तेहिं तपु कीन्ह संभु पति लागी। सिव समाधि बैठे सबु त्यागी॥

तेहिं तपु कीन्ह संभु पति लागी। सिव समाधि बैठे सबु त्यागी॥

तेहिं तपु कीन्ह संभु

पार्वती विवाह-देवताओं ने ब्रह्मा जी से कहा की आपने ऐसा वरदान क्यों दिया ? ब्रह्मा जी ने  कहा तरका सुर के तप से सारी सृष्टि जल रही थी उसको बचने के  लिये मैंने ऐसा वर दिया था। तरका सुर ने  सात दिनों  के शिशु द्वारा अपनी मत्यु माँगी है, जो तेजस्वी के वीर्य से उत्पन्न हो। शिवजी के वीर्य में ऐसा तेज है, शिव जी के पुत्र द्वारा तारका  का वध   होगा,और वही तुम्हारा सेनापति भी होगा।अतः हम सभी  प्रयास करें कि शिवजी जी समाधी से बाहर आये और पार्वती से विवाह करें।


सतीं जो तजी दच्छ मख देहा। जनमी जाइ हिमाचल गेहा॥

तेहिं तपु कीन्ह संभु पति लागी। सिव समाधि बैठे सबु त्यागी॥

श्री ब्रह्मा जी ने सभी देवताओं से कहा सतीजी ने जो दक्ष के यज्ञ में देह का त्याग किया था, उन्होंने अब हिमाचल के घर पार्वती रूप में जन्म लिया है पार्वती जी ने  शिवजी को पति बनाने के लिए कठोर तप किया है, पर महराज  शिवजी तो सब कुछ छोड़-कर समाधि लगा ली। इस कार्य में एक बहुत बड़ी समस्या है पहली शिव जी का समाधि से बाहर आना बहुत ही मुश्किल है दूसरी अगर समाधि से बहार आ भी गए तो कामदेव का बचना असंभव है यही असमंजस है। 

जदपि अहइ असमंजस भारी। तदपि बात एक सुनहु हमारी।।

फिर भी तुम सभी मिलकर कामदेव को भेजो। (क्षोभ=बेचनी,खलबली) 

पठवहु कामु जाइ सिव पाहीं। करै छोभु संकर मन माहीं॥

(सूत्र) तप, आराधना,भजन  या  समाधि में अकारण ही अड़चन करना तो काम देव का काम है परन्तु फिर भी काम शिव जी के पास नहीं जाता। अतः काम को शिव जी के पास तो भेजना ही पड़ेगा। क्योंकि तारकासुर बुढ़ापा रहित अजेय तेजस्वी है तुम सभी देवता मिलकर भी उसका सामना नहीं कर सकते उसकी मृत्यु शिव जी के वीर्य से पैदा पुत्र से ही होगी अर्थात वीर भद्र से भी नहीं होगी क्योंकी वीर भद्र का जन्म तो शिव जी की देह से हुआ।

मोर कहा सुनि करहु उपाई। होइहि ईस्वर करिहि सहाई॥
एहि बिधि भलेहिं देवहित होई। मत अति नीक कहइ सबु कोई॥

लोकपालों के देवता ब्रह्मदेव ने कहा इस प्रकार ही देवताओं का हित हो सकता है अन्य कोई उपाय नहीं है (सूत्र) प्रयास करने से ही कार्य सिद्ध होता है ओर ईश्वर भी सहायता करते है क्योकि मनुष्य कर्म करने के लिए स्वतंत्र है कर्म फल में तो केवल और केवल भगवान के हाथ में है। 

सुभ अरु असुभ करम अनुहारी। ईसु देइ फलु हृदयँ बिचारी॥
करइ जो करम पाव फल सोई। निगम नीति असि कह सबु कोई॥

अस्तुति सुरन्ह कीन्हि अति हेतू। प्रगटेउ बिषमबान झषकेतू॥

सभी  ने कहा- यह सम्मति बहुत अच्छी है। फिर देवताओं ने बड़े प्रेम कामदेव से स्तुति की। तब विषम (पाँच) बाण धारण करने वाले और मछली के चिह्नयुक्त ध्वजा वाला कामदेव प्रकट हुए। (झष=मछली) (केतू=ध्वजा) 
कामदेव देव ने मन में विचार सभी देवता बड़े ही स्वार्थी है अपनी रक्षा के लिए मेरा मरण चाहते है। 

सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति॥
तदपि करब मैं काजु तुम्हारा। श्रुति कह परम धरम उपकारा॥

पर हित लागि तजइ जो देही। संतत संत प्रसंसहिं तेही॥

कामदेव ने कहा मेरी मृत्यु तो निश्चित होगी फिर भी मैं तुम्हारा काम तो करूँगा, क्योंकि वेद दूसरे का भला करने को परम धर्म कहता  हैं। जो दूसरे के हित के लिए अपना शरीर त्याग देता है, संत समाज में सदा उसकी बड़ाई होती है। (संतत=हमेशा,निरंतर) (तदपि=फिर भी) (तजइ=तजना= छोड़ना, त्यागना)

अस कहि चलेउ सबहि सिरु नाई। सुमन धनुष कर सहित सहाई॥
चलत मार अस हृदयँ बिचारा। सिव बिरोध ध्रुब मरनु हमारा॥

सबको सिर नवाकर कामदेव अपने पुष्प के धनुष को हाथ में लेकर (वसन्तादि) सहायकों के साथ चला। चलते समय कामदेव ने हृदय में ऐसा विचार किया कि शिवजी के साथ विरोध करने से मेरा मरण तो निश्चित है। (ध्रुव=अटल )

तब आपन प्रभाउ बिस्तारा। निज बस कीन्ह सकल संसारा॥

काम देव को तो  शिवजी से प्रयोजन था, सारे संसार  को क्‍यों सताया? काम देव ने सोचा मेरी मृत्यु तो होगी पर एक वार संसार को अपना प्रभाव दिखाना भी जरूरी है नहीं तो लोग यही कहेंगे  कि काम देव तो सामान्य था, इससे भस्म हो गया। और भोले बाबा  का भी मान होगा की शिव जी ने ऐसे प्रभावशाली को जीता। काम की प्रबलता तो देखिये कि कामदेव को देवलोक से शिवजी  के पास आने मे कामदेव को दो दंड अर्थात 48  मिनट लगे। मात्र इतनी देर में सारा संसार काम मय हो गया। 

देव दनुज नर किंनर ब्याला। प्रेत पिसाच भूत बेताला॥
इन्ह कै दसा न कहेउँ बखानी। सदा काम के चेरे जानी॥

सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी। तेपि कामबस भए बियोगी॥

काम ऐसा प्रबल हो गया है कि सारे संबंध मर्यादा तार तार हो गई, काम से सभी (लोक=संसार) अंधे हो गए देवता राक्षस किन्नर(देवजाति) सर्प प्रेत पिचास भूत वेताल को काम देव ने अपने वश में कर लिया।क्योंकि ये सभी तो सदा ही काम के शिष्य है पर महराज कामदेव ने तो सिद्ध पुरुष वैराग्यवान योगी और तपस्वी मुनियों तक को नहीं छोड़ा। किसी ने भी हृदय में धैर्य नहीं धारण किया, कामदेव ने सबके मन को हर लिए।

धरी न काहूँ धीर सब के मन मनसिज हरे।
जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ॥

पर श्री रघुनाथजी ने जिनकी रक्षा की, केवल वे ही उस समय बचे रहे।जिनके ऊपर भगवान की कृपा है उनका कोई क्या बिगाड़ सकता है? क्योकि-

सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासू। बड़ रखवार रमापति जासू॥
जनहि मोर बल निज बल ताही। दुहु कहँ काम क्रोध रिपु आही॥

उसकी मर्यादा को कोई भंग नहीं कर सकता काम मन से उत्पन्न होता है, अतः, मनसिज कहलाता  है। मन, काम और (मीन=मछली)  तीनों चंचल स्वाभाव के होते है (मनसिज= कामदेव) (बिसिख=बाण) 

छाड़े बिषम बिसिख उर लागे। छूटि समाधि संभु तब जागे॥
भयउ ईस मन छोभु बिसेषी। नयन उघारि सकल दिसि देखी॥

कामदेव ने तीक्ष्ण पाँच बाण छोड़े, जो शिवजी के हृदय में लगे।
तब उनकी समाधि टूट गई और वे जाग गए। (शिवजी) के मन में बहुत क्षोभ हुआ। उन्होंने आँखें खोलकर सब ओर देखा।

सौरभ पल्लव मदनु बिलोका। भयउ कोपु कंपेउ त्रैलोका।।
तब सिवँ तीसर नयन उघारा। चितवन कामु भयउ जरि छारा॥

शिव जी ने  काम को शिकारियों की तरह पेड़ पर चढ़ा हुआआम के पत्तों में छिपा देख लिया (सूत्र)  काम घर्माचरण करने  में बाधक होता है। शिव जी जान गए कि समाधि इसी ने भंग की है। अतः काम  पर क्रोध हुआ,रूद्र के क्रोध से प्रलय होता है  पर  क्रोध होने के कारण शिव जी का तीसरा नेत्र खुल गया। और  काम जल  कर भस्म हो गया। शिव विरोध से काम की मृत्यु हुई। तीसरा नेत्र शिव जी कृपा के कारण बन्द रखते है। (पल्लव=नया एवं कोमल पत्ता)(सौरभ=आम, अमृतफल) 

हाहाकार भयउ जग भारी। डरपे सुर भए असुर सुखारी।।

ब्रह्मदेव ने काम देव को आज्ञा दी थी  कि तुम इस सुन्दर पांच फूलों  के  वाणो से, पुरुष ओर स्त्रियों को मोहित करते हुए सनातनी सृष्टि करो पर काम तो  मारा गया अब सृष्टि कैसे चलेगी? काम के मारे जाने से देवों का उदेश्य भी समाप्त हो गया। अब शिव जी का पुत्र नहीं होगा अब तारकासुर से कैसे रक्षा होगी? अतः देवता डरे इसी कारण से असुर समाज खुशी हो रहा है, कि अब तारकासुर का राज्य अचल हो गया।

कामदेव कि पत्नी रति पहिले तो मूच्छित हो गई फिर रोती हुई शिवजी के पास गई, रति शिवजी के समर्थ को जानती है। कि वे मार भी सकते है और बचा  भी सकते है। रति को असहाय देखकर शिवजी बोले।

जब जदुबंस कृष्न अवतारा। होइहि हरन महा महिभारा॥
कृष्न तनय होइहि पति तोरा। बचनु अन्यथा होइ न मोरा॥

हे रति! अब से तेरे स्वामी का नाम अनंग होगा। वह बिना ही शरीर के सबको व्यापेगा। स्थूल शरीर का अभाव होगा। (अनंग) उसका नाम होगा और हे रति तुमको दो युगो के बाद पति की प्राप्ति अवश्य होगी। जब पृथ्वी के बड़े भारी भार को उतारने के लिए यदुवंश में श्री कृष्ण का अवतार होगा, तब तेरा पति उनके पुत्र (प्रद्युम्न) के रूप में उत्पन्न होगा। 

सब सुर बिष्नु बिरंचि समेता। गए जहाँ सिव कृपानिकेता॥
पृथक-पृथक तिन्ह कीन्हि प्रसंसा। भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा॥

फिर वहाँ से विष्णु और ब्रह्मा सहित सब देवता वहाँ गए, जहाँ कृपा के धाम शिवजी थे। उन सबने शिवजी की अलग-अलग स्तुति की, तब शशिभूषण शिवजी प्रसन्न हो गए। (अवतंस=वलयाकार आभूषण) 

बोले कृपासिंधु बृषकेतू। कहहु अमर आए केहि हेतू॥
कह बिधि तुम्ह प्रभु अंतरजामी। तदपि भगति बस बिनवउँ स्वामी॥

कृपा के समुद्र शिवजी बोले- हे देवताओं! कहिए, आप किसलिए आए हैं? ब्रह्माजी ने कहा- हे प्रभो! आप अन्तर्यामी हैं, तथापि हे स्वामी! भक्तिवश मैं आपसे विनती करता हूँ।

सकल सुरन्ह के हृदयँ अस संकर परम उछाहु।
निज नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु॥

हे शंकर! सब देवताओं के मन में ऐसा परम उत्साह है कि हे नाथ! वे अपनी आँखों से आपका विवाह देखना चाहते हैं।

पारबतीं तपु कीन्ह अपारा। करहु तासु अब अंगीकारा॥
सुनि बिधि बिनय समुझि प्रभु बानी। ऐसेइ होउ कहा सुखु मानी॥
तब देवन्ह दुंदुभीं बजाईं। बरषि सुमन जय जय सुर साईं॥

पार्वती विवाह NEXT
————————————————————————

तेहिं तपु कीन्ह संभु पति लागी। सिव समाधि बैठे सबु त्यागी॥

Mahender Upadhyay

Share
Published by
Mahender Upadhyay

Recent Posts

बंदउँ संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥

संत-असंत वंदना जितनी वन्दना मानस में बाबा तुलसी ने की उतनी वंदना किसी दूसरे ग्रंथ… Read More

5 months ago

जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा। तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा॥

  जिमि जिमि तापसु कथइ अवतार के हेतु, प्रतापभानु  साधारण धर्म में भले ही रत… Read More

11 months ago

बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू॥

बिस्व बिदित एक कैकय अवतार के हेतु, फल की आशा को त्याग कर कर्म करते… Read More

11 months ago

स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥

स्वायंभू मनु अरु अवतार के हेतु,ब्रह्म अवतार की विशेषता यह है कि इसमें रघुवीरजी ने… Read More

12 months ago

सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥

सुमिरत हरिहि श्राप गति अवतार के हेतु, कैलाश पर्वत तो पूरा ही पावन है पर… Read More

12 months ago

नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा।।

  अवतार के हेतु, भगवान को वृन्दा और नारद जी ने करीब करीब एक सा… Read More

12 months ago