विभीषण जी औरो पर ढार कर उसके बहाने से रावण को उपदेश दे रहा है जिससे वह क्रोध ना करे और ना अनुचित ही माने पुनः (रावण बड़ा भाई है और राजा भी है अतः सीधे ना कहकर अन्य के प्रति उद्देश्य कर कहता है) जिससे वह समझे और अपने में सुधर कर ले।
सुजसु धर्म से कहा, सुमति से अर्थ कहा, सुभ गति से मोक्ष कहा, सुख नाना से काम कहा, इन चारों पदार्थो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, से कल्याण होता है। ये ही चारों पदार्थ कल्याण है।
पर नारी लिलार- (दूसरे की स्त्री का मुह देखना कामुकता रूपी दोष है) पर स्त्री मुख चोथ के चन्द्रमा के समान कलंक का देने वाला हैँ,कलंकी है, अन्य तिथियों का चंद्रमा त्याज्य नहीं है। ‘गोसाई! का भाव कि आप राजा हैं, आपको चाहिए कि जो परस्त्री को ग्रहण करे, उसे राजा दंड दें! भगवान कृष्ण को भी चौथ के चंद्रमा के दर्शन से स्यमंतक मणि चोरी का कलंक लगा था। (लिलार=माथा)
रावण में काम, क्रोध, लोभ, परोक्ष रूप से कहे नारि लिलार से काम, भूतद्रोह से क्रोध, अल्प लोभ से लोभ कहा अतःदोहे में पुनः अपरोक्ष रूप से कहता है हे नाथ! काम, क्रोध, मद और लोभ- ये सब नरक के रास्ते है, इन सबको छोड़कर राम जी को भजिए, जिन्हें संत सत्पुरुष भजते हैं। सब परिहरि= सब परिहरि कहकर यह जनाया कि ये सारे दोष रावण में है कामादि नरक के पंथ है उनका त्याग करो और रघुवीर श्री राम जी का भजन अपबर्ग का मार्ग है उसे ग्रहण करो।(अपबर्ग =मोक्ष)
(सूत्र) मंत्री, (बैद डॉक्टर) और गुरु यदि भय या किसी आर्थिक लाभ के कारण राजा से प्रिय बोलने लगें, तो उस राज्य का शीघ्र ही नाश हो जाता है। ,और गुरु के अनुचित उपदेश से धर्म शीघ्र ही नाश हो जाता है। एवं बैद द्वारा अनुचित सलाह से शरीर का शीघ्र ही नाश हो जाता है।
रावण की सभा में ऐसी ही स्थिति थी, रावण कि सबसे बड़ी कमी यह की वह शत्रु की बड़ाई (प्रसंशा) सुन ही नहीं सकता, इस कारण जब भी वह अपने मंत्रियों से उनकी राय पूछा तो वे सभी मंत्री रावण के भय के कारण रावण को प्रिय लगने वाला वचन ही बोलते है। इस स्थति को देखकर ही विभीषण जी ने अपने भाई रावण से कहा, (सूत्र) यह एक कटु सत्य है कि आज के समाज ऐसा ही हो रहा है।
राज धर्म तन तीनि कर॥ राज्य से यह लोक, धर्म से परलोक और तन से लोक ओर परलोक दोनों का विनाश होता है! अतः गलत सलाह से इन तीन का (राज्य, धर्म, शरीर) विनाश होगा ही इसको कोई रोक नहीं सकता हे नाथ शूर्पणखा ने भी तो आपको यही कहा-
दोहा वली में तुलसी बाबा ने भी यही कहा है!
गीता और मानस में केवल इतना भेद है की गीता में काम, क्रोध, मद और लोभ- को नरक का द्वार कहा और मानस में काम, क्रोध, मद और लोभ- को नरक का मार्ग कहा है। सन्त कहने का भाव यह कि हमारे बाप दादा सन्त है उनके मार्ग का अनुसरण करो! हे नाथ संत का संग मोक्ष (भव बंधन से छूटने) का और कामी का संग जन्म-मृत्यु के बंधन में पड़ने का मार्ग है। संत, कवि और पंडित तथा वेद, पुराण (आदि) सभी सद्ग्रंथ ऐसा कहते हैं। (अपबर्ग=सब तरह के दुखों से छुटकारा, त्याग,दान, मोक्ष) (पंथ=मार्ग)
चौदह भुवन एक पति होई। चौदहों भुवनों का एक ही स्वामी हो, वह भी जीवों से वैर करके ठहर नहीं सकता (नष्ट हो जाता है) जो मनुष्य गुणों का समुद्र और चतुर हो, उसे चाहे थोड़ा भी लोभ क्यों न हो, तो भी कोई उसको भला नहीं कहता। चौदहों भुवन का अकेला मालिक होना बडा दुर्लभ है।
पर मान लीजिये कि यदि कोई ऐसा हो और वह मद में आकर भूतद्रोह मे लग जाय तो इस पाप से वह ठहर नहीं सकता। क्योकि भूत द्रोह बडा भारी पाप है।भूत द्रोही ईश्वर का विरोधी होता है; क्योंकि ईश्वर सर्वभूतमय है, भूतद्रोह भारी पाप है! इससे उपदेश मिलता है कि (सूत्र) ‘तलबार की जोर से कानूनी सत्ता पर जो राज्य शासन किया जाता है (और जो प्रजा को प्रसन्न रखने का प्रयत्न नहीं किया जाता है) वह सत्ता शीघ्र ही नष्ट हो जाती हैं।
तीन लोक निम्नलिखित हैं -1.पाताल लोक या अधोलोक 2.भूलोक या मध्यलोक 3.स्वर्गलोक या उच्चलोक
चौदह भवनों के नाम निम्नलिखित हैं –
1. सतलोक 2.तपोलोक 3. जनलोक 4. महलोक 5. ध्रुवलोक 6. सिद्धलोक 7. पृथ्वीलोक 8. अतललोक 9. वितललोक 10. सुतललोक 11. तलातललोक 12. महातललोक 13. रसातललोक 14. पाताललोक
इनके स्वामी भगवान शिव जी हैं (तिष्ठ=ठहरना,प्रतीक्षा) (भुवन=ब्रह्माण्ड)
विभीषणजी ने पहले विकारों के त्याग करने को कहा क्योकि इनको छोड़ने पर ही जीव परमेश्वर को जानने का अधिकारी होता है जब तक चित्त में काम क्रोध मोह रहता है तब तक भगवत तत्व का ना तो बोध होता है और ना ही भक्ति होती है विभीषणजी ने कहा राम मनुष्यों के ही राजा नहीं हैं।
वे समस्त लोकों के स्वामी और काल के भी काल हैं। वे (संपूर्ण ऐश्वर्य, यश, श्री, धर्म, वैराग्य एवं ज्ञान के भंडार) भगवान हैं, वे निरामय, अजन्मे, व्यापक, अजेय, अनादि और अनंत ब्रह्म है। भुवनेस्वर कालहु कर काला॥कथन का भाव यह है कि काल ब्रम्हाण्डो को खा सकता है पर बिना प्रभु की आज्ञा से वह ऐसा नहीं कर सकता क्योकि प्रभु समस्त ब्रम्हाण्डो के मालिक है और “काल के भी काल “है अर्थात जो काल ब्रम्हाण्डो को खा जाता है उस काल को भी प्रभु खा जाते है।(अज=जिसका जन्म समझ में नहीं आता) (निरामय=अनामय=विकाररहित, नीरोग और स्वस्थ) (भूपाला=राजा) (भुवनेस्वर=भगवान)
विभीषणजी रावण से बोले- प्रथ्वी, ब्राह्मण, गऊ और देवताओं का हित करनेवाले हैं, दयासागर हैं, रामजी दया करके मनुष्य शरीर धारण करते हैं। हे साई ! सुनिए, रामजी! (जन=लोक,लोग) को आनन्द देने वाले, दुष्टो के समूह के नाशक, और वेद और ओर धर्म के रक्षक हैं। (जनरंजन=सेवकों को सुख पहुँचानेवाला) (खल ब्राता=दुष्टों के समूह) (कृपा सिंधु=दयासागर)
विभीषणजी रावण से बोले-अतः वैर त्यागकर उन्हें मस्तक नवाइए। कुछ भेट पूजा की आवश्यकता नहीं है वे रघुनाथजी शरणागत का दुख नाश करने वाले हैं। हे नाथ! उन प्रभु (सर्वेश्वर) को जानकी जी दे दीजिए और बिना ही कारण स्नेह करने वाले श्री रामजी को भजिए। (बयरु=शत्रुता) (प्रनतारति=शरणागत)
विभीषणजी रावण से बोले- अगर तुमको संदेह हो कि हमने तो उनका बड़ा अपराध किया है, शरण जाने पर भी हमको शरण में न लेंगे , उसी पर कहते हैं. कि ‘सरन गएँ, प्रभु विश्वद्रोह कृत पाप का भी नाश करने में समर्थ हैं| शरण जाते ही ऐसा पाप भी नष्ट हो जाता है, यह शरणागति का माहात्म्य है!
विभीषणजी बोले-हे दशशीश! मैं बार-बार आपके चरणों लगता हूँ और विनती करता हूँ कि मान, मोह और मद को त्यागकर आप कोसलपति श्री रामजी का भजन कीजिए। (परिहरि=त्यागकर)
विभीषणजी रावण से बोले- हे नाथ वेद पुरान ऐसा कहते है कि सुमति और कुमति सब के हृदय में रहती है जहाँ सुमति है वहां अनेक प्रकार की संपत्ति रहती है और जहाँ कुमति है वहां अंत में विपत्ति ही है तुम्हरे ह्रदय में विपरीत कुमति बसी है। इससे तुम हित को अनहित और शत्रु को मित्र मानते हो जो राक्षस कुल की कालरात्रि है उस सीता पर तुमको घनी (बहुत) प्रीति है (बिपति निदाना=विपत्ति और नाश)
सुमति कुमति दोनों सगी बहने है ब्रम्हा जी की बेटियां है! ये कभी भी किसी के हृदय में उत्पन्न हो जाती है! इन दोनों का प्रमाण क्या है? जहाँ सुमति तहँ!
रावण बोला=सारी लंका जली पर विभीषण तेरा घर न जला, यह बात हृदय में आते ही रावण ने क्रोधित होकर कह रहा है कि तेरी तपस्वियों से प्रीती है इस कारण तेरा घर नहीं जला!
शत्रु के साथ भी भलाई करना यह केवल और केवल संतों का स्वभाव ही होता है, इसमें संत की ही बड़ाई है, दूसरे किसी की नहीं। पर दूसरों में तो यह गुण नहीं किंतु दोष माना जायगा।(सूत्र) शत्रु राजा के साथ भलाई करने वाले राजा की निंदा ही होती है। मोहम्मद गोरी के साथ बारबार भलाई करने का फल भारतवर्ष का नाश ही हुआ।
संत-असंत वंदना जितनी वन्दना मानस में बाबा तुलसी ने की उतनी वंदना किसी दूसरे ग्रंथ… Read More
जिमि जिमि तापसु कथइ अवतार के हेतु, प्रतापभानु साधारण धर्म में भले ही रत… Read More
बिस्व बिदित एक कैकय अवतार के हेतु, फल की आशा को त्याग कर कर्म करते… Read More
स्वायंभू मनु अरु अवतार के हेतु,ब्रह्म अवतार की विशेषता यह है कि इसमें रघुवीरजी ने… Read More
सुमिरत हरिहि श्राप गति अवतार के हेतु, कैलाश पर्वत तो पूरा ही पावन है पर… Read More
अवतार के हेतु, भगवान को वृन्दा और नारद जी ने करीब करीब एक सा… Read More