राम जी के जीवन में(कई बेहतरीन योग फिर भी इतना संघर्ष)
प्रभु श्रीराम की जन्म कुंडली में महायोगों की भरमार है,संसार में आज तक किसी भी व्यक्ति की कुंडली में ऐसे योग नहीं बने हैं।
जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल।
चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल॥
तुलसीदास जी ने कहा-राम जी के जन्म के समय
योग,लग्न,ग्रह,वार,तिथि इत्यादि सभी अनुकूल हो गये।
ये सभी हितकर हो गये सहायक हो गये,सखा और मित्र हो गये।संसार के सभी जड़ और चेतन हर्षयुक्त हो गये,रोमांचित,पुलकित और प्रसन्नचित्त हो गये क्योंकि श्रीराम का केवल जन्म लेना ही सकल सुखानुभूति का शुभारंभ है।
श्रीराम का केवल जन्म लेना ही समस्त सुखानंद धाम का मुख्य कारण है,सम्पूर्ण सुखशांति और समृद्धि का मूल आधार है। (सकल=समस्त) (मूल=कारण)
जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल।
चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल॥
ज्योतिष शास्त्र ही सनातन वेद का नेत्र है। भगवान के प्राकटय पर योग,लग्न एवं ग्रह आदि में अनुकूलता आ गई।
यह कोई आश्चर्य की बात नहीं। भगवान जिन पर भी कृपा करते हैं,उनके लिये भी ग्रह-नक्षत्र की अनुकूलता स्वतः ही आ जाती है।
यहाँ योग,लगन,ग्रह ,बार,तिथि,आदि पांचो के नाम देकर सूचित किया कि पंचांग मे जो सबसे उत्तम विधि है वे सभी भगवान के प्राकटय पर सभी के सभी अनुकूल हुए।
सकल भए अनुकूल। का भाव यह है कि लग्न और ग्रह आदि ये सब के सब एक ही काल में अनुकूल नहीं होते,अनुकूल और प्रतिकूल दोनों ही रहते है। इसका अर्थ यह कि जो ग्रह प्रतिकूल भी थे।
वे भी भगवान के प्राकटय के समय सब अनूकूल हो गए। इसका कारण बताया कि राम का जनम सुखमूल है।
(सूत्र) राम का जन्म ही सब मंगल की खान है।
वशिष्ठ जी भी बोले -हे राजन!
रामजी को युवराज बनाने में अब देर न कीजिए,आप शीघ्र ही सब सामान सजाइए। शुभ दिन और सुंदर मंगल तभी है,जब श्री रामजी युवराज हो जाएँ,अर्थात उनके अभिषेक के लिए सभी दिन शुभ और मंगलमय हैं।
तुलसी बाबा ने कहा-जिस दिन राम जन्म की स्तुति होती है सारे तीरथ,सुख,समृद्धि स्वयं ही आ जाती है।
तीर्थ स्थान केवल स्थूल या भौगोलिक स्थान नहीं हैं,बल्कि वे चेतन और इच्छाशक्ति युक्त भी माने जाते हैं। जब कहा जाता है कि
“तीर्थ चलते हैं”,
तो इसका भावात्मक अर्थ यह है कि तीर्थ के संरक्षक या मुख्य देवता अधिष्ठाता देवता स्वयं भक्तों की भक्ति से प्रसन्न होकर कहीं और प्रकट हो सकते हैं — अर्थात वे स्थान विशेष की सीमाओं में बंधे नहीं हैं। क्योंकि
भगत के वश में है भगवान,
भक्त बिना ये कुछ भी नहीं है। भक्त है इसकी जान,
भगत के वश में है भगवान ।
प्रयागराज को तीर्थो का राजा कहा गया हैं,
प्रयागराज का स्थान स्थिर और सर्वोच्च माना गया है।
इसलिए प्रयागराज प्रयाग को छोड़ कर और कहीं नहीं जाते।
जब एक बार दधीचि ऋषि ने नैमिषारण्य में यज्ञ के लिये प्रयागराज का आवाहन किया पर प्रयागराज नैमिषारण्य नही गये,तब ऋषियों ने अपनी तपस्या के बल पर नैमिषारण्य में पंच-प्रयाग को स्थापित किया।
पर अवध से संबंध:
जब जब ब्रह्म श्रीराम इस धराधाम पर अवतरित होते हैं,तब तब स्वयं तीर्थों के राजा प्रयागराज भी उन्हें प्रणाम करने अवधपुरीमें आते हैं।
विक्रमादित्य जी को प्रयागराज ही ने श्रीअवधपुरी की चारों दिशाओं की सीमा बतायी थी।
राजा विक्रमादित्य धर्मपरायण, पराक्रमी और तपस्वी सम्राट थे। वे अयोध्या के श्रीराम जन्मस्थान की सीमा जानना चाहते थे। इसके लिए वे तीर्थराज प्रयाग आए विक्रमादित्य ने घोर तपस्या की।
विक्रमादित्य की तपस्या से त्रिवेणी संगम (गंगा-यमुना-सरस्वती) प्रसन्न हुए और एक दिव्य कुंड प्रकट हुआ —
जिसे आज निर्मलीकुंड कहा जाता है। इस पवित्र जल से स्नान करने पर विक्रमादित्य को आध्यात्मिक दृष्टि प्राप्त हुई,जिससे उन्होंने श्रीअवधपुरी (अयोध्या) की चारों दिशाओं की सीमाओं का साक्षात दर्शन किया।
भारतवर्ष में रीति है कि जब कोई ग्राम,नगर इत्यादि प्रथम-प्रथम बसाये जाते हैं तो उनके कोई-न-कोई अधिष्ठाता देवता भी स्थापित किये जाते हैं।
तीर्थ चलते हैं इसका प्रमाण इस ग्रन्थ में भी मिलता है।
तुलसी बाबा ने पार्वती के विवाह पर भी यही कहा-
जब रघुनाथजी ने समुद्र पर कोप किया तब समुद्र विप्ररूपधारण करके राम जी के समक्ष आ गये।
तुलसीदास जी ने कहा (मधु मास-चैत्र मास यह सब (मासो=माह) में पुनीत है ऐसा सभी पुराणों में लिखा है) भगवान ने स्वयं कहा है कि ऋतु के कुसुमाकर वसन्त मैं हूँ (कुसुमाकर=वसंत,फुलवारी)
(अभिजित=इस नछत्र में तीन तारे मिल कर सिंघाड़े के आकर के होते है यह महूर्त ठीक मध्य समय आता है (अभिजित=विजयी) महूर्त लिखने का भाव यह है कि इस महूर्त में जन्म होने से मनुष्य राजा होता है) (हरिप्रीता=इस शब्द के अर्थ में मतभेद है? 1 साधारण अर्थ तो यह है जो हरी को प्रिय है इसी लिए भगवान सदा इसी महूर्त में अवतार लेते है 2 हरी=पुनर्वसु नछत्र प्रीता=प्रीति नामक योग में बाल्मीक और अध्यात्म रामायण में यह स्पष्ट है की राम अवतार सदा पुनर्वसु नछत्र में होता है यह अवतार का प्रधान नछत्र माना जाता है 3 हिरण कश्यप जो किसी से जीता नहीं जा सकता था उसे भगवान ने इसी महूर्त में मारा इससे इस महूर्त को हरी का प्रिय कहा। (लोक=लोग) (पावन काल= में जन्म कह कर जनाया की सबको पवित्र करेंगे) (मधु=शहद मदिरा, शराब,मकरंद,वसंत ऋतु,चैत )
पवित्र चैत्र का महीना,नवमी तिथि,शुक्ल पक्ष,और भगवान का प्रिय अभिजित मुहूर्त,अभिजीत मुहूर्त ठीक मध्य में होता है। दोपहर के समय न बहुत सर्दी,न धूप (गरमी)वह पवित्र समय सब लोकों को शांति देनेवाला है।
(सूत्र) मध्य दिवस माने सुख और दुख के बीच।जब आप सुख के साथ सुखी रहोगे और जब दुख के साथ दुखी रहोगे,तो हमको कभी भी आनंद प्राप्त नहीं होगा। जबकि आनंद (राम)तो मध्य में मिलता है।
(सूत्र) कृष्ण ने गीता का ज्ञान दोनों सेना के बीच में दिया था। महाभारत के युद्ध में अर्जुन का रथ न कौरव के पक्ष में न ही पांडव के बीच में था दोनों सेनाओं के बीचों बीच था। तब अर्जुन गीता का ज्ञान पाया था। (गीता माने कृष्ण का हृदय)
भगवत कृपा से अर्थ,धर्म,मोक्षादि की प्राप्ति तो साधारण बात है।
इसी कृपा के सहारे सन्त तुलसीदास जी जैसे परम भागवत महाकवि ने महान संकट झेलकर (भवसागर=संसार सागर ) से उद्धार करने के लिए श्री राम चरित मानस जैसे पावन सेतु का निर्माण किया।
प्रभु श्रीराम की कुंडली में महायोगों की भरमार है.दुनिया में आज तक किसी भी व्यक्ति की कुंडली में ऐसे योग नहीं बने हैं।
पर फिर भी भगवान के प्राकटय में (कई बेहतरीन योग फिर भी जीवन में इतना संघर्ष)क्यों ?
महर्षि वशिष्ठ से भरत जी ने पूछा प्रभु आप तो संसार के सबसे श्रेष्ठ मुनि व महा ज्ञानी हैं।
हमारे कुल गुरु है आपने राम के राजतिलक का ऐसा मुहूर्त कैसे निकाल दिया कि महाराज दशरथ की मृत्यु हुई,
राम वनवास गए,और पूरी अयोध्या चौपट हो गई।
वशिष्ठ जी ने भरत के माध्यम से हम सभी को सन्देश दिया कि हानि, लाभ, जीवन, मरन, जस, अपजस, किसी भी व्यक्ति के वश या हाथ में नहीं है।
(सूत्र)जब हमारे हाथ में कुछ है ही नहीं तो अहंकार किस बात का?(भावी=होनहार,प्रभु इच्छा)
वशिष्ठ जी खूब विचार कर कहा कि भावी तो अत्यंत प्रबल है यह तो होगी ही इसका कोई समाधान नहीं होता क्योंकि इन छह भावी पर (हरि इच्छा भावी बलवाना) कहा और मानस में घटित भी हुई हानि हुई अयोध्या वासियों को,
लाभ हुआ देवताओं और ऋषि मुनियों को,
जीवन मिला सुग्रीव और विभीषण को,
मरन हुआ रावण और निशाचरों का,
जस मिला भरत और लछ्मण को,
अपजस मिला कैकई और मंथरा को।
सुमंत्र जी ने महराज दशरथ जी से भी कहा-जन्म-मरण,सुख-दुख के भोग,हानि-लाभ,प्यारों का मिलना-बिछुड़ना,ये सब हे महराज !
काल और कर्म के अधीन रात और दिन की तरह स्वतः होते रहते हैं।इनको रोका नहीं जा सकता। (बरबस=न चाहते हुए भी,स्वतः)
जब सभी कुछ विधाता के हाथ है तो हमारे हाथ में है क्या?
हमारे हाथ में केवल और केवल कर्म है।
श्री कृष्ण ने कहा (कर्तव्य करो पर फल की आशा मत रखो)
पर जीव का स्वभाव है कि बिना फल (स्वारथ,लाभ) के कोई कर्म करता ही नहीं बाबा तुलसी ने सुन्दर शब्दो में व्याख्या की है!
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