श्री गुरु चरण सरोज रज निज मन मुकुर सुधार।

श्री गुरु चरण सरोज

तुलसीदास जी नेकहागुरु जी के चरण कमल के रज से अपने मन रूपी दर्पण को स्वच्छ कर में रघुवर का विमल यस का वर्णन करता हूं जो चारो पदार्थ (अर्थ, धर्म, काम,मोक्ष) फलो को देने वाला है रघुवर शब्द चारो भाइयो का वाचक भी है।


श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुर सुधार।
बरनौ रघुवर बिमल जसु,जो दायक फल चारि

तुलसीदास जी ने कहा( रज से मन रुपी दर्पण) जिनका मन रूपी दर्पण मैला है,
उस पर धूल जम गई है,और उपर से देखने वाला नेत्रहीन है तो वो बेचारा दीन श्रीराम जी के रूप कैसे देख सकता है?

मुकुर मलिन अरु नयन बिहीना।राम रूप देखहिं किमि दीना।।

तुलसीदास जी नेकहा गुरु पद रज सुकृति रुपी शम्भू के शरीर की निर्मल बिभूति है जो सुन्दर मंगल आनंद की जननी माने आंनद उत्पन्न करती है गुरुदेव की चरण धूलि पुण्यात्मा भगवान शिवजी की देह पर लगी हुई पवित्र चिता भस्म के समान है,जो सुन्दर (सुगंधित) और कल्याण तथाआनंद प्रदान करनेवालीहै। शिव जी के शरीर में लगने वाली विभूति (चिता की भस्म) तो महा अपावन है पर शिव जी के अंग पर लगने के बाद (विमल=शुद्ध) और पावन हो जाती है (मंजु= सुन्दर) (मल=मैल,विकार) (मोद=हर्ष,आनंद, प्रसन्नता) (सुकृति =पुन्नय) ( बिभूती= राख) (मंजुल=सुन्दर) (मंजु=विशेषण=सुंदर, मनोहर) (प्रसूती= उत्पन्न करने वाली) (मुकुर= दर्पण) (गुरु शम्भु हैगुरु का तन=शम्भु का तन है) (जन= दास)

सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती।।
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी।।

मंजु मन में मल कैसा ? कुसंग में पड़ जाने से विषय का संग  पाकर मन में मैल ही जाता है सुग्रीव ने भी तो यही कहा हे स्वामी! देवता, मनुष्य और मुनि सभी विषयों के वश में हैं। फिर मैं तो पामर पशु और पशुओं में भी अत्यंत कामी बंदर
हूँ। राज तिलक से प्रजा वश में रहती है और वैष्णव तिलक करने से देवता और रघुनाथजी वश में होते हैं, वैसे गुरु पद रज से तिलक करने पर काम ,क्रोध, मोह, मद, मान, ममता, मत्सर, दम्भ, कपट, वश में रहते है (जन=दास) (मंजु=सुन्दर)
(मुकुर=दर्पण) (मल=मैल, विकार)

बिषय बस्य सुर नर मुनि स्वामी॥ मैं पावँर पसु कपि अति कामी॥

चरण रज वर्णन करते हुए रहीम कहते हैं किहाथी मार्ग की धूल को सूंड से अपने माथे पर मलता हुआ क्यों चलता है? शायद वह भगवान श्री राम की उस पवित्रपावन चरण रज को ढूंढता फिरता है, जिसके स्पर्श मात्र से गौतम मुनि की पत्नी अहल्या का उद्धार हो गया था वह धूल कहीं मिल जाये तो उसका भी कल्याण हो जाये

धूर धरत नित सीस पै, कहु रहीम केहि काज
जेहि रज मुनि पत्नी तरी, सों ढूंढत गजराज ।।
गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।
चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर॥

तुलसीदास जी ने कहामैं उन गुरु महाराज के चरण कमल की वंदना करता हूँ,
जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों केसमूह हैं (महामोह= मन का बड़ा भ्रम या मोह) (कंज= कमल) (मोह= अज्ञान) (तम= अंधकार) (पुंज= समूह) (रवि= सूर्य) (कर= किरण) (निकर= समूह)

बंदउं गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥

तुलसीदास जी ने कहामें श्री गुरु चरन कमल के पराग की वंदना करता हूँ जिस (पराग) में सुन्दर रूचि, उत्तम (सुगंध) और श्रेष्ठ अनुराग है (चारू=सुन्दर ) (समन=शमन=शात करने, नाश करने वाला) (अमिय मूरि=अमर मूर,अमृतवटी, संजीवनी बूटी) (भव रुज= भवरोग=बार बार जन्म मरण ,आवागमन होना) (परिवारू= कुटुम्ब) (भव रुज परिवार= काम क्रोध, मोह, मद,मान, ममता, मत्सर,दम्भ, कपट, तृष्णा, राग, द्वेष ,अत्यादि जो मानस रोग है जिनका वर्णन
उत्तरकाण्ड दोहा 121 में है वे ही भव रोग के कुटुम्बी है। (श्री गुरुपदरज)अमिया मूरमय सुन्दर चूर्ण है जो भव रोगो के समस्त परिवार का नाश करने वाला है। अमृत मृतक को जीवित करता है पर रज असाध्य भव रोगो का नाश कर जीव को सुखी करता है गुरु जी के चरणों की धूल  पराग की ही तरह रुचिकर, सुगंधित, रसीली है। सुरुचि, सुवास, सरस और अनुराग कहने का तात्पर्य यह है कि रज के सेवन से चारों फल प्राप्त होते हैं। सुरुचि से अर्थ प्राप्त होता है क्योंकि रुचि का अर्थ ‘चाह भी है, सुवास, से धर्म प्राप्त होता है क्‍योंकि धर्म में तत्पर होने से यश रूपी सुगंध फैलती है। सरस से  काम की प्राप्ति बताई क्योंकि काम भी
रस सहित है,और अनुराग से भक्ति की प्राप्ति बताई गई है।

बंदउ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।।
अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू।।

पद पराग में यह गुण है कि यह अपने गुण धर्म सेवक में उत्पन्न कर देता है। जबकि कमल पराग में यह समर्थ नहीं होता पद रज सेवन से शिष्य में भी भक्ति भक्त भगवंत गुरु के प्रति सुन्दर रुचि हो जाती है इसलिए गुरु के साथ-साथ शिष्य की भी सराहना होने लगती है यही सुवास है। गुरुपद रज सेवन से श्रेष्ठ अनुराग जो श्री गुरु जी में भगवान के प्रति है, ठीक वैसा ही अनुराग भगवान के प्रति शिष्य में भी आ जाता है इसलिए गुरु पद रज उत्तम है अमृत देवताओ के आधीन है और गुरुपदरज सबको सुलभ है (अमिय मूरि=अमृत मय बूटी) (अमिय =अमृत) (सुबास=सुगन्धित)  (रुज=रोग)  (सरस=+रस=रस सहित) (पदुम=कमल)

बाबा तुलसी ने कहा भी यही चरण रज केवल भारत में ही नहीं पूरे संसार में उपलब्ध है साहेब सनातन संस्कृति तो गुरु पद रज की खान है।

सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥

दशरथ जी ने भी यही कहा-जो लोग गुरु के चरणों की रज को मस्तक पर धारण करते हैं, वे मानो समस्त ऐश्वर्य को अपने वश में कर लेते हैं। इसका अनुभव मेरे समान दूसरे किसी ने नहीं किया। आपकी पवित्र चरण रज की पूजा करके मैंने सब कुछ पा लिया।

जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं। ते जनु सकल बिभव बस करहीं॥
मोहि सम यह अनुभयउ न दूजें। सबु पायउँ रज पावनि पूजें॥

चरन रज की इतनी बढ़ाई का कारण? चरन में अंगुष्ठ शेषनाग है, उंगलियों में दिग्गज हैं, पदप्रस्ठ में (कूर्म=कछुआ) है, तलवा सगुणब्रह्म है और रज सत्तास्वरूप है। इसी से पद रज की इतनी महिमा है। (सूत्र) अन्य सब साधनों को छोड़ कर श्रीगुरुनिष्ठ हो जाना समस्त साधनों में सुलभ और भवनाश एवं भगवतप्राप्ति का सर्वोत्तम उपाय है 

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Mahender Upadhyay

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