जामवंत
पर रामजी सर्वज्ञ,सर्वसमर्थ होकर भी जामवंत से सलाह लेते है और राम जी के सेवक हनुमान जी भी यही करते है।
मालयवंत ने तीन तरह से समझाया | प्रथम तो अपशकुन सुनाकर, फिर श्री राम जी की ईश्वरता प्रतिपादन करके और तीसरे, राम विमुखता का फल कहकर ।प्रथम उपदेश ( विभीषणके समर्थन ) में अपशकुन न कहे गये थे, अब की यह विशेषता है।असगुन उसी समय प्रारम्भ हुए जिस समय यहाँ सीता आयी। इसका आशय आशय यहीं कि सीता के साथ अपशकुन आये, अतः सीता को लौटा देने पर असगुन भी स्वतः चले जायेगे । मलयवंत कहते हैं कि तुम लोगो को कुछ होश नहीं है। में बेठे बेठे देखा करता हूँ । कि लंका सदा (निरापद= बिना संकट के) रहा है। परन्तु जब से तुम सीता का हरण करके ले जाये हो तब से ऐसे असगुन लंका मे हो रहे हैं कि में उनका वर्णन नहीं कर सकता । पहिले अधर्म से प्रकृति में विकार आता है। पीछे अनिष्ट होता है। वही प्रकृति का विकार ही असगुन है। अतःअसगुन से अशुभ फल होना निश्चय है । असगुन भविष्य घटना का द्योतक है। अतः असगुन कभी खाली नहीं जाता!
राम जगत भर के आत्मा और प्राणों के स्वामी हैं। उनसे विमुख रहने वाला शांति कैसे पा सकता है? पहिले भी जो उनसे बिमुख हुए उनको भी सुख नही मिला है।
आगे मंदोदरी ने भी रावण के मरने पर कहा–
हे नाथ कृपानिधि ,कृपासिंधु ,दयानिधि ,दयानिधान ,दयासागर ये सब रामजी के ही नाम है राम कोई विशेष समूह या कोई विशेष जाति ,या वर्ग के नहीं है ओर तुम्हारे तो गुरु जी शंकर जी ने भी हम सभी को सुन्दर (सूत्र ) दिया है।
अतः
अतः वैर छोड़कर बेदेही को रामजी को दे दो और दयासागर परमसनेही रामजी
का भजन करो। देहीः का भाव कि सीता तुम्हारे हाथ न लगेगी तुम चाहे जितना उपाय करो सीताजी प्राण ही छोड़ देंगी। क्योकि सीता जी देह सम्बन्धी विषय भोग विलास से पूर्ण उदासीन हैं। अतः तेरे वश में नहीं होंगी।भजहु कृपानिधि परम सनेही॥ कृपानिधि का भाव कि
तुमने तो एक ही जन्म पाप किया है और उनकी प्रतिज्ञा तो जन्म कोटि कि है!
“परम सनेही “है तुम्हारा हित ही करेंगे।
हे रावण यही तो विभीषण ने तुमसे कहा है।
हे रावण यदि तुम ये कहो की राम जी के भजने का परिणाम क्या होगा ? तो
बोला बचन नीति अति पावन। सुनहु तात कछु मोर सिखावन॥
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