रे त्रिय चोर कुमारग गामी। खल मल रासि मंदमति कामी॥
मोहि सम यह अनुभयउ न दूजें। सबु पायउँ रज पावनि पूजें।।
कबीर जी गुरु महिमा का तुलनात्मक वर्णन करते हुए कहा है कि ये पूरी धरती एक कोरे कागज के समान है, और जंगल की सारी लकड़ियां कलम हैं। सातों समुद्र का जल स्याही है लेकिन इन सब को मिलाकर भी ये गुरु की महिमा नहीं लिखी जा सकती अतः गुरु की महिमा को शब्दों में पिरो कर उसका वर्णन करना असंभव ही है। (बनराय=वनराज,जंगल) (मसि=स्याही)
चकोर चंद्रकिरणों पीकर जीवित रहता है। चकोर चंद्रमाका (एकांत= अकेला) प्रेमी है और रात भर उसी को एकटक देखा करता है। अँधेरी रातों में चद्रमा और उसकी किरणों के अभाव में वह अंगारों को चंद्रकिरण समझकर चुगता है।चंद्रमा के प्रति उसकी इस प्रसिद्ध मान्यता के आधार पर कवियों द्वारा प्राचीन काल से,अनन्य प्रेम और निष्ठा के उदाहरण स्वरूप चकोर संबंधी उक्तियाँ बराबर की गई हैं। गुरु मूरति मुख चंद्रमा – गुरु की मूर्ति जैसे चन्द्रमा,और सेवक नैन चकोर – शिष्य के नेत्र जैसे चकोर पक्षी।चकोर पक्षी चन्द्रमा को निरंतर निहारता रहता है, वैसे ही हमें,गुरु मूरति की ओर, गुरु ध्यान में और गुरु भक्ति में, आठो पहर रत रहना चाहिए। (निरखत, निरखना= ध्यान से देखना)
जो मनुष्य, गुरु की आज्ञा नहीं मानता है, और गलत मार्ग पर चलता है,वह, लोक और वेद दोनों से ही, पतित हो जाता है , वेद अर्थात धर्म दुख और कष्टों से, घिरा रहता है।
जो व्यक्ति सतगुरु की शरण छोड़कर और उनके बताये मार्ग पर न चलकर, अन्य बातो में विश्वास करता है, उसे जीवन में दुखो का सामना करना पड़ता है और उसे नरक में भी जगह नहीं मिलती।
कबीर शीतल संत जन, नाम सनेही होय ।।
विधाता ने इस जड़ चेतन विश्व को गुण दोषमय रचा है, किन्तु संत रूपी हंस दोष रूपी जल को छोड़कर गुण रूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं। (सूत्र) विषय-विकार रुपी वारि का त्याग कर ईश्व रीय गुन रुपी दूध ही जिसका जीवन हो गया हो, वे संत हंस कहलाते है! जैसे मछली को जल से बाहर निकाल कर रखे तो क्या वो जीवित रहेगी? इसी प्रकार हंस वे संत है जो ईस्वरीय गुन के विपरीत जीवत नहीं रह सकते! इस ऊंचाई पर साधना के पहुंचने पर आनंद ही आनंद है मस्ती ही मस्ती है! (पय=दूध) (परिहरि= त्यागकर) (विकार= दोष) (करतार= सृजन करनेवाला, सृष्टिकर्ता,परमेश्वर) (बारि = जल)
संत शिरोमणि तुलसीदास जी राम जी के अनन्य सेवक ने हनुमान चालीसा के अंत में हनुमान जी से मांगा तो क्या माँगा– जैसे गुरु अपने शिष्य पर कृपा करता
है वैसी कृपा कर दो क्योकि इस जगत में सर्व श्रेष्ठ कृपा गुरु की शिष्य पर है।
हनुमान चालीसा की शुरुवात भी गुरु वंदना से होती है।
गरुड़ जी किसी ने भी भुसुंडि जी से कहा– यदि किसी के पास ब्रह्माजी और शिवजी जैसा ज्ञान और शक्ति भी हो तो भी यदि गुरु का सान्निध्य नहीं है तो इस भवनिधि,संसार–सागर से तरना असम्भव है। (बिरंचि=ब्रह्माजी)
स्वयं परम ब्रह्म श्रीराम जी को देख लीजिए कि जिनके चरण कमलों की प्राप्ति हेतु बड़े बड़े योगी वैरागी विविध प्रकार के जप, योग आदि करते हैं वही प्रभु दोनों भाई गुरु विस्वामित्र के पद कमलों पर लोट पोट हो रहे है। (सरोरूह=कमल) (लागी=कारण, हेतु, निमित्त,लिए)
यह सब भगवान ने किया।वही सब भगवान ने स्वयं विभीषण से कहा–
वही भगवान ने स्वयं लंका विजय के बाद अपने सभी सखा से कहा–
गुरु वशिष्ठ कुल पूज्य हमारे। इन्ह की कृपाँ दनुज रन मारे॥
राजा दशरथ तो पूर्व जन्म में मनु और शतरूपा थे जब भगवान का पुत्र रूप में प्राप्त होना पहले से तय था तब दशरथ जी चौथे पन तक निसंतान रहने का मुख्य कारण दशरथ जी संतान की लालसा से कभी गुरु के पास गए ही नहीं।
और जब गुरूजी के पास गए तो वसिष्ठ जी ने कहा-
वही तो महाराज दशरथ ने कहा–
गुरुपद–प्रीति प्रश्न यह है अपूर्णता को पूर्ण करने के लिए व्यक्ति सांसारिक उपायों का आश्रय ले, जैसा कि अधिकांश व्यक्ति लेते हैं या अपूर्णता की अनुभूति होने पर गुरु का आश्रय लें। महाराज श्री दशरथ इस स्थिति में आ गए हैं कि जिसमें
उन्होंने अभाव की पूर्ति के लिए गुरुजी का आश्रय लिया साधक अगर गुरु के पास सांसारिक कामनाओं को लेकर जाय और गुरु केवल उसकी उन कामनाओं को ही पूर्ण कर देतो यह गुरु का गुरुत्व नहीं है। अपितु गुरु का गुरुत्व यह है कि वह सांसारिक कामनाओं की पूर्ति करके साधक के अन्तःकरण में ईश्वर के प्रति अनुरागउत्पन्न कर दे। वही कार्य हनुमान जैसेदास या संत की कृपा से संभव है!
मोहि सम यह अनुभयउ न दूजें। सबु पायउँ रज पावनि पूजें।।
मोहि सम यह अनुभयउ न दूजें। सबु पायउँ रज पावनि पूजें।।
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