सलाह,दसमुख कहा मरमु तेहिं सुना। पुनि पुनि कालनेमि सिरु धुना।।

सलाह,दसमुख कहा मरमु तेहिं सुना। पुनि पुनि कालनेमि सिरु धुना।।

दसमुख कहा मरमु तेहिं सुना।

कालनेमि की रावण को सलाह- रावण का एक भेदिया दूत वानरी सेना मे प्रविष्ट हो गया। उसने यह सब बाते देखी सुनी,  उसने रावण को जाकर सब भेद बता दिया कि सूर्योदय के पहिले यदि संजीवनी बूटी  मिल जाय तो लक्ष्मण जी सकते है। अतः हनुमान  जी बूटी को  लेने चल पडे, रावण ने देखा कि इस समय कालनेमि (नेमि =चक्र,घेरा) का काम है। इसके जैसा ऐसा मायावी लंका मे कोई नहीं है। पर इस समय उसका झुकाव निवृत्ति की ओर है। वह इच्छापूर्वक (प्रवंचन=धोखेवाजी ,ठगी)इस कर्म में प्रवृत्त नहीं होगा। यदि मे स्वयं उसके पास जाऊँ तभी कालनेमि इस काम को कर सकता है। अतः रावण स्वयं उठकर कालनेमि के पास गया। अपने स्वार्थ के लिए या जब किसी के बलि की आवश्यकता होती है तब रावण स्वयं  उसके पास जाता है। स्वार्थ साधने में रावण अभिमान को स्थान ही नहीं देते है  मारीच के पास भी इसी भाँति गया था। रावण ने वही भेद कालनेमि से कहा जो दूत से सुना था। मरम यह कि तुम हनुमान जी का रास्ता रोको। हनुमान को पहाड़ तक रात में ना जा सके बस इतने ही में शत्रु की पराजय निश्चित है। जब रावण से कालनेमि ने मर्म सुना, और अपना सिर बार बार पीटने लगा लगा और बोला कि जब सिंहिका की माया हनुमानजी पर  न चली तब मेरी माया क्या चलेगी। अवश्य ही मेरा मरण होगा, यह समझकर उसे अत्यन्त ढुख हुआ इसी से सिर पीटने लगा और बोला तुम्हारे देखते देखते जिसने नगर जला दिया उसके रास्ते को कौन रोक सकता है। कालनेमि ने रावण से कहा है कि मेरे प्राण न बचेंगे जैसे मारीच के नहीं बचे थे हनुमान का रास्ता कौन रोक सकता है ? इस कार्य  में मृत्यु तो (ध्रुव =अटल, अचल) है। कार्य होना नहीं है। भाव यह कि स्वयं आप भी नहीं रोक सकते तो मेरी क्या गिनती है? दसमुख पद से जनाया कि अभिमान पूर्वक सब हाल कहा मानों दसों मुखों से कहा है।

दसमुख सकल कथा तेहि आगें। कही सहित अभिमान अभागें॥

दसमुख कहा मरमु तेहिं सुना। पुनि पुनि कालनेमि सिरु धुना।।

कालनेमि रावण से बोले-

देखत तुम्हहि नगरु जेहिं जारा। तासु पंथ को रोकन पारा।।

अतः हे नाथ! मेरी सलाह मानो श्री रघुनाथजी का भजन करके तुम अपना कल्याण करो! झूठी (बकवाद=निरर्थक वार्तालाप) छोड़ दो। नेत्रों को आनंद देने वाले नीलकमल के समान सुंदर श्याम शरीर को अपने हृदय में रखो। (मृषा=झूठ) (जल्पना=व्यर्थ में तर्क वितर्क करना)(लोचनाभिरामा=नेत्रों को आनंद देने वाले)

भजि रघुपति करु हित आपना। छाँड़हु नाथ मृषा जल्पना॥
हित हमार सियपति सेवकाईं। सो हरि लीन्ह मातु कुटिलाईं॥

ये मैं नहीं कह रहा ये भरत जी जैसे महान संत कहा है हित अर्थात लोक परलोक दोनों का कल्याण। रामजी को भजने से या उनकी शरणागति से प्राण बचेंगे, अचल राज्य रहेगा ओर अन्त में मुक्ति होगी। अ० रा० में (हित)? के बदले केवल मुक्ति है।

नील कंज तनु सुंदर स्यामा। हृदयँ राखु लोचनाभिरामा॥

हे नाथ रामजी लोचनाभिराम है उनका नीलकमल जैस सुन्दर शरीर हृदय में स्थान देने योग्य है उनको हृदय में धारण करने से सुख भी है और परम कल्याण होगा।

मैं तैं मोर मूढ़ता त्यागू। महा मोह निसि सूतत जागू।।

कालनेमि कपट निधान होने पर भी ज्ञानी है तभी तो रावण को दिव्य ज्ञान दे रहा है उसने पहले  माया के स्वरुप का निरूपण किया मैं तैं मोर मूढ़ता त्यागू यही मूढ़ता है में और मेरा जैसी बुद्धि तथा इसका व्यवहार ही अविध्या है (निरूपण=विवेचना करना, अच्छी तरह समझाना)

अहंकार ममता मद त्यागू। महा मोह निसि सूतत जागू॥

हे नाथ अहंकार ममता मद त्यागू। का भाव इनके ही कारण तुम भूले हुए हो और समझते हो कि हम से कौन लड़ सकता है अहंकार ममता मद के ही कारण तुम रामजी हनुमानाजी को मनुष्य और वानर मानते हो, अहंकार ममता मद छोड़ने पर तुम उन्हें ईश्वर मानोंगे।
महा मोह निसि सूतत जागू॥ ईश्वर में भ्रम होना महामोह है; महामोह रुपी रात्रि में सोते से जागो(महामोह= अज्ञान) (निसि= आधी रात)

पर महाराज महा मोह जल्दी से छूटता भी नहीं है  

महामोह उपजा उर तोरें। मिटिहि न बेगि कहें खग मोरें॥
दरनि धामु धनु पुर परिवारू। सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू॥

देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं। मोह मूल परमारथु नाहीं॥

हे नाथ धरती, घर, धन, नगर, परिवार, स्वर्ग और नरक आदि जहाँ तक व्यवहार हैं, जो देखने, सुनने और मन के अंदर विचारने में आते हैं, इन सबका मूल मोह (अज्ञान) ही है। परमार्थतः ये नहीं हैं। पुनः धरनि धाम धन परिवारा आदि में लिप्त रहना भी मोह रात्रि में सोना ही है और सबसे वेराग्य होकर प्रभु के भजन में लगने को ही जागना कहा गया है। आशय यह कि राम को परब्रह्म परमात्मा जानकर उनका भजन करो, अतः उनको जानकी दे दो।

मोह निसाँ सबु सोवनिहारा। देखिअ सपन अनेक प्रकारा।।
जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब जब बिषय बिलास बिरागा।।

(सूत्र) जिसका भी चित्त भोग विलास में है वह सो रहा है भोग विलास का विराग होना ही जगाना है। (विराग= अरुचि, उदासीन)

होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा।।
अग जग जीव नाग नर देवा। नाथ सकल जगु काल कलेवा।।

हे नाथ! नाग, मनुष्य, देवता आदि चर-अचर जीव तथा यह सारा जगत काल का कलेवा है।

काल ब्याल कर भच्छक जोई। सपनेहुँ समर कि जीतिअ सोई॥

हे नाथ! जो काल रूपी सर्प का भी भक्षक है, क्या कहीं स्वप्न में भी वह रण में जीता जा सकता है? रामजी तो भक्ति से ही वश में होते है  (काल ब्याल= काल सर्प)

काल को सर्प कहा, क्योंकि यह शीघ्र  ही सबको खा लेता है, किसी  को  नहीं छोड़ता जो उस काल के भी ये काल हैं  हे नाथ रामजी मनुष्य नहीं हैं, तब इनको कौन जीत सकता है?

जाकें डर अति काल डेराई। जो सुर असुर चराचर खाई॥
जेहिं जलनाथ बँधायउ हेला। उतरे प्रभु दल सहित सुबेला।

और हे नाथ आपको तो मालूम भी है मन्दोदरी ने कहा भी रामजी सर्व समर्थ प्रभु ही है कोई मनुष्य नहीं, जब से सृष्टि हुई है तब से अब तक किसी ने समुद्र पर पुल नहीं बांधा इनकी सेना में तो बन्दर भालू ही है उन्होनें पांच दिन में पुल बना दिया और सुबेल पर्वत
पर तो काल का निवास है उसी पर्वत पर रामजी ने डेरा डाला और काल ने उनका भक्षण नहीं किया क्योकि राम जी कालों के काल है।  (जलनाथ= समुद्र) (हेला = क्रीड़ा,खिलवाड़) 

Mahender Upadhyay

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