संसय,बंधन काटि गयो उरगादा। उपजा हृदयँ प्रचंड बिषादा॥

 

संसय,बंधन काटि गयो उरगादा। उपजा हृदयँ प्रचंड बिषादा॥

बंधन काटि गयो उरगादा।

रण की शोभा तब ही होती है जब बराबर के वीरों का युद्ध हो हे उमा रण की शोभा के लिए प्रभु ने अपने को नागपाश में बाँध लिया, तब देवताओं को बड़ा भय हुआ। जिसकी महिमा वेद नहीं जानते वह स्वयं साधारण  राक्षसो के हाथों बंध गये यह सुनकर प्रभु का ऐश्वर्य कौन मानेगा।


रन सोभा लगि प्रभुहिं बँधायो। नागपास देवन्ह भय पायो॥

शंकर जी को अपने स्वामी की न्यूनता के कारण लज्जा होती है कि मेरे प्रभु तो स्वतंत्र, अनन्त, एक (अखंड) और निर्विकार खर के शत्रु है फिर भी मेरे स्वामी श्री रामजी (लीला से) नागपाश के बंधन में  बँध गए पर रामजी को कोई संकोच भी नहीं हुआ। (ब्रीड़ा=लज्जा, शर्म)

ब्याल पास बस भए खरारी। स्वबस अनंत एक अबिकारी॥

जब रघुनाथ कीन्हि रन क्रीड़ा। समुझत चरित होति मोहि ब्रीड़ा॥

जहाँ प्राण बचाना मुश्किल हो महराज  वहां क्रीड़ा कौन करेगा रण भूमि तो पराक्रम दिखाने के लिये होती है क्रीड़ा तो यहाँ हो ही नहीं सकती अतः असमर्थ होने के कारण ही रामजी और लक्ष्मण  जी  नागपाश से बंध गये, जल क्रीड़ा और वन क्रीड़ा तो सुनी है पर रण क्रीड़ा सुनी भी नहीं है अतः गरुण जी को संदेह हुआ पर महाराज कालों का काल ही तो रण क्रीड़ा में समर्थ है रघुनाथ जी ही रण क्रीड़ा में समर्थ है क्योकि वे ही सर्व समर्थ प्रभु है  

इंद्रजीत कर आपु बँधायो। तब नारद मुनि गरुड़ पठायो॥

आपु बँधायो। नारद जी ने विचार किया कि जब मेरे प्रभु अपनी इच्छा से बंधे है तो अपने आप तो छूटेंगे नहीं इनको तो बंधन मुक्त करना ही पड़ेगा तब नारद जी गरुण जी के पास गये   और बोले की भगवान को संकट से तुम ही मुक्त करा सकते हो गरुण जी ने भगवान को नागपाश के बंधन से मुक्त तो कराया  या पर गरुण जी को संसय हो गया की यह कैसा भगवान जिसके नाम लेने से संसार के सभी बंधन कट जाते है उसके बंधन मैंने काटे
नारद जी को विशेष चिंता हुई इसका मुख्य कारण(उन्होंने विचार किया कि) मेरे ही श्राप को स्वीकार करके श्री रामजी नाना प्रकार के दुःखों को  सह रहे हैं। (विषाद=दुख, अवसाद) (अंगीकार= ग्रहण, स्वीकार) (उरगादा= उरगाद=गरुड़) (भव बंधन= जन्म-मरण का चक्र, संसार सागर) (भवसिंधु= संसार रूपी समुद्र)

मोर साप करि अंगीकारा। सहत राम नाना दुख भारा॥
बंधन काटि गयो उरगादा। उपजा हृदयँ प्रचंड बिषादा

जासु नाम जपि सुनहु भवानी। भव बंधन काटहिं नर ग्यानी।।
जासु नाम सुमिरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिंधु अपारा॥
गरुड़ महाग्यानी गुन रासी। हरि सेवक अति निकट निवासी।।

गरुण जी का विचार-

ब्यापक ब्रह्म बिरज बागीसा। माया मोह पार परमीसा।।

सो अवतार सुनेउँ जग माहीं। देखेउँ सो प्रभाव कछु नाहीं।।

जो व्यापक, विकाररहित, (वाणी= सरस्वती) के पति और माया-मोह से परे परमेश्वर हैं, मैंने सुना था कि जगत में उन्हीं का अवतार है। पर मैंने उस (अवतार) का प्रभाव कुछ भी नहीं देखा,रामजी ब्रह्म है उनके रोम रोम में असंख्य ब्रह्माण्ड है वे विरज अर्थात उनमें माया का लेश मात्र भी स्पर्श नहीं होता तब माया के सर्पो का बंधन कैसा? माया मोह पार। (सूत्र) माया जीव को प्रभु से विमुख करके इन्द्रियों के विषय सुख में लगा देती है और मोह काम, क्रोध को वश में करके जीव के ज्ञान को नष्ट कर देता है (बिरज=निर्मल, शुद्ध, रजोगुण रहित,गुणहीन) (बागीसा =वागीश= सरस्वती के स्वामी, अच्छा बोलनेवाला, वक्ता,ब्रह्मा) (परमीसा = परमेश्वर)

बंधन काटि गयो उरगादा। उपजा हृदयँ प्रचंड बिषादा॥

गरुण जी को भ्रम हो गया- गरुण जो भगवान के वाहन भी है गरुण जी जैसा ज्ञानी भी अपने मन को समझा न सके। (सूत्र) मन को समझाना या मन की  समझना बहुत ही कठिन समस्या  है! इसका कारण यह है कि मन बाहर भी है और अंदर भी है, भला भी है और बुरा भी है,  मन अत्यंत छोटा परमाणु भी है और असीम ब्रम्हांड भी है, इस जगत में ऐसा कुछ भी नहीं जो मन से पृथक हो ऐसी स्थति में मन का  निरूपण करना अत्यंत कठिन कार्य है।(निरूपण=अच्छी तरह समझाना)

नाना भाँति मनहि समुझावा। प्रगट न ग्यान हृदयँ भ्रम छावा।।

महाराज ऐसे ही संसय से गरुण जी तो क्या स्वयं शंकर की पत्नी सती जी भी नहीं बच पाई 

अस संसय मन भयउ अपारा। होइ न हृदयँ प्रबोध प्रचारा॥

खेद खिन्न मन तर्क बढ़ाई। भयउ मोहबस तुम्हरिहिं नाई।।

गरुण जी ने मन ही मन में विचार किया ये कैसा भगवान।

बंधन काटि गयो उरगादा। उपजा हृदयँ प्रचंड बिषादा॥

ब्याकुल गयउ देवरिषि पाहीं। कहेसि जो संसय निज मन माहीं।।

सुनि नारदहि लागि अति दाया। सुनु खग प्रबल राम कै माया।।

नारद जी ने जब गरुण जी द्वारा पूरी कथा सुनी तो गरुण जी से तो कुछ नहीं बोले पर प्रभु की लीला को समझ गए क्योकि उनको भी संसय हो गया था अतः नारद ने गरुण जी को ब्रह्मा  जी के पास भेज दिया। 

जेहिं बहु बार नचावा मोही। सोइ ब्यापी बिहंगपति तोही॥
महामोह उपजा उर तोरें। मिटिहि न बेगि कहें खग मोरें॥

नारद जी गरुण जी से कहा कि आप ब्रह्माजी चार वेद के रचयिता है उनके पास जाओ (खगेसा=खगेश=गरुड़, पत्रगारि, उरगारि, हरियान, वैनतेय)

चतुरानन पहिं जाहु खगेसा। सोइ करेहु जेहि होई निदेसा॥

तब खगपति बिरंचि पहिं गयऊ। निज संदेह सुनावत भयऊ॥

तब गरुड़ ब्रह्माजी के पास गए और अपना संदेह उन्हें कह सुनाया। उसे सुनकर ब्रह्माजी ने रामजी  को सिर नवाया और रामजी के प्रताप को समझकर उनके मन में अत्यंत प्रेम छा गया। ब्रह्माजी मन में विचार करने लगे कि कवि, कोविद और ज्ञानी सभी रामजी की माया के वश हैं भगवान की माया का प्रभाव असीम है, जिसने मुझ तक को अनेकों बार नचाया है। अन्य भाव प्रणाम का यह भी हेतु है कि आप और आपकी माया धन्य है, कि, गरुण जी तक को भी तमाशा बना दिया। (बिरंचि=ब्रह्माजी) (बिपुल=बहुत, बहुतायत) (अमिति=अत्यधिक)

सुनि बिरंचि रामहि सिरु नावा। समुझि प्रताप प्रेम अति छावा॥

हरि माया कर अमिति प्रभावा। बिपुल बार जेहिं मोहि नचावा॥

हे गरुड़! मेरे को तुम जो वैद समझ रहे हो मेरे पास तुम्हारी बीमारी का इलाज नहीं है अब तुम तो सीधे (वैदनाथ=शंकरजी) के पास जाओ! हे तात! और कहीं किसी से न पूछना।

बैनतेय संकर पहिं जाहू। तात अनत पूछहु जनि काहू॥

हे उमा! मैंने गरुण इसीलिए नहीं समझाया कि मैं  रघुनाथजी की कृपा से उसका मर्म (भेद) पा गया था। उसने कभी अभिमान किया होगा, जिसको कृपानिधान राम जी नष्ट करना चाहते हैं।और उमा इस कारण भी नहीं समझया की मेरे समझने के बाद पूरे संसार में कहते कि नारद ,ब्रह्मा जी के पास तो कोई जबाब नहीं था बड़ी मुश्किल से शंकर जी ने  समझाया। 

होइहि कीन्ह कबहुँ अभिमाना। सो खौवै चह कृपानिधाना।।

सुनहु राम कर सहज सुभाऊ। जन अभिमान न राखहिं काऊ॥

होइहि कीन्ह कबहुँ अभिमाना।  वीर कवि जी के अनुसार एक बार देव योग से गरुण जी भुसुण्डि जी के आश्रम में पहुंच गए भुसुण्डि जी ने उनका स्वागत और सादर पूजन किया गरुण जी अभिमान वश बैठना उचित नहीं समझा साथ ही उस समाज का अनादर  किया प्रभु भक्त का अनादर सह ना सके इस कारण माया को प्रेरित कर अभिमान दूर करने के लिए गरुण जी को उसी समाज में भेजा और काक को ही गुरु बनाया (सूत्र) भक्त तो निरभिमानी होते है पर कभी किसी कारण से अभिमान होता है तो भगवान उसे दूर करते है  

कछु तेहि ते पुनि मैं नहिं राखा। समुझइ खग खगही कै भाषा।।

प्रभु माया बलवंत भवानी। जाहि न मोह कवन अस ग्यानी।।

ताते उमा न मैं समुझावा। रघुपति कृपाँ मरमु मैं पावा॥

हे गरुड़! तुम मुझे रास्ते में मिले हो। राह चलते मैं तुम्हे किस प्रकार समझाऊँ ? 

मिलेहु गरुड़ मारग महँ मोही। कवन भाँति समुझावौं तोही॥

महामोह उपजा उर तोरें। मिटिहि न बेगि कहें खग मोरें॥

जो बात नारद जी ने कही उसी का समर्थन शंकर जी ने किया जब भी प्रभु में संसय होता है तो उसका निवारण तुरंत नहीं होता  भगवान के चरित्र को संतो से बहुत समय तक सत्संग करें तब जाकर कही संसय, महा मोह  की निवृति होती है

तबहिं होइ सब संसय भंगा। जब बहु काल करिअ सतसंगा॥

हे गरुण जी अधिक समय तक सत्संग के लिये आप भुशंडी जी के पास जाये दूसरा भाव अगर शंकर जी समझा देते तो गरुण जी सारी दुनिया में यह कहते कि मेरे प्रश्नों का उत्तर किसी के पास नहीं था बड़ी मुश्किल में शंकर जी ने दिया तब तो अभिमान और बड़ जाता अतः इस अभिमान को समाप्त करने के लिए ही शंकर जी ने भुशंडी जी के पास भेजा।

उत्तर दिसि सुंदर गिरि नीला। तहँ रह काकभुसुण्डि सुसीला॥

(सूत्र) कथा वाचक को सुसील, प्रबीना, ग्यानी, बहु कालीना होना चाहिए

राम भगति पथ परम प्रबीना। ग्यानी गुन गृह बहु कालीना॥

राम कथा सो कहइ निरंतर। सादर सुनहिं बिबिध बिहंगबर॥

कथा अरंभ करै सोइ चाहा। तेही समय गयउ खगनाहा॥

आवत देखि सकल खगराजा। हरषेउ बायस सहित समाजा॥

अति आदर खगपति कर कीन्हा। स्वागत पूछि सुआसन दीन्हा॥

करि पूजा समेत अनुरागा। मधुर बचन तब बोलेउ कागा॥

गरुड़जी काकभुशुण्डि से बोले- भगवान के नागपाश से बंधन देखकर मुझे अत्यंत मोह हो गया था मनुष्यों जैसा  चरित्र देखकर मेरे हृदय में भारी संदेह हो गया। हे तात! यदि मुझे अत्यंत मोह न होता तो मैं आपसे किस प्रकार मिलता ?

देखि चरित अति नर अनुसारी। भयउ हृदयँ मम संसय भारी॥

जौं नहिं होत मोह अति मोही। मिलतेउँ तात कवन बिधि तोही॥

गरुड़जी काकभुशुण्डि से बोले- 

सुनहु तात जेहि कारन आयउँ। सो सब भयउ दरस तव पायउँ॥

देखि परम पावन तव आश्रम। गयउ मोह संसय नाना भ्रम॥

क्योकि लोमेश जी का भुसुंड जी को वरदान है कि भगवान को स्मरण करते हुए तुम जिस आश्रम में निवास करोगे वहाँ एक योजन (चार कोस) तक अविद्या (माया मोह) नहीं व्यापेगी। 

जेहिं आश्रम तुम्ह बसब पुनि सुमिरत श्रीभगवंत।

ब्यापिहि तहँ न अबिद्या जोजन एक प्रजंत॥

जीवन जन्म सफल मम भयऊ। तव प्रसाद संसय सब गयऊ॥

जानेहु सदा मोहि निज किंकर। पुनि पुनि उमा कहइ बिहंगबर।।

गरुड़जी, जानेहु सदा मोहि निज किंकर। का भाव यह है कि में अजीवन आपका दास हूँ आज्ञा देते रहियेगा! मेरे जीवन और जन्म दोनों सफल हुए और आपकी कृपा से सब संसय दूर हो गए! (प्रसाद=अनुग्रह,कृपा)

 

गरुड़जी काकभुशुण्डि से बोले- शुद्ध (सच्चे) संत उसी को मिलते हैं, जिसे  रामजी कृपा करके देखते है। श्री रामजी की कृपा से मुझे आपके दर्शन हुए और आपकी कृपा से मेरा संदेह चला गया।

संत बिसुद्ध मिलहिं परि तेही। चितवहिं राम कृपा करि जेही॥

राम कपाँ तव दरसन भयऊ। तव प्रसाद सब संसय गयऊ॥

गरुड़जी ने कहा- हे तात! मुझे संदेह रूपी सर्प ने डस लिया था और (साँप के डसने पर जैसे विष चढ़ने से लहरें आती हैं वैसे ही) बहुत सी कुतर्क रूपी दुख देने वाली लहरें आ रही थीं।

संसय सर्प ग्रसेउ मोहि ताता। दुखद लहरि कुतर्क बहु ब्राता।।

तव सरूप गारुड़ि रघुनायक। मोहि जिआयउ जन सुखदायक।।
तव प्रसाद मम मोह नसाना। राम रहस्य अनूपम जाना।।

काकभुशुण्डि गरुड़जी से बोले- (मिस=बहाना,ढोंग,बहाने से)

तुम्हहि न संसय मोह न माया। मो पर नाथ कीन्हि तुम्ह दाया॥

पठइ मोह मिस खगपति तोही। रघुपति दीन्हि बड़ाई मोही॥

शिवजी कहते हैं- हे भवानी! भुशुण्डिजी के वचन सुनकर गरुड़जी हर्षित होकर कोमल वाणी से बोले- हे प्रभो! आपके प्रसाद से मेरे हृदय में अब संदेह, शोक, मोह और कुछ भी नहीं रह गया।

सुनि भसुंडि के बचन भवानी। बोलेउ गरुड़ हरषि मृदु बानी॥

तव प्रसाद प्रभु मम उर माहीं। संसय सोक मोह भ्रम नाहीं॥

गरुण जी ज्ञानियों में तथा भक्तों में शिरोमणि ही नहीं हमेशा प्रभु के पास भी रहते है गरुण जी को हमेशा प्रभु के चरणों का स्पर्श होता है उसको माया ने घेर लिया यह आश्चर्य है (सूत्र) जब ऐसे गरुणजी को माया ने मोह में डाल दिया तब मनुष्य यदि अभिमान करें कि हम तो ज्ञानी है हम ही ब्रह्म है  हमें माया नहीं घेर सकती ऐसा अभिमान तो अधम लोग ही करेंगे विचारवान ऐसे  अभिमान से दूर रहता है

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Mahender Upadhyay

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