लघुता ते प्रभुता मिले, प्रभुता ते प्रभु दूरी।
तुलसीदास जी ने कहा हे रघुबीर! मेरे समान कोई दीन नहीं है और आपके समान कोई दीनो का हित करने वाला नहीं है। ऐसा विचार कर हे रघुवंशमणि! मेरे जन्म मरण के भयानक दुख का हरण कर लीजिये।(बिसम= विकट,भीषण, प्रचंड भयंकर विकट) (भव भीर=जन्म मरण)
अपने को जो बड़ा मानता है वह धार्मिक नहीं है वह तो धर्म से दूर खड़ा है, क्योंकि धार्मिक व्यक्ति स्वयं को सबसे छोटा मानते हुए विनम्रता, सहजता, सरलता धारण किए होता है। इस प्रकार जीवन को लघु बनाने का प्रयास करना चाहिए, लघुता से ही प्रभुता की प्राप्ति का मूल मंत्र है।
तुलसीदास जी ने कहा-मुझको अपना दास जानकर कृपा की खान आप सब लोग मिलकर छल छोड़कर कृपा कीजिए। मुझे अपनी बुद्धि-बल का भरोसा नहीं है । इसीलिए मैं सबसे विनती करता हूँ। (छोह= कृपा,प्रेम) (कृपाकर= कृपा+आकर= कृपा की खानि) दूसरा (कृपा+कर= कृपा करनेवाले) (किंकर= दास, सेवक नौकर) (अनन्य= अतुलनीय, जिसकी कोई तुलना ना हो)
सब जगत को सियाराम मय मानकर वंदना की और अपने में किंकर, भाव रखा यह गोस्वामी जी का अनन्य भाव है।
आगे अपने को संतो का बालक कहा,
तुलसीदास जैसा महान संत जिसके माध्यम से सरल भाषा में राम चरित मानस की रचना संवत 1631 में की थी मानस पूरे समाज को मिली और उसी मानस से आज के इस घोर कलिकाल में लाखों लोगो का गुजरा हो रहा है और आगे होता भी रहेगा क्या कह रहे है? मैं न तो कवि हूँ, न वाक्य रचना में ही कुशल हूँ, मैं तो सब कलाओं तथा सब विद्याओं से रहित हूँ। इनमें से काव्य सम्बन्धी एक भी बात का ज्ञान मुझ में नहीं है यह मैं कोरे कागज पर लिखकर (शपथपूर्वक)सत्य-सत्य कहता हूँ।
वेजनाथ के अनुसार कि अपने मुँह अपनी बड़ाई करना (दूषण=दोष) है। अपनी बड़ाई करने वाला लघुत्व को प्राप्त होता है। अतः यहाँ यह चतुरता गोसाई जी ने की काव्य के सर्वाग प्रथम गिना आए, फिर अंत में कह दिया कि हममें एक भी काव्य गुण नहीं हैं। जैसे पूजन कर अंत में अपराध निवारण हेतु प्रार्थना की जाती है। यहाँ वैसे ही समझिये।
गोस्वामी जी सब गुणों से पूर्ण होते हुए भी ऐसा “कवि न होउँ” कह रहे है इन्होने तो विनम्रता की हद ही पार कर दी यह कार्पण्य यानि दीनता अथवा चित का गर्वहीन भाव को कार्पण्य शरणागति कहते है! जैसे हनुमानजी भक्ति के पूर्ण ज्ञाता हैं, फिर भी शपथ करके कहा है,हनुमानजी ऐसा कहकर अपने हृदय की निष्कपटता बताते है। यथा
आप यह यथार्थ भी कह रहे हैं!
राम प्रताप क्या है?
जनकपुर के दूतों ने राजा दशरथ कहा- संसार में चन्द्रमा को जस रूप में तथा सूर्य को प्रताप रूप में जाना जाता है पर राम जी के सामने चन्द्रमा फीके और सूर्य ठंडे लगते है जयंत और मारीच भी राम के प्रताप को जानते है (सायक=तीर, बाण) (संधाना=संधान=धनुष पर बाण चढ़ाना)
राम प्रताप को श्री अंगद जी ने और श्री शंकर भगवान ने भी कहा (पाषान= पाषाण= पत्थर,शिला)
तुलसीदास जी ने कहा- मेरी बुद्धि तो अत्यन्त नीची है और चाह बड़ी ऊँची है, चाह तो अमृत पाने की है, पर जगत में जुड़ती छाछ भी नहीं। जैसे बालक जब तोतली भाषा बोलते है, तो उसके माता-पिता प्रसन्न मन से सुनते हैं। (मुदित=प्रसन्न)
तुलसीदास जी ने कहा:-कीर्ति, कविता, और सम्पत्ति, वही उत्तम है, जो गंगाजी की तरह सबका हित करने वाली हो। श्री रामजी की कीर्ति तो बड़ी सुंदर (सबका अनन्त कल्याण करने वाली ही) है, परन्तु मेरी कविता भद्दी है। यह असामंजस्य है (अर्थात इन दोनों का मेल नहीं मिलता) इसी की मुझे चिन्ता है। (भनिति=कविता, कहावत, लोकोक्ति) (अँदेसा=शक, संदेह, संशय, खटका, अविश्वास) (भदेसा= भद्दा, कुरूप,बुरा)
तुलसीदास जी ने कहा:-पशु, पक्षी, देवता, मनुष्य, असुर समेत जितने श्री रामजी के चरणों के उपासक हैं, मैं उन सबके चरणकमलों की वंदना करता हूँ, जो श्री रामजी के निष्काम सेवक हैं। (जे बिनु काम= निष्काम)
तुलसीदास जी ने कहा- जो रामजी के भक्त कहलाकर लोगों को ठगते हैं, जो धन (लोभ), क्रोध और काम के गुलाम हैं और जो (धींगाधींगी= बदमाशी,उपद्रव) करने वाले, धर्मध्वजी (धर्म की झूठी ध्वजा फहराने वाले दम्भी) और कपट के धन्धों का बोझ ढोने वाले हैं, संसार के ऐसे लोगों में सबसे पहले मेरी गिनती है। (भगत कहाइ- ऐसे लोगों को स्वयं को भक्त कहलाने की बड़ी इच्छा होती है) और जो वास्तव में भक्त हैं जैसे भरत जी, हनुमानजी आदि , ये कभी अपने को भक्त कहते ही नहीं हैं और न उन्हें किसी से कहलाने की इच्छा रहती है। हनुमानजी जामवंत जी तो बंदर भालू के वेष में हैं लेकिन उनके अंदर साधुता का वास है।(बंचक= ठग) (कंचन= धन,संपत्ति) (कोह= क्रोध,गुस्सा) (किंकर= गुलाम, दास, सेवक, नौकर) (रेख= गिनती) (धिग= घिकू=धिक्कार) (धरम ध्वज= धर्म का आडंम्बर खड़ा करके स्वार्थ साधन करने वाला पाखंडी) (धंधक= काम-धंथे का आडंम्बर,जंजाल)
“तिन्ह महँ प्रथम रेख” अर्थात जबसे कलियुग शुरू हुआ तब से आज तक जिनका जन्म हुआ “जग’ कहने का भाव यह है कि जगत भर में जितने अधम हैं, उन सबों में प्रथम मेरी गिनती है। पुनः,भाव कि’ सत्ययुग में देत्य खल, त्रेता में राक्षस खल और द्वापर में दुर्याधन आदि जो खल थे, उनको नहीं कहते। जो कलियुग में जन्मे उनमें से अपने को अधिक कहा। क्योंकि कलि के खल तीनों काल के (खल=दुष्ट, दुर्जन) से अधिक हैं।
एक बार नाभा दास जी के यहाँ वैष्णवों का भंडारा था जिसमें गोस्वामी जी बिना बुलाए जा पहुँचे। सबसे दूर एक किनारे बैठ गए। परसने के समय कोई पात्र नहीं था जिसमें गोस्वामी जी को खीर दी जाती। यह देखकर गोस्वामी जी एक साधु का जूता उठा लाए और बोले, ‘इससे सुंदर पात्र मेरे लिए और क्या होगा?’ इस पर नाभा जी ने उठकर उन्हें गले लगा लिया और गद्गद हो गए।आज के समय में ऐसा दीन हीन निष्कपट विनम्र सेवक मिलना मुश्किल ही नहीं असंभव है।
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