सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा।हरषु बिषादु न कछु उर आवा।।
रामजी ने गुरु के चरणों में सिर नवाया राम जी को हर्ष विषाद कुछ भी नहीं हुआ क्योकि वे हर्ष विषाद रहित है। संतो का मत हर्ष और विषाद कुछ ना हुआ क्योकि पुराने धनुष को तोड़ने में कोई वीरता नहीं हर्ष विषाद तो जीव के धर्म है और श्री राम जी ब्रह्म है अतः हर्ष विषाद कैसा? राजा लोग जब दनुष तोड़ने चले तब अपने अपने इष्टदेव को सिर नवाकर चले इसी तरह रामजी गुरु को प्रणाम करके चले इससे जनाया की हमारे गुरु ही इष्टदेव है। दूसरा भाव गुरु के वचन सुनकर गुरु चरणों में सिर नवाने का भाव कि आपकी आज्ञा का प्रतिपालन मेरे परूषार्थ से नहीं केवल और केवल आपके चरणों की ही कृपा से होगा।
अर्थात धनुष टूटने पर रामजी को हर्ष विषाद कुछ न हुआ क्योंकि जीर्ण धनुष के तोड़ने में कोई वीरता नहीं है! हानि लाभ से ही विषाद और हर्ष होता है।जब इसके तोड़ने से श्री रामजी को न कुछ लाभ है न हानि तब हर्ष या विषाद क्यों होता। हर्ष विषाद जीव के धर्म है! हर्ष,शोक, ज्ञान, अज्ञान,(अहंता=अभिमान) ये सब जीव के धर्म हैं।
राम तो व्यापक ब्रह्म, परमानंदस्वरूप, परात्पर प्रभु और पुराण पुरुष हैं। इस बात को सारा जगत जानता है। अतः उनके मन में हर्ष और विषाद नहीं हुआ इसके प्रतिकूल सीता, सुनयना को पहले विषाद हुआ फिर धनुष टूटने पर हर्ष हुआ!
मूर्ख सुख के समय खुश और दुख की घड़ी में रोते बिलखते हैं, जबकि धैर्यवान व्यक्ति दोनों समय में मन में समान रहते हैं।
सहज स्वभाव से उठकर खडे हुए पर उस उठने के तरीके को देखकर जैसे युवा सिंह लज्जित हो जाय। (मृगराजु=शेर, सिंह) (महिपाल=राजा) (पंकज नाल=कमल की डंडी) (परेस=उच्चतम भगवान ब्रह्मा, भगवान राम, प्रभुओं के प्रभु का एक अन्य नाम होता है) (परात्पर=सर्वश्रेष्ठ, सर्वोपरि) (अहमिति= अपने आपको औरों से बहुत अधिक योग्य, समर्थ या बढ़कर समझना)
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