सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥

सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥

सिवहि संभु गन करहिं

विवाह शिव जी का हो रहा है कैलाश पर कोई हलचल नहीं हो रही सभी उत्सव देव लोक में हो रहे है अतःसभी देवता विवाह की तैयारी व्यवस्था को भूलकर  अपनी अपनी बरात की तैयारी में लग गए  देवताओं के विमान दिव्य होते है। विमान जरूरत के अनुसार  घट बड़ जाते है देवताओं के  वाहन भिन्न भिन्न प्रकार के है विष्णु जी का गरुण, इंद्र का ऐरावत, यमराज का भैंसा, कुबेर का पुष्पक, वरुण का मगर, ब्रह्मा जी का हंस, अग्नि देव का बकरा, पवन देव का मृग, सभी देवता अपने अपने वाहन को सजवा रहे है। (सुभद=शुभदायक) सब देवता अपने भाँति-भाँति के वाहन और विमान सजाने लगे, कल्याणप्रद मंगल शकुन हो रहे और अप्सराएँ नृत्य गान कर  रही है।


लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान।
होहिं सगुन मंगल सुभद करहिं अपछरा गान॥

सभी देवता को शिव जी का विवाह की चिंता नहीं है उनका तो इतना हेतु है कि जितने जल्दी शिव जी का विवाह होगा उतने जल्दी तारकासुर से मुक्ति मिलेगी। (सूत्र) संसार का  ही नहीं देवताओं का भी यही हाल है तुलसी बाबा ने बड़ा ही सुन्दर लिखा है जिससे अपना काम निकलना होता है। उसकी जय जय कार करना ही पड़ती है।

दुखों से अगर चोट खाई ना होती।
तुम्हारी प्रभु याद आई ना होती॥

सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती।।

उधर देवता बारात की तैयारी करते है इधर शिव गण वर को तैयार करते है शिव जी का श्रृंगार शिव जी केअनुकूल कोई देवता कर भी नहीं सकता शिव जी के नित्य के परिकर ही जान सकते है कि उनके स्वरुप के योग्य कैसा श्रृंगार करना चाहिए, अतः शिवजी के गणो ने  शिवजी का श्रंगार किया।

सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥

कुंडल कंकन पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला॥

ससि ललाट सुंदर सिर गंगा। नयन तीनि उपबीत भुजंगा॥
गरल कंठ उर नर सिर माला। असिव बेष सिवधाम कृपाला॥

कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा। चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा॥

रंग बिरंगे सर्पो का मौर बनाया जिनमें विविध रंगों की मणियों जैसी चमक है सर्प की पूंछ और  सिर  मिला कर दोनों कानों के कुंडल बनाये और सर्प का ही कंकन बनाया। उबटन के लिए मुर्दे की भस्म लगाई गई है डिठौने को जगह तीसरा नेत्र ललाट पर है, तिलक की जगह चंद्रमा है। तीन  सूत्रों की तरह तीन सर्पों से जनेउ  बनाया दूल्हे के पास रक्षा के लिए  तलवार या लोहे को कोई चीज़ रहती  है, वैसे ही शिव जी के पास  त्रिशुल और डमरू है। वर के गले में मणियों  का हार रहता  है, वैसे यहाँ खोपड़ियों की  माला है व्याह करने जा रहे हैँ अतः नग्न रहना ठीक नहीं अतः जामा जोड़ा की जगह बाघम्बर से काम लिया गया।  

शिवजी बैल पर चढ़कर चले। बाजे बज रहे हैं।वेद, देवता, महर्षि गण, जिसे धर्म कहते हैअर्थात बैल पर महादेव जी अरूण हो गये  इस प्रकार शिवजी का वेष अशुभ होने पर भी वे कल्याण के धाम और कृपालु है। (अहि=ब्याल=सर्प) (विभूति=भस्म=राख) (केहरी=सिंह, शेर) (उपवीत=जनेऊ) (गरल=विष) (अशिव=अकल्याणकर=अमंगलसूचक) (बसह= बैल)

विवाह करना अपराध नहीं है हमारे वेदों ने विवाह को भी एक संस्कार कहा है गीता में भगवान ने कहा धर्म सम्मत काम मैं  हूँ। सामान्य तोर पर तो बाबा की जटाये बिखरी हुई है जिनको गणो ने व्यवस्थित कर मुकुट का रूप दिया जटा का अर्थ जंजाल मुकुट का अर्थ गहना अर्थात विवाह के बाद  इन जंजालों को ही गहना बना लो गृहस्थ आश्रम कोई सामान्य नहीं होता। 

गृह कारज नाना जंजाला। ते अति दुर्गम सैल बिसाला॥

अहि मौर, सिर पर सर्प का मौर मनस में साप का अर्थ 

काम भुजंग डसत जब जाही। बिषय नींब कटु लगत न ताही॥

जब विवाह होता है तब काम विषय का भोग में आसक्ति बड़ जाती है विषय का भोग बुरा नहीं है पर उसमें आसक्ति बुरी है। जिसको सर्प काटता है उसको नीम की पत्ती मीठी लगती है, संसार के विषय भोग ही नीम है। इसकी दवा ही गंगा जी की धार है।  

अर्थात भजन को बढ़ाओ। (सूत्र) अत्यंत भोग का परिणाम ही रोग होता है। 

राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म विचार प्रचारा।।

इस सच्चाई को खूब अच्छी तरह से स्वीकार करें कि हमारा शरीर आज नहीं तो कल चिता की राख बनेगा। 

तीसरी आँख का अर्थ समझदारी के साथ परिवार के बीच समंजस बैठना। 

त्रिशूल को हाथ में लेकर शिव जी विवाह करने जाते है हमारे  जीवन में भी तीन शूल काम, क्रोध, लोभ, है ये बुरे नहीं है पर अत्यधिक काम अत्यधिक क्रोध अत्यधिक लोभ ही हमारे जीवन को समाप्त करते है इनको मुट्ठी में करना पड़ता है। जीवन हमारा नर्क तब होता है जब हम त्रिशूल अर्थात काम क्रोध लोभ  के वश में हो जाते है काम बुरा नहीं होता कामुकता बुरी होती है ऐसे ही क्रोधीपना लोभीपना बुरे होते है। (शूल=काटे)

शिव जी का वाहन बैल है शिव पुराण के अनुसार बैल धर्म का प्रतीक है अतःगृहस्थ आश्रम धर्म मय होना चाहिए धर्म प्रधान गृहस्थ सन्यासी से ऊपर होता है और संग्रह प्रधान सन्यासी के लिए सन्यास का कोई औचित्य नहीं रहता।   

देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं। बर लायक दुलहिनि जग नाहीं॥

शिवजी को देखकर देवांगनाएँ मुस्कुरा रही हैं और कहती हैं कि इस वर के योग्य दुलहिन संसार में नहीं मिलेगी।

बिष्नु बिरंचि आदि सुरब्राता। चढ़ि चढ़ि बाहन चले बराता॥
सुर समाज सब भाँति अनूपा। नहिं बरात दूलह अनुरूपा॥

विष्णु और ब्रह्मा आदि देवताओं के समूह अपने-अपने वाहनों (सवारियों) पर चढ़कर बारात में चले। देवताओं का समाज सब प्रकार से अनुपम (परम सुंदर) था, पर दूल्हे के योग्य बारात न थी।

बिष्नु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज।
बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज॥

तब विष्णु भगवान ने सब दिक्पालों को बुलाकर हँसकर ऐसा कहा- सब लोग अपने-अपने दल समेत अलग-अलग होकर चलो।

बर अनुहारि बरात न भाई। हँसी करैहहु पर पुर जाई॥
बिष्नु बचन सुनि सुर मुसुकाने। निज निज सेन सहित बिलगाने॥

हे भाई! हम लोगों की यह बारात वर के योग्य नहीं है। क्या पराए नगर में जाकर हँसी कराओगे?
विष्णु भगवान की बात सुनकर देवता मुस्कुराए और वे अपनी-अपनी सेना सहित अलग हो गए।
विष्णु भगवान की इच्छा है कि हँसी में कोई कमी ना रहे अतः सभी देवताओं को अलग अलग हो कर चलने की सलाह दी अतः शिवजी को अपना समाज बुलाना पड़ा। तब हंसी में जो कुछ कसर बाकि है वह भी पूरी हो जाएगी।  

मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं। हरि के बिंग्य बचन नहिं जाहीं॥
अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे। भृंगिहि प्रेरि सकल गन टेरे॥

पहले देवियाँ मुस्कुराई फिर भगवान विष्णु जी मुस्कुराये फिर सव देवता मुस्कराये और मन ही मन  शिवजी भी मुस्करा रहे है हरि के वचन में व्यंग  रहता है। शिव जी ने विचार किया कि विष्णु जी की  इच्छा है कि हमारे गण भी भी बारात में सम्मिलित हों। वे वेचारे  इस उत्साह से क्यों वंचित रहे और फिर बारात भी मेरे जेसी विचित्र दिखाई दे। सभी समाज जब साथ थे तब शिव जी के मुख्य गण ही साथ थे अतः भृंगी सब गणों को बुलाया, शिव जी के गण किसी दूसरे काअनुशासन सुनने वाले नहीं। पर शिवजी का अनुशासन टाल भी नहीं सकते। गणो ने  शिव जी छोड़ कर किसी को प्रणाम नहीं  किया।

सिव अनुसासन सुनि सब आए। प्रभु पद जलज सीस तिन्ह नाए॥
नाना बाहन नाना बेषा। बिहसे सिव समाज निज देखा॥

शिवजी की आज्ञा सुनते ही सब चले आए और उन्होंने स्वामी के चरण कमलों में सिर नवाया। तरह-तरह की सवारियों और तरह-तरह के वेष वाले अपने समाज को देखकर शिवजी हँसे।

कोउ मुख हीन बिपुल मुख काहू। बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू॥
बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना। रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना॥

कोई बिना मुख का है, किसी के बहुत से मुख हैं, कोई बिना हाथ-पैर का है तो किसी के कई हाथ-पैर हैं।किसी के बहुत आँखें हैं तो किसी के एक भी आँख नहीं है। कोई बहुत मोटा-ताजा है, तो कोई बहुत ही दुबला-पतला है। गणो के मुख और बोली गधे सियार सूकर कुत्ते उल्लू बकरे विचित्र तरह से है

जस दूलहु तसि बनी बराता। कौतुक बिबिध होहिं मग जाता।।

जैसा दूल्हा है, अब वैसी ही बारात बन गई है। मार्ग में चलते हुए भाँति-भाँति के कौतुक (तमाशे) होते जाते हैं।
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सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥
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