केहि बिधि अस्तुति करौं तुम्हारी। अधम जाति मैं जड़मति भारी॥
जैसे गाय के थन देखने में चार है परंतु चारों के अंदर एक ही सामान दूध भरा रहता है,वैसे ही भक्त, भक्ति, भगवान, गुरु ये चारों अलग अलग दिखाई देने पर भी सर्वदा सर्वथा अभिन्न है । चारों में से किसी एक से प्रेम हो जाने पर तीनो के तीन स्वतःही प्राप्त हो जाते है। इनके श्रीचरणों की वन्दना करने से समस्त विघ्नों का पूर्णरूप से नाश हो जाता है। भक्त चरित्रों के समान दूसरी और कोई वस्तु सुन्दर नहीं है। इसी लिए कहा गया है।
(सूत्र) इसी कारण भगवान ने स्वयं कहा कि मेरे अवतार लेने का मुख्य कारण केवल और केवल मेरे भक्त ही है।
श्री रामजी शबरीजी के आश्रम में पधारे। शबरीजी ने श्री राम को घर में आए देखा, तब मुनि मतंगजी के वचनों को याद करके उनका मन प्रसन्न हो गया। जरा शबरी की सरलता पर विचार अवश्य करें कि शबरी अभी भी गृह समझ रही है आश्रम का ध्यान ही नहीं है।
कमल सदृश नेत्र और विशाल भुजाओं वाले, सिर पर जटाओं का मुकुट और हृदय पर वनमाला धारण किए हुए सुंदर, साँवले और गोरे दोनों भाइयों के चरणों में शबरीजी लिपट पड़ीं। (सरसिज=कमल)
यह सबरी की दशा है कि प्रेम में मग्न हो गईं, मुख से वचन नहीं निकलता। बार-बार चरण-कमलों में सिर नवा रही है।
शबरीने कहा- मैं किस प्रकार आपकी स्तुति करूँ? मैं नीच जाति की और अत्यंत मूढ़ बुद्धि हूँ।
अधम से भी अधम हैं, स्त्रियाँ उनमें भी अत्यंत अधम हैं, और उनमें भी मैं मंदबुद्धि हूँ।
शबरी की पूजा में केवल और केवल भक्ति ही है तीन तरह से पूजा करती है पद ,आसन,और नैवेद्य, रघुनाथजी ने कहा तुमको स्तुति करने की आवश्यता भी नहीं है। (अघारी=पाप के शत्रु ,पाप के नाशक) (पापनाशन=वह जो पाप का नाश करेअर्थात रामजी) क्योकि
रघुनाथ जी ने कहा– हे भामिनि! तुम मेरी बात सुनो। मैं एकमात्र भक्ति का नाता मानता हूँ। जो मेरी भक्ति करता है वह मेरा है और मैं उसका हूं। जाति पाँति, कुल ,बडाई, द्रव्य, बल, कुटुम्ब, गुण, चतुराई सब कुछ हो, पर यदि भक्ति न हो तो वह मनुष्य बिना जल के बादलों के समान शोभाहीन और व्यर्थ है। रामजी कहते हैं –पुरुषत्व-स्त्रीत्वका भेद या जाति, नाम और आश्रम आदि मेरे भजन मे कारण नहीं है, केवल भक्ति ही एक कारण है। जो मेरी भक्ति से विमुख हैं, यज्ञ, दान, तप और वेदाध्ययन कितना ही कर ले मुझे पा ही नहीं सकता।
तुलसी बाबा ने तो साफ साफ कहा- मेरे समान टेढ़ा , दुष्ट और कामी इस संसार में कौन होगा ! हे दयालु भगवान ! आपसे कौन सी बात छिपी हुई है , आप तो सबके हृदय की बातें जाननेवाले हैं।
(परम) सुंदर, सुजान और कृपानिधान तथा जो अनाथों पर प्रेम करते हैं, ऐसे एक श्री रामचंद्र जी ही है। इनके समान निष्काम (निः स्वार्थ) हित करने वाला (सुहृद्) और मोक्ष देने वाला दूसरा कौन है? जिनकी लेशमात्र कृपा से मंदबुद्धि तुलसीदास ने भी परम शांति प्राप्त कर ली, उन श्रीरामजी के समान प्रभु कहीं भी नही है।
जाति, पाँति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन, बल, कुटुम्ब, गुण और चतुरता- इन सबके होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्य कैसा लगता है, जैसे जलहीन बादल (शोभाहीन) दिखाई पड़ता है। अगर भक्ति नहीं है तो ये सभी गुण या उपलब्धि व्यर्थ है संतों का मत- जाति, पाँति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन, बल, कुटुम्ब, गुण और चतुरता- ये सभी गुण भक्ति के बाधक भी है सुग्रीव जी ने रामजी से कहा भी–
भक्ति को जल कहा गया है वशिष्ठ जी ने रामजी से कहा
हे माता शबरी! मैं आपसे यह नवधा भक्ति कहता हूँ, जिसको आप ध्यानपूर्वक सुनें और मन में विचार करें।(सूत्र) सावधान कहने का भाव चंचल मन है जो सब दुखों का कारण भी मन ही है अतः सुनने में मन का स्थिर होना जरूरी है अनादर से सुनना ना सुनने के बराबर है।
जिस भक्ति के बिना सभी गुण व्यर्थ है अब रामजी कहते है पहली भक्ति है कि हमेशा संतों का, अर्थात सदाचारी लोगों का साथ रहे। ना जाने किस महात्मा के द्वारा परम तत्व (रामजी) की प्राप्ति हो जाये दूसरी भक्ति है कि प्रभु कथा, अर्थात ऐसी कथाएं जो हमें जीवन के आदर्शों की प्रेरणा देती हैं, उनमें रति अर्थात प्रेम रखें। बाल्मीक जी ने तो राम जी को रहने का स्थान भी बताया।
तीसरी भक्ति है अमान अर्थात मान या अहंकार कपट और छल को त्याग कर अपने गुरु जी की सेवा एवं उसका गुणगान करें। चौथी भक्ति यह है कि गुरु जी से सुनकर कपट छोड़कर मेरे गुणों का गान करें। भगवान ने कहा- ना ही में वैकुण्ठ में रहता हूँ और ना ही में योगियों के हृदय में रहता हूँ मेरे भक्त जहाँ गुण गान करते है में तो वही वास करता हूँ।
पांचवी भक्ति, जो कि वेदों में प्रकाशित की गयी है, प्रभु के मंत्र का जाप अर्थात जो भी आपका आदर्श है उसके विचारों का बार बार मनन, जिससे आपकी एकाग्रता आपके आदर्श से भटके नहीं।
बिना विश्वास के देवताओं से साक्षात्कार नहीं होता।
छठवीं भक्ति है अपने शील, अर्थात चरित्र के निर्माण के लिए सदा प्रयत्नरत रहना और जीवन के अनेकों कर्तव्यों का पालन करते हुए भी कर्मों से एक वैराग्य बनाये रखना (भगवद्गीता में भी यह मत्त्वपूर्ण जीवन सिद्धांत “कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” के रूप में दोहराया गया है)। इसके साथ साथ हमेशा स्वयं को सज्जन धर्म यानी अच्छे कामों में ही व्यस्त रखना चाहिए। (निरत=काम में लगा हुआ, लीन) (दम=इन्द्रयनिग्रह=इंद्रियों और काम इच्छाओं को वश में रखना) (दमसील=मन समेत समस्त इन्द्रियों को वश में रखने वाला)
सातवीं भक्ति है इस पूरे जगत को हरि अर्थात अपने प्रेम की सबसे ऊंची अभिव्यक्ति के रूप में देखना और सभी से उतना ही प्रेम करना (वसुधैव कुटुम्बकम!)। संत अर्थात ज्ञानी और अच्छे काम करने वाले लोगों को हरि से भी अधिक समझना चाहिए। यह महत्त्वपूर्ण है की यहाँ स्वयं भगवान अपने मुख से कह रहे हैं की ज्ञानी और सज्जन लोगों को भगवान से ऊपर मानें।
आठवीं भक्ति है संतोष का लाभ लेना और सपने में भी दूसरों के दोष ना देखना,(सूत्र) आज समाज में जब स्कूल के दिनों से लेकर पूरे जीवन भर हर जगह सर्वश्रेष्ठ होने के लिए आवश्यकता से अधिक दबाव का सामना करना पड़ता है, यह (उक्ति=वाक्य,विचार) हम सभी के लिए महत्त्वपूर्ण है।
नवीं भक्ति है सरलता और सहज अवस्था में आती है। इस अवस्था में सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना।
इन नवों भक्ति में से जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो। इनमें से किसी एक प्रकार की भक्तिवाला मुझे प्रिय होता है।
फिर तुझमें तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ है। अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वह आज तेरे लिये सुलभ हो गयी है। उसीके फलस्वरूप तुम्हें मेरे दर्शन हुए, जिससे तुम सहज स्वरूप को प्राप्त करोगी। इस प्रकार भक्ति का वर्णन करने के बाद भगवान शबरी को अपना परम पद प्रदान करते हैं।
सब कथा कहकर भगवान के मुख के दर्शन कर, उनके चरणकमलों को धारण कर लिया और योगाग्नि से देह को त्याग कर (जलाकर) वह उस दुर्लभ हरिपद में लीन हो गई, जहाँ से लौटना नहीं होता।
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