गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर। चरन कमल रज चाहति

गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर। चरन कमल रज चाहति

गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।

राम शब्द का अर्थ परम् ब्रह्म है। कालिदास ने भी कहा हरि का कोई अगर नाम है वो राम ही है। वेद ने और कवियों ने भी इस बात को माना। जब राम जी के लक्षण की बात आई तो वाल्मीकि ने नारद जी से पूछा कि कैसे जाने की यही रामजी है। तब नारद जी ने कहा कि जिनके नेत्र लाल कमल के समान, राजीव लोचन हो वही राम है। भगवत गुण दर्पण में कहा गया कि जिसमें पांच वीरता त्याग वीर, दया वीर, विद्या वीर, पराक्रम वीर, धर्म वीर हो वही उस कुल का वीर होता है। तुलसी बाबा ने प्रभु राम में पांच प्रकार की वीरता का सुन्दर दर्शन कराया।

1 त्यागवीर 2 दयावीर 3 विद्या वीर 4 धर्मवीर 5 पराक्रम वीर
1 त्यागवीर- राम ने पिता की आज्ञा से  भूषण-वस्त्र त्याग दिए और वल्कल वस्त्र पहन लिए। उनके हृदय में न कुछ विषाद था, न हर्ष हुआ। (आयस=आज्ञा से)

पितु आयस भूषन बसन तात तजे रघुबीर।
बिसमउ हरषु न हृदयँ कछु पहिरे बलकल चीर।।

कमल जैसे नेत्रवाले रामचन्द्रजी पिता के राज्य को पथिक की तरह छोड़कर चल दिये। (राजीव= कमल) (बटाऊ=राही, पथिक)

राजिवलोचन राम चले तजि बाप को राज बटाऊ की नाईं।

2 दयावीर– जो विश्व का मित्र हो वही विश्वामित्र है। गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या के दुख को विश्वामित्र नहीं  सह पाए और प्रभु से विनय करते हुए कहा कि यदि कोई भिक्षा मांगता है उसे भिक्षा मिलती है, प्रभु यह आपके चरण रज की भीख मांग रही है इन्हें चरण रज प्रदान करें। राम नाम तो वसिष्ठ जी ने रखा पर आज रघुवीर नाम से नामकरण दूसरे गुरु विश्वामित्र जी ने दिया। रघुवीर का भाव- आप कृपा करने में भी वीर है।  (उपल=ओला,पत्थर)

गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।
चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर॥

रावण ने विभीषण पर (शक्ति=अस्त्र) को छोड़ा, पर रामजी ने उस शक्ति को अपने ऊपर ले लिया, (सूत्र) संकट के समय तो परिवार वाले मित्र सखा भी साथ छोड़ देते है। पर प्रभु राम ने विभीषण की रक्षा की।

तुरत बिभीषन पाछें मेला। सन्मुख राम सहेउ सोइ सेला॥

3 विद्या वीर– जल में पत्थरों का तैरना भी एक विद्या है। (पाषाण=पत्थर, शिला)

श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान।
ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन॥

केवल एक ही बाण से तड़का का वध किया विद्या वीर कहलाये। और तड़का को अपने धाम में स्थान देने से दयावीर कहलाये।

एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा॥
नीति प्रीति परमारथ स्वारथु। कोउ न राम सम जान जथारथु॥

धर्मनीति,राजनीति, प्रीति, परमार्थ और स्वार्थ सभी में रामजी परिपूर्ण है पूरे ब्रह्मांड में कोई भी वैसा समझने वाला नहीं हैं जैसा कि रामजी समझते है नीति रावण और बाली को सिखाई और बाली को तो ऐसी सिखाई कि बाली के पास उत्तर ही नहीं था। रामजी लोक व्यवहार में निपुण, इसी से राम सबको प्राणो से अधिक प्रिय लगते है! प्रीति के उदाहरण, गुह जी, सबरी, सुग्रीव, जटायु जी, है।  परमार्थ में अयोध्या की प्रजा को सुन्दर उपदेश दिया और स्वार्थ तो रामजी में है ही नहीं।

रामु प्रानप्रिय जीवन जी के। स्वारथ रहित सखा सबही के॥
हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी।।

वसिष्ठ जी जैसे ज्ञानी बोल रहे है कि नीति, प्रेम, परमार्थ और स्वार्थ इन चारों में सामंजस्य बैठना बड़ी ही पडिताई का काम है मैं भी थोड़ा बहुत जनता हूँ पर इन सभी का यथार्थ ज्ञान तो रामजी को ही है।  (यथार्थ=वास्तविक, उचित, सत्य) (जथारथु=यथार्थ एवं न्याययुक्त बात, विश्वसनीय व्यक्ति)
4 -धर्मवीर–विभीषण कह रहे  है कि मैंने तो  हनुमान जी से आपका सुयश सुना  कि आप  भव के भय का नाश करने वाले हैं। तब  आया हूँ, हे दुखियों के दुख दूर करने वाले और शरणागत को सुख देने वाले श्री रघुवीर! मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए। (भव=जन्म-मरण) (त्राहि=रक्षा करो, बचाओ) (आरति=पीड़ा)

श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर॥

राम जी सुमंत्र जी से बोले-

मैं सोइ धरमु सुलभ करि पावा। तजें तिहूँ पुर अपजसु छावा॥

5 पराक्रम वीर –परशुरामजी के आगमन पर राम सब लोगों को भयभीत देखकर और सीता को डरी हुई जानकर बोले-उनके हृदय में न कुछ हर्ष था न विषाद था।

सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु।
हृदयँ न हरषु बिषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु।।

गुप्तचरों ने रावण से बोल- रामजी एक ही बाण से सैकड़ों समुद्रों को सोख सकते है,परंतु नीति निपुण रामजी ने (नीति की रक्षा के लिए) आपके भाई विभीषण से समुद्र पार करने का  उपाय पूछा। (नागर=सभ्य, चतुर,स्वामी, ईश्वर)

सक सर एक सोषि सत सागर। तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर॥

यहाँ रामजी ने स्वयं कहा- (बलवंत=शक्तिशाली, ताकतवर)

रिपु बलवंत देखि नहिं डरहीं। एक बार कालहु सन लरहीं॥

रामजी का पराक्रम यज्ञ की रक्षा के लिए मारीच को  बिना फल का बाण से क्षणभर में सौ योजन दूर फेंक दिया ,सुबाहु को जला कर भस्म कर दिया।
ये पांचों की पांचों वीरता राम जी में ही है।

————————————————————-

Mahender Upadhyay

Share
Published by
Mahender Upadhyay

Recent Posts

बंदउँ संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥

संत-असंत वंदना जितनी वन्दना मानस में बाबा तुलसी ने की उतनी वंदना किसी दूसरे ग्रंथ… Read More

7 months ago

जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा। तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा॥

  जिमि जिमि तापसु कथइ अवतार के हेतु, प्रतापभानु  साधारण धर्म में भले ही रत… Read More

1 year ago

बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू॥

बिस्व बिदित एक कैकय अवतार के हेतु, फल की आशा को त्याग कर कर्म करते… Read More

1 year ago

स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥

स्वायंभू मनु अरु अवतार के हेतु,ब्रह्म अवतार की विशेषता यह है कि इसमें रघुवीरजी ने… Read More

1 year ago

सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥

सुमिरत हरिहि श्राप गति अवतार के हेतु, कैलाश पर्वत तो पूरा ही पावन है पर… Read More

1 year ago

नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा।।

  अवतार के हेतु, भगवान को वृन्दा और नारद जी ने करीब करीब एक सा… Read More

1 year ago