कर्म कमण्डल कर गहे,तुलसी जहँ लग जाय।सरिता, सागर, कूप जल
रामजी वाल्मीकि जी से बोले-हे मुनिनाथ आप त्रिकालग्य है भूत, भविष्य, वर्तमान, तीनो को आप देख सकते है, यहाँ रामजी मुनि की दिव्य दृष्टि और ऐश्वर्य का बखान करते है। त्रिकालज्ञ को जगत का सारा हाल मालूम करने में आयास अर्थात प्रयास नहीं करना पड़ता आप तो संसार को जिधर से चाहे उधर से अनायास ही सब कुछ देख सकते है।
अतः हे मुनिनाथ आपसे कोई बात छिपी नहीं है मेरे वन आने का कारण भी आप जानते हो। ज्ञानी की दृष्टि में संसार अपथ्य है अतः संसार को बेर उपमा दी गई है और भक्त को संसार पथ्य है अतः संसार को आंवले की उपमा दी गई है।
हे मुनिनाथआप तो भली भांति जानते है कि राज्य महा बंधन है। इसके छूटने से मुझे हर्ष है। वैज्ञानिकों ने काफी शोध के बाद पृथ्वी को गोल बताया, रामजी ने तो त्रेता में ही पृथ्वी को गोल बता दिया था। (बदर=बेर का पेड़ या फल) (अपथ्य= प्रतिकूल) (आमलक= अमला) (आयास= श्रम ,प्रयत्न)
हे मुनिनाथ आप त्रिकालग्य है-
भरत जी ने भी गुरु वसिष्ठ जी को ज्ञान का समुद्र कहा हैं जिसके लिए विश्व हथेली पर रखे हुए बेर के समान है।
हे मुनि नाथ-बिना पुण्य पवित्र यश प्राप्त नहीं होता ये में नहीं कहता पुण्य की महिमा वेद, संत और पुराण गाते है।हे मुनि राज! आपके चरणो को देख हमारे अर्थात हम तीनों के सब सुकृत फलयुक्त हुए। (अघ= पाप, पातक ,अधर्म)
अतः अब ऐसा स्थान बताए जहाँ मेरे रहने से किसी मुनि को कष्ट ना हो क्योंकि जिन राजाओ से मुनि वा तपस्वी दुख पाते है वे राजा बिना अग्नि के ही भष्म हो जाते है। (उदबेग=मानसिक पीड़ा,दुख) (राउर= आपकी,रनवास) (आयसु= आज्ञा, हुक्म, या आदेश)
यह शास्त्र मत है कि जब राजा बिना अग्नि के भस्म हो जाते है तो हम तो राजा भी नहीं है यदि हमसे किसी मुनि को कष्ट हो गया या अपराध हो गया तो हमारा तो अभी कोई ठिकाना भी नहीं है। जैसे भानु प्रताप के कुल का नाश हुआ, कोटि यदुवंशी जल मरे, सगर के पुत्र कपिल मुनि के श्राप से भस्म हुये ,सहस्त्र बाहु को परशुराम जी ने मारा, इन सभी का अंत मुनियों या विप्र के श्राप से हुआ।
हे रघुनाथ रघु महाराज ने वेद मर्यादा का पालन किया उनके कुल में सब मर्यादा की रक्षा करते आये है और आप तो उस कुल में ध्वजा सरूप है।
और हे राम जी यह तो अपने ही कहा-
हे रघुनाथ जगदीश जी-
हे राम देवताओं का भी तो यही मत है।
हे रघुनाथ जगदीश आप वेदों की मर्यादा पालन करने वाले हो जानकी जी आप की माया है। वे जानकी जी आपकी इच्छा मात्र से जगत की उत्पत्ति ,पालन ,और नाश करती है और सहस्त्र शिरधारी शेष जी पृथ्वी को धारण करने वाले है वे ही चराचर के धनी लक्ष्मण जी है आप स्वयं देवताओ के हेतु मनुष्य शरीर धारण कर अब निशाचरों को मारने चले हो।
हे रामजी आप जगत के कौतुक दिखाने वाले, अथवा जगत दृश्य ओर आप देखने वाले है और विधि (बह्मा, विष्णु शिवजी को नचाने वाले हो वे देवता भी आपका भेद नहीं जानते और फिर दूसरा आप को कौन जाने? जिनके हृदय में आपकी शीतल चन्दन सी भक्ति है भक्ति को चन्दन इस कारण कहा कि चन्दन से तीनों ताप दूर होकर हृदय शीतल हो जाता है। (दारुनारि= कठपुतली) (सूत्रधार= रंगमंच का प्रबन्धक)
हे रामजी आपके चरित्रों को देखकर और सुनकर मूर्खो को विपरीत ज्ञान के कारण मोह हो जाता है, और ज्ञानी परम भाव के कारण लीला समझ कर सुखी होते है नाट्य लीला का भी तो एक साधारण नियम है कि जैसा वेश हो तो वैसा ही अभिनय करना पड़ता है। (जड़=मूर्ख ) (बुध= बुद्धिमान एवं विद्वान व्यक्ति)
सरल,तब कर कमल जोरि रघुराई। बोले बचन श्रवन सुखदाई।।
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