संसय,एकरूप तुम्ह भ्राता दोऊ। तेहि भ्रम तें नहिं मारेउँ सोऊ।।

संसय,एकरूप तुम्ह भ्राता दोऊ। तेहि भ्रम तें नहिं मारेउँ सोऊ।।

एकरूप तुम्ह भ्राता दोऊ।

श्री राम जी के मन में संशय- बालि और सुग्रीव के जन्म के विषय में एक रोचक बात है और उस बात के अनुसार बालि और सुग्रीव तीन पुरुषों से उत्पन्न हुए थे। रामायण के उत्तर काण्ड के अनुसार ऋक्षराज नामक एक वानर था जो अपने बल के मद में चूर रहता था। एक दिन वह बल के मद में चूर होकर एक सरोवर पर स्नान करने गया। कहते हैं कि वह सरोवर परम पिता ब्रह्मा के (स्वेद=पसीने) से बना था और उस तालाब पर श्राप था कि कोई  भी पुरुष उस सरोवर में स्नान करेगा वह सुन्दर स्त्री और  स्त्री उसमें स्नान करेगी वह पुरुष बन जाएगी। ऋक्षराज अपने बल के मद में चूर था उसे इस बात का ज्ञान  नहीं था। वह जैसे ही उस तालाब में स्नान करने के लिए गया तो वह सुन्दर स्त्री बन गया। अपने घर को जाते हुए उसे मार्ग में देवराज इन्द्र मिल गए। इन्द्र जो इस बात से अज्ञात थे कि वो कोई स्त्री नहीं अपितु एक पुरुष है। इन्द्र उसके सौंदर्य पर मोहित हो गए और उनके मन में काम भाव जागा। उन्होंने स्त्री रूपी ऋक्षराज के साथ सम्भोग किया  कालान्तर में ऋक्षराज ने एक बालक को जन्म दिया जिसके सुन्दर केश अर्थात् बाल होने के कारण उसका नाम बालि रखा गया। ऋक्षराज ने अपने पुत्र बालि को महर्षि गौतम और उनकी पत्नी अहल्या को सौंप दिया। ऋक्षराज के उस सुन्दर स्त्री रूप को देखकर सूर्य भी उस पर मोहित हो गए।सूर्य देव ने भी ऋक्षराज के साथ सम्भोग किया और कालान्तर में ऋक्षराज ने सुन्दर ग्रीवा अर्थात् गर्दन वाले बालक को जन्म दिया जिसका नाम सुग्रीव रखा गया। सुग्रीव को भी ऋक्षराज ने गौतम ऋषि और अहल्या को सौंप दिया।

बालि का विवाह वानर वैद्यराज सुषेण की पुत्री तारा के साथ सम्पन्न हुआ था। एक कथा के अनुसार समुद्र मन्थन के दौरान चौदह मणियों में से एक अप्सराएँ थीं। उन्हीं अप्सराओं में से एक तारा थी। बालि और सुषेण दोनों मन्थन में देवता गण की मदद कर रहे थे। जब उन्होंने तारा को देखा तो दोनों में उसे पत्नी बनाने की होड़ लगी। वालि तारा के दाहिनी तरफ़ तथा सुषेण उसके बायीं तरफ़ खड़े हो गये। तब विष्णु ने फ़ैसला सुनाया कि विवाह के समय कन्या के दाहिनी तरफ़ उसका होने वाला पति तथा बायीं तरफ़ कन्यादान करने वाला पिता होता है। अतः बालि तारा का पति तथा सुषेण उसका पिता घोषित किये गये। बालि प्रभु को लेकर अत्यंत भ्रम की स्थिति में था। इधर सुग्रीव के मन की अवस्था भी लगभग वैसी ही थी। उसमें भी राम के प्रति अडिग विश्वास का अभाव था। तभी तो सुग्रीव राम की परीक्षा तक ले लेता है।उनसे ताड़ के पेड़ कटवाता है व दुदुंभि राक्षस के पिंजर तक उठवाता है। केवल राम जी के प्रति ही नहीं अपितु सुग्रीव तो बालि के प्रति भी भ्रम की स्थिति में है। वह बालि को कभी अपने परम शत्रु के रूप में देखता है और कभी अपने क्षणिक वैराग्य के कारण माया रचित कोई लीला का अंश मानता है। अर्थात् सुग्रीव सिर्फ भ्रम नहीं अपितु महा भ्रम की स्थिति में है।

प्रभु ने जब देखा कि सुग्रीव और बालि दोनों ही भ्रम की स्थिति में हैं तो निष्कर्ष यही था कि भ्रम का भ्रम से कभी युद्ध हो ही नहीं सकता। केवल मिलन होता है। ठीक वैसे जैसे अंधकार और अंधकार का मिलन स्वाभाविक है। लेकिन युद्ध की बात हो तो युद्ध अंधकार और प्रकाश के मध्य होता है। बालि अंधकार है और सुग्रीव प्रकाश, तो युद्ध होना निश्चित ही था। लेकिन यहाँ तो वह दोनों भाई ही अंधकार व भ्रम के रूप में एक जैसे हैं। ऐसे में भला मैं किसे मारूँ और किसे छोडूँ। इस स्थिति में हमने भी आपके इस भ्रम−भ्रम के खेल में शामिल होने का मन बना लिया। और कह दिया कि हमें भी भ्रम हो गया।

वाल्मीकि जी के वचन-दोनों वीर समान थे। अश्विनीकुमारों के समान उनमें कुछ भी भेद न जान पड़ता था । अलंकार,वेष,शरीर की उँचाई लम्बाई चौड़ाई इत्यादि और चाल से तुम दोनों समान हो। स्वर,तेज, दृष्टि, पराक्रम ओर वाक्यों से दोनों में भेद न जान पड़ा। इसी रूप-सादश्य से मोहित होकर मैंने शत्रुनिहंता वाण नहीं छोड़ा। वीर कवि जी बालि को परमहित कहा था, इसी से न मारा पुनः, (भ्रम=करुणा) को भी कहते हैं इससे यह अर्थ हुआ कि श्री राम जी ने विचारा  कि कि यदि वालि भी सुग्रीव ऐसा अनुरागी हो जाता तो बच जाता। तुमको तो मेरा विस्वास सप्त ताल वेधन से हो गया पर वालि ने भी मुझे समदर्शी कहा हैं । अतएवं शरणागत के भ्रम से नहीं मारा! प्रभु तो शत्रु मित्र भाव रहित सबसे एक रस हैं !(ख) बालि ने समदर्शी कहा और सुग्रीव ने भी उसे परमहित कहा। (अतएव यदि बालि को मारते तो संभव था कि सुग्रीव कहता कि उसको व्यर्थ मारा,उससे तो मेरा वेर भाव नहीं रह गया था) इस विचार से दोनों को एकरूप कहा।

एकरूप तुम्ह भ्राता दोऊ। तेहि भ्रम तें नहिं मारेउँ सोऊ।।

सुनो सुग्रीव तुम्हारा भ्रम (तुम दोनों ही भ्रम की अवस्था में थे)
हे रघुवीर! सुनिए,बालि महान बलवान और अत्यंत रणधीर है। फिर सुग्रीव ने रामजी को दुंदुभि राक्षस की हड्डियाँ व ताल के वृक्ष दिखलाए। रघुनाथजी ने उन्हें बिना ही परिश्रम के (आसानी से) ढहा दिया।
श्री रामजी का अपरिमित बल देखकर सुग्रीव की प्रीति बढ़ गई और उन्हें विश्वास हो गया कि ये बालि का वध अवश्य करेंगे। वे बार-बार चरणों में सिर नवाने लगे। प्रभु को पहचान कर सुग्रीव मन में हर्षित हो रहे थे। (परतीती= किसी बात या विषय के संबंध में होने वाला दृढ़ निश्चय या विश्वास,यकीन) (अलोल= अचंचल,इच्छा या तृष्णा से रहित) (लोल= चंचल) (अलोल= शांत) (रनधीरा= युद्ध में धैर्यपूर्वक लड़नेवाला)

कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा। बालि महाबल अति रनधीरा॥
दुंदुभि अस्थि ताल देखराए। बिनु प्रयास रघुनाथ ढहाए॥

देखि अमित बल बाढ़ी प्रीती। बालि बधब इन्ह भइ परतीती॥
बार-बार नावइ पद सीसा। प्रभुहि जानि मन हरष कपीसा॥

उपजा ग्यान बचन तब बोला। नाथ कृपाँ मन भयउ अलोला॥
बालि परम हित जासु प्रसादा। मिलेहु राम तुम्ह समन बिषादा॥

राम जी ने कहा हे सखा सुग्रीव तुम्हारा भ्रम तो ये सब देख कर भी दूर नहीं हुआ पर तुम्हारा भाई बाली का भ्रम तो मुझे बिना देखे ही अपनी पत्नी से बोल रहा है!

सुनु पति जिन्हहि मिलेउ सुग्रीवा। ते द्वौ बंधु तेज बल सींवा॥
कोसलेस सुत लछिमन रामा। कालहु जीति सकहिं संग्रामा॥

कह बाली सुनु भीरु प्रिय समदरसी रघुनाथ
जौं कदाचि मोहि मारहिं तौ पुनि होउँ सनाथ॥

दूसरे, कोई शरणागति का चिन्ह भी सुग्रीव को ना दिया था जिससे बालि जान लेता कि सुग्रीव रामाश्रित हो चुका है,अब भागवतापराध अब प्रभु  न क्षमा करेंगे। अब सुग्रीव ने उसे काल कहा है,अतःअब मारेगे!

मेली कंठ सुमन कै माला। पठवा पुनि बल देइ बिसाला॥
मूढ़ तोहि अतिसय अभिमाना। नारि सिखावन करसि न काना॥

मम भुज बल आश्रित तेहि जानी। मारा चहसि अधम अभिमानी॥

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एकरूप तुम्ह भ्राता दोऊ। तेहि भ्रम तें नहिं मारेउँ सोऊ।।
Mahender Upadhyay

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