जय सच्चिदानंद- प्रभु ने यह वेश रावण वध के लिए रखा है इसलिए शिव जी स्वामी और सखा भाव से आशीर्वाद देते है आपकी जय अर्थात विजय हो। जग पावन-जगत राक्षस के उपद्रवों से अपावन हो गया है अतः जगत को पावन करने के लिए ही आपने अवतार लिया आप तो परम धाम के वासी है जगत को आनंद देने के लिए आप विचर रहे हो।
पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता-जैसे जैसे प्रभु की छवि और उनके चरित्रों का शंकर जी को स्मरण होता है वैसे वैसे शंकर जी आनंदित होते है पर इस दशा को देखकर सती जी को भारी संसय हो जाता है।
सती को संसय हुआ की शंकर जी तो जगत पूज्य जगदीश्वर है देवता,मनुष्य मुनि सभी शंकर जी को माथा नवाते है पर शिव जी ने एक राजकुमार को सच्चिदनन्द परम धाम कहकर प्रणाम किया।
सतीजी- राम जी ज्ञान के भंडार है, लक्ष्मीपति और असुरों के शत्रु भगवान विष्णु ने देवताओं के हित के लिए नर तन धारण किया वे रामजी भी शिवजी की तरह सर्वज्ञ होंगे, अज्ञानी की तरह स्त्री को क्यों खोजेंगे? अतः सती जी के मन में संसय हुआ(इव=समान, नाई ,तरह, सदृश, तुल्य) (अग्य=अज्ञानी, जिसे ज्ञान या समझ न हो) (अपारा=असीम बेहद) (प्रबोध=बोध ,ज्ञान)
शंकर जी हे सती जी! जिनकी कथा का अगस्त्य ऋषि ने गान किया और जिनकी भक्ति मैंने मुनि को सुनाई, ये वही मेरे इष्टदेव श्री रघुवीर जी हैं, जिनकी सेवा ज्ञानी मुनि सदा किया करते हैं।
शंकर जी हे सती जी!अज्ञानी मूर्ख मनुष्य अपना भ्रम तो समझता नहीं, उलटे मोह का आरोपण राम जी पर करता है जैसे आकाश में मेघ पटल देख कर कुविचारी मनुष्य कहता है कि मेघो ने सूर्य को ढक लिया। (जड़ =मुर्ख प्राणी जीव मनुष्य) (पटल=परदा) (झापना=ढक लेना ,छिपा देना )(जथा =यथा=जैसे,जिस तरह से,पहले जैसा)
शंकर जी हे सती जी! श्री राम जी सूर्य है ,मोह रात्रि है ,और सूर्य के यहाँ रात्रि कभी होती ही नहीं वहाँ तो विज्ञानरूपी प्रातःकाल भी नहीं होता (अज्ञानरूपी रात्रि हो तब तो विज्ञानरूपी प्रातःकाल हो; भगवान तो नित्य ज्ञान स्वरूप हैं)। सच्चिदानन्द मुख्यतः तीन शब्दों व पदों को जोड़कर बनाया गया है जिसमें पहला पद है सत्य, दूसरा है चित्त और तीसरा पद आनन्द है। यह ईश्वर का स्वाभाविक स्वरूप अनादि काल से है व अनन्त काल अर्थात हमेशा ऐसे का ऐसा ही रहेगा, इसमें कोई परिवर्तन कभी नहीं होगा, देश-काल-परिस्थितियों का इस पर कोई प्रभाव नहीं होगा। (दिनेसा=सूर्य) (लवलेसा=अत्यंत अल्प मात्रा,नाममात्र का परिमाण) (बिहाना= छोड़ना,त्यागना)
यद्यपि भवानीजी ने प्रकट कुछ नहीं कहा,पर अन्तर्यामी शिवजी सब जान गए। वे बोले- हे सती! सुनो, तुम्हारा स्त्री स्वभाव है। ऐसा संदेह मन में कभी न रखना चाहिए।
क्योकि ऐसा संशय हृदय में लाने से ज्ञान -वेराग्यादि गुण नष्ट हो जाते!यथाः
शिव हे सती जी से कहते है बिना परीक्षा के ‘अति संदेह”नहीं जाता! (किन=क्यों नहीं)
क्योंकि बिना जाने किसी पर विश्वास नहीं जमता और बिना विश्वास के प्रीति नहीं होती। भक्ति का आधार ही प्रेम है! और प्रेम कैसा जिसमे कोई भी हेतु ना हो अगर कोई हेतु है तो वह प्रेम नहीं होता! (परतीती=विश्वास)
इसलिए हे सती
परीक्षा लेने की इच्छा तो थी पर बिना स्वामी की आज्ञा के बिना कैसे ले जैसे ही शंकर जी ने कहा तुरंत सती चल दी।
पं०रामकुमारजी- प्रभु की परीक्षा लेने के लिये उनके सम्मुख जाना विपरीत विधि’ है दूसरा भाव यदि सती वहाँ जाकर कोई विपरीत बात करे तो भलाई नहीं। तीसरे हम इनके पति हैं। पतिव्रता होकर भी हमारे बचन से प्रीति नहीं है, इसी से बिधाता विपरीत हैं।उत्तम शिक्षा को मान लेना “उत्तम (कल्याणकारी) विधि? है और उस पर ध्यान न देना, उसे न मानना विपरीत विधि? है। यथाः
मन में अनुमान करना ही तर्क है और तर्क पर तर्क होना ही शाखा बढ़ाना है ज्यों ज्यों विचार करेंगे तर्क पर तर्क बढ़ता ही जायेगा मन सोच में डूब जायेगा और कुछ भी हासिल नहीं होगा भक्त जन असमंजस की दशा में तर्क वितर्क ना करके प्रभु पर छोड़ देते है और प्रभु की इच्छा को मुख्य मानते है (साखा =बुद्धि के विचारों का विस्तार)
क्योकि हरि भजन ही माया से बचने का एक मात्र उपाय है।
रामजी ने जान लिया कि सतीजी को दुख हुआ, तब उन्होंने अपना कुछ प्रभाव प्रकट करके उन्हें दिखलाया। सतीजी ने मार्ग में जाते हुए यह कौतुक देखा कि रामजी सीताजी और लक्ष्मणजी सहित आगे चले जा रहे हैं। (इस अवसर पर सीताजी को इसलिए दिखाया कि सतीजी श्री राम के सच्चिदानंदमय रूप को देखें, वियोग और दुख की कल्पना जो उन्हें हुई थी, वह दूर हो जाए )। (वृष=बैल =धर्म ) (बृषकेतू=धर्म की ध्वजा) (केतु=पताका, झंडा)
तब उन्होंने पीछे की ओर फिरकर देखा, तो वहाँ भी लक्ष्मणजी और सीताजी के साथ राम जी सुंदर वेष में दिखाई दिए। वे जिधर देखती हैं, उधर ही प्रभु राम जी विराजमान हैं और सुचतुर सिद्ध मुनीश्वर उनकी सेवा कर रहे हैं।
सतीजी ने अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु देखे, जो एक से एक बढ़कर असीम प्रभाव वाले थे। (उन्होंने देखा कि) भाँति-भाँति के वेष धारण किए सभी देवता रामजी की चरण वन्दना और सेवा कर रहे हैं।
सतीजी ने जहाँ-जहाँ जितने रघुनाथ जी देखे, शक्तियों सहित वहाँ उतने ही सारे देवताओं को भी देखा। संसार में जो चराचर जीव हैं, वे भी अनेक प्रकार के सब देखे।
उन्होंने देखा कि अनेकों वेष धारण करके देवता प्रभु राम जी की पूजा कर रहे हैं, परन्तु राम जी का दूसरा रूप कहीं नहीं देखा। सीता सहित रघुनाथ जी बहुत से देखे, परन्तु उनके वेष अनेक नहीं थे।
सब जगह वही रघुनाथजी, वही लक्ष्मण और वही सीता जी- सती ऐसा देख कर बहुत ही डर गईं। उनका हृदय काँपने लगा और देह की सारी सुध-बुध जाती रही। वे आँख मूँदकर मार्ग में बैठ गईं।
फिर आँख खोलकर देखा, तो वहाँ दक्षकुमारी (सतीजी) को कुछ भी न दिख पड़ा। तब वे बार-बार राम जी के चरणों में सिर नवाकर वहाँ चलीं, जहाँ शिवजी थे।
कि मैंने शंकरजी का कहना न माना और अपने अज्ञान का राम जी पर आरोप किया। अब जाकर मैं शिवजी को क्या उत्तर दूँगी? (यों सोचते-सोचते) सतीजी के हृदय में अत्यन्त भयानक जलन पैदा हो गई।
जब पास पहुँचीं, तब शिवजी ने हँसकर कुशल प्रश्न करके कहा कि तुमने रामजी की किस प्रकार परीक्षा ली, सारी बात सच-सच कहो।
सतीजी ने रघुनाथजी के प्रभाव को समझकर डर के मारे शिवजी से छिपाव किया और कहा- हे स्वामि! मैंने कुछ भी परीक्षा नहीं ली, (वहाँ जाकर) आपकी ही तरह प्रणाम किया।
आपने जो कहा वह झूठ नहीं हो सकता, मेरे मन में यह बड़ा (पूरा) विश्वास है। तब शिव जी ने ध्यान करके देखा और सतीजी ने जो चरित्र किया था, वह सब जान लिया।
फिर राम जी की माया को सिर नवाया, जिसने प्रेरणा करके सती के मुँह से भी झूठ कहला दिया। सुजान शिवजी ने मन में विचार किया कि हरि की इच्छा रूपी भावी प्रबल है।
सती जी ने सीता जी का वेष धारण किया, यह जानकर शिवजी के हृदय में बड़ा विषाद हुआ। उन्होंने सोचा कि यदि मैं अब सती से प्रीति करता हूँ तो भक्तिमार्ग लुप्त हो जाता है और बड़ा अन्याय होता है। (बिषाद=दुख)
शिव माता पार्वती से कहते है रामकथा कलियुग रूपी वृक्ष को काटने के लिए कुल्हाड़ी है। हे गिरिराजकुमारी! तुम इसे आदरपूर्वक सुनो।
(कर तारी=हाथ की ताली दोनों हथेलियों के परस्पर आघात का शब्द) (कलि= कलयुग,कलह, पाप,मलिनता) (कुठारी= कुल्हाड़ी)
राम कथा को “करतारी “जनाया कि सबको सुलभ है ,कयोंकि हाथ सब के होते है ताली बजाना अपने अधीन है “करतारी ” अपने पास है ,मानो कामधेनु अपने घर में बंधी है सभी घर बैठे सुख प्राप्त कर सकते है ,दूसरा भाव वक्ता और श्रोता दोनों सुन्दर अर्थात ज्ञानी विज्ञानी हो जब ऐसे श्रोता वक्ता परस्पर राम कथा कहते सुनते है तब उनके शब्द सुनकर सब जीवो के संसय रुपी पक्षी उड़ जाते है ये उड़ कर संसय रुपी पेड़ पर बैठते है विटप कुठारी इन पेड़ो को कटती है जिससे संसय रुपी पक्षीयो का अड्डा समाप्त हो जाता है।
सादर सुनु ॥ का भाव राम चरित आदर पूर्वक सुनना चाहिए चारो वक्ताओं ने अपने अपने श्रोताओ को सादर सुनने के लिए बारबार सावधान किया है दूसरा भाव “सादर सुनु” पाप का नाश तथा संसय की निवृति एवं बुद्धि की मलिनता का सर्वथा अभाव तभी होगा जब कथा सादर सुनी जाएगी और सादर श्रवण तभी होगा जब उसमे श्रद्धा हो कथा औषधि है,श्रद्धा उसका अनुपान है। (अनुपान=दवा के साथ या बाद ली जानेवाली वस्तु)यथा
इसी से राम कथा सादर सुनने की परम्परा है। यदि कथा को आदर पूर्वक नहीं सुनते तो वह ना सुनने के बराबर ही है। (सादर=आदरपूर्वक)
तुलसी बाबा ने अपने मन को सुनाई-
यग्वालिकजी ने भरतद्वाज जी से कहा-
भुशुण्ड जी ने गरुण जी से कहा-
शिवजी ने पार्वतीजी से कहा- यहाँ शिवजी ने “सादर सुनु गिरिराजकुमारी” कहा
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