बढ़ता ही जाता है।
शिवजी के नियम, प्रेम और हृदय मैं भक्ति को देखकर रामजी प्रकट हो गए सती के भस्म होने पर पार्वती तन में भी शिव का स्वीकार ना करना ही अविचल रेखा है। नेम
इधर बहुत काल से शिवजी के व्रत चल रहे है उधर 4411 वर्ष से पार्वती का तप जारी है शंकर जी विरह रुपी दुख को दूर करने के लिए नित्य नवीन रामजी के चरणों में प्रेम बढ़ाते गये इस प्रेम को देखकर राम जी प्रकट हो गए।
कृतग्य स्वाभाव के कारण रामजी ने सोचा कि हमारी भक्ति के कारण ही सती जी का त्याग हुआ अन्य भाव शिवजी ने सभी तरफ घूम घूम मेरे यश का बखान किया अतः रामजी कृतज्ञ हुए रामजी विशाल तेज लेकर प्रकट हुए, जिससे शिवजी पर प्रभाव पड़े और तेज के कारण शिव जी प्रणाम करना भी भूल गए (कृतज्ञ=किए हुए उपकार को मानना)
रामजी ने कई तरह से शिवजी की प्रशंसा की केवल और केवल आप ही ऐसे व्रत का निर्वाह कर सकते हो महादेव जी ने घूम घूम कर सत्संग के माध्यम से रामजी के यश को फैलाकर रामजी की प्रशंसा की ठीक वैसे ही रामजी ने शिव जी की प्रशंसा की इसी को कृतज्ञता कहते है। (निरबाहा =निभाना )
हे महादेव तुम्हारी प्रतिज्ञा तो सती को पुनः पाने की नहीं थी पर अब तो सती ने दूसरा तन धारण किया है और आपको प्राप्त करने के लिए कठिन तप किया है मन वचन कर्म से आपकी ही तपस्या कर रही है सती को अपनी करनी का फल भी भोग लिया है विधि ने भी आकाश वाणी द्वारा वरदान भी दिया है तुम्हारे इन्कार करने से ब्रह्म वाणी असत्य हो जायेगी जरा सोचिए यदि कोई अनुष्ठान करे और देवता उस पर प्रसन्न होकर इच्छित मनोरथ को पूर्ण करने का वरदान नहीं दे तो देवताओं के समर्थ को दोष लगता है अतः दुखीया का दुख दूर करो आप शिव है और पार्वती शिवा है अतः संयोग उचित है, स्त्री के लिए पति को छोड़ कर दूसरा कल्याणकर्ता नहीं होता पार्वती के संयोग से आपकी भक्ति द्रण होगी, सत्संग से संसार का कल्याण होगा, इससे जगत में रामचरित प्रकट होगा अतः परोपकार के लिए विवाह करो।
सती का त्याग भी रामजी की प्रेरणा से हुआ था अतः पुनः संयोग की प्रार्थना भी रामजी ही करते है। (निज=आपका ,सच्चा, यथार्थ)
शिव जी ने कहा आप स्वामी है और में आपका दास हूँ अतः स्वामी सेवक से विनय करें यह तो उचित नहीं है स्वामी की आज्ञा का पालन करना ही सेवक का परम धरम है। यहाँ शिव जी सभी भक्तों सहित अपना धर्म कह रहे है।
शिव जी ने कहा आपने सहमति के साथ साथ आज्ञा भी दी है अतः आज्ञा को ना मानने का मेरे में सामर्थ नहीं है धर्म के लिए परम धर्म नहीं मिटाया जा सकता इस लिये आपकी आज्ञा शिरोधार्य करता हूँ। क्योंकि
बचपन में माता की आज्ञा कुछ बड़े होने पर घर से बाहर निकलने पर पिता की आज्ञा शिक्षा में गुरु की आज्ञा और पड़ लिख कर लोक परलोक दोनों में सुख के लिए पूरे जीवन प्रभु की आज्ञा मानने से प्राणी का भला होता है।
शिवजी की भक्ति, विवेक और धर्मयुक्त वाणी सुनकर प्रभु प्रसन्न हुए रामजी ने कहा कि हे शिवजी तुम्हारा प्रण पूरा हुआ रहा पर मैंने जो आपसे कहा उसे सिर पर मत रखना क्योकि सिर पर तो गंगा है उसको हृदय में रखना, पर शिवजी ने आज्ञा के साथ साथ प्रभु की छवि को ही हृदय में रख लिया।
इस प्रकार कहकर श्री रामजी अन्तर्धान हो गए। रामजी शिव के सामने ही प्रकट हुए थे और फिर वही अंतरध्यान हो गये। ना तो कहीं से आये और ना ही कही गए क्योंकि शिवजी का ऐसा विश्वास, भक्ति एवं प्रीति है।
शिव जी ने रामजी की वह छवि अपने हृदय में रख ली। उसी समय सप्तर्षि शिवजी के पास आए। प्रभु महादेवजी ने सप्तर्षि से कहा कि पार्वती के पास जाकर उनकी परीक्षा पर्वतराज और पार्वती का संदेह दूर करो।
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जब तें सती जाइ तनु त्यागा। तब सें सिव मन भयउ बिरागा।।
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