रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा।।

रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा।।

रावनु रथी बिरथ रघुबीरा

तुलसी का धर्म रथ-संसार में विजय प्राप्त करने के लिए धर्म और आचरण एक  निर्णायक तत्त्व हैं। (विजय= सफलता) सत्ता, संसाधन और छल-कपट, से कभी भी नहीं मिलती। विजय के लिए क्या आवश्यक है उसका का वर्णन तुलसीदास ने भगवान राम के मुख से कराया है। इसे विभीषण गीता भी कहते है।


रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा।।

समर युद्ध में बराबरी के विचार से विभीषण ने रथ जरूरी समझा, क्योकि विभीषण रामजी की सेना का समर मंत्री भी है स्वर्ग के देवता भी विभीषण के विचार से सहमत है। 

देवन्ह प्रभुहि पयादें देखा। उपजा उर अति छोभ बिसेषा।।
सुरपति निज रथ तुरत पठावा। हरष सहित मातलि लै आवा।।

रघुनाथ जी ने भी विरोध नहीं किया । 

तेज पुंज रथ दिब्य अनूपा। हरषि चढ़े कोसलपुर भूपा।।

इससे वानर सेना में उत्साह बड़ा।  

रथारूढ़ रघुनाथहि देखी। धाए कपि बलु पाइ बिसेषी।।

रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा।।

अधिक प्रीति मन भा संदेहा। बंदि चरन कह सहित सनेहा।।

(सूत्र) अधिक प्रेम का तो स्वभाव है की वह हमेशा अपने प्रेमी की कुशलता ही चाहता है अतः शंका होना स्वभाविक है प्रभु की माधुर्य लीला अति विचित्र है यह लीला इतनी प्रबल है कि प्रभु के ऐश्वर्य को दबा देती है ऐसा नहीं है कि विभीषण जी रामजी के ऐश्वर्य को जानते नहीं है।  उन्होंने तो रावण से स्वयं कहा भी (भुवनेस्वर=लोकों का स्वामी, ईश्वर) ( अनामय= रोगरहित, दोषरहित) (अज=अजन्मा, ईश्वर) (अजित= जिसे कोई जीत न सका हो) (अनादि= नित्य, जिसका आदि या आरंभ न हो)

तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर काला।।
ब्रह्म अनामय अज भगवंता। ब्यापक अजित अनादि अनंता।।

विभीषण को विजय में कोई संदेह भी नहीं है तभी तो विभीषण ने रावण से कहा भी
(खोरि=दोष) (सत्यसंकल्प= जो विचारे हुए कार्य को पूरा करे, दृढ़संकल्प,सर्वसमर्थ)

रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि।
मै रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि।।

पर आज विभीषण भी प्रभु के माधुर्य में राम जी के ऐश्वर्य को भूल गये। निषादराज और विभीषण दोनों ही रामजी की माधुर्य लीला को देख कर उसमें इतने मगन हो गए की रामजी के ऐश्वर्य को भूल ही गए और रामजी से अत्यंत प्रेम करने लगे निषादराज को लखनलाल ने समझया और विभीषण को रामजी समझया इन दोनों को प्रसंग को  लछ्मण गीता और राम गीता के नाम से जाना जाता है।   

नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना। केहि बिधि जितब बीर बलवाना।।
सुनहु सखा कह कृपानिधाना। जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना।।

तुम मेरे भक्त और सखा हो अतः इस रहस्य को जानने के अधिकारी हो, सुनो विभीषण  रावण के पास जो  रथ तुमको दिखाई दे रहा है वह है भौतिक रथ और विजय कभी भी भौतिक रथ से नहीं होती विजय  तो हमेशा आध्यात्मिक रथ से होती है और वह तो भीतर है आज के समय भी विजय सेना और सामग्री पर नहीं होती विजय तो बुद्धि ,चरित्र ,आत्मबल, साहस पर होती है विस्वामित्र का शस्त्र बल वसिष्ठ जी के आत्म बल से हार गया था। (स्यंदन =रथ) (त्राण= रक्षाका साधन, कवच) 

सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥

सौरज और धीरज दोनों धर्म रथ के (चक्र =पहिया) और गति दाता है शूर और धीर रण में पीछे नहीं हटते और ना ही अधीर होते है! (भाव कि जैसे पहिये के बिना रथ नहीं चलता वैसे ही शौर्य और धैर्य के बिना धर्मरथ नहीं चल सकता) धर्मरथ के पहिया कभी भी पीछे नहीं हटता। राम जी का भाव कि हम जिस रथ पर सवार हैं वह पीछे तिल भर किसी के हटाने से नहीं हटेगा। अर्जुन ओर कर्णादि के रथ की तरह यह रथ पीछे नहीं हटेगा। अपने स्वभाव को धर्म के अनुकूल रखना शूरता है और चाहे कितना भी विघ्न या दुख हो पर धर्म से नहीं हटते ये धीरता ही है ।  महाभारत में बताया है कि ‘सुख या दुख प्राप्त होने पर मन में विकार ना होना ही धैर्य है सदा सत्य बोलने, सदा क्षमा करने तथा हर्ष भय और क्रोध का परित्याग करने से धैर्य की प्राप्ति होती है। बिदुर जी से युधिष्टिर बोले जिस आत्मनदी का संयम पवित्र तीर्थ है, सत्य जल है, शील तट हैं, और दया तरंग  है, हे पाण्डु पुत्र युधिष्टिर! उसी नदी में स्नान करो अंतरात्मा कभी भी  जल से  शुद्ध नहीं होती है। सत्य और सील मुख (बाणी) और नेत्र से जाने जाते है! ये दोनों अंग शरीर में ऊँचे है। (सौरज=शौर्य= शूरता=पराक्रम) (शील=चरित्र की दृढ़ता =सदवृत्ति)

सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥

शौर्य का अर्थ बल नहीं है बाली और रावण में बल कम नहीं है तो क्या दोनों को बलशाली माने? (सूत्र) शूरवीर तो वो है जो धर्म रक्षा के लिए अपने प्राणों का त्याग दे जो मनुष्य धर्मात्मा तो है यदि उनमें शौर्य एवं धैर्य का आभाव है तो उनका धर्म पंगु है।

देह प्रान तें प्रिय कछु नाही। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माही।।

विजय के लिए शौर्य और धैर्य दोनों आवश्यक हैं, केवल एक हो तो जय न होंगी। आपातकाल में धीरज और धर्म की परीक्षा होती है।

धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी।।

सत्य;को दृढ़ ध्वजा कहने का भाव कि-सत्य सब संत धर्मो मे श्रेष्ठ है, इससे बड़ा दूसरा धर्म नहीं।यह सब धर्मो का मूल है। ‘सत्य’ ही समस्त उत्तम (सुकृतों=पुण्यों) की जड़ है। यह बात वेद-पुराणों में प्रसिद्ध है और मनुजी ने भी यही कहा है। यथा-

धरमु न दूसर सत्य समाना। आगम निगम पुरान बखाना।।
सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु गाए॥

“शील” महाभारत में बताया-की धर्म, सत्य, सदाचार बल और लक्ष्मी ये सब शील के ही आधार पर रहते है। शील प्राप्ति के उपाय भी रामजी ने बताये ! मन, वचन, कर्म से किसी से भी द्रोह ना करे! सब पर दया करे शक्ति अनुसार दान देवे! यही शील का स्वरुप है जिस तरह जिस काम के करने से मानव समाज में प्रसंसा हो वह काम उसी तरह से करना चाहिए। शीलवान कौन है? जो दीन हीन मलिन पापी दरिद्र कैसा भी अपराधी सामने आवे उसपर कृपा कर उसका हित करे एवं दोषों को ना देखे वह शीलवान है पर महराज आज शीलवान कौन है ? पर महराज आज समाज में सामान्य बात है, कि संपन्न व्यक्ति निर्धन का तिरस्कार करता है और शिक्षित व्यक्ति  अनपढ़ की उपेक्षा करता है। 

बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे॥

बल बिबेक दम परहित घोरे। बल, बिबेक, दम, परहित, ये धर्म रथ के चार घोड़े है ! जो क्षमा, कृपा, और समता रुपी डोरी से रथ में जोड़े गए है ! बल का अभिप्राय आत्मबल से है विवेक का अभिप्राय सत्य और असत्य को जान कर सत्य को ग्रहण करना विवेक है। असत्य माने जिसकी सदा स्थिति नहीं है वह असत्य है पर सत्य तो वह है जिसका कभी नाश नहीं होता,  रथ मे दो घोड़े आगे और दो पीछे जोते जाते हैं। श्री जानकी दास का भाव तीन रस्सियों से चार घोड़े कैसे बांधते है ?  उत्तर-रथ में दो घोड़े आगे और दो उनके पीछे हैं। आगे के दो घोड़े दो रस्सियों से बांधते  हैं और उनके पीछे के दो घोड़े एक रस्सी में  बांधते हैं । आगे के घोड़े दहिने और बायें फेरे जाते हैं, पीछे वाले उनके अधीन चलते हैं, उनको मुरकाना वा फेरना नहीं पड़ता। यहाँ बल और परहित आगे के घोडे हैं। क्षमा रूपी रस्सी से बल बंधा है और कृपा से परहित; क्योंकि बल क्षमा के अधीन, और परहित कृपा के अधीन है। विवेक और दम पीछे के घोड़े हैँ, ये समता-रूपी रस्सी मे बधे हैँ यहाँ बल का अर्थ आत्मबल से है! पं० विजयानन्द त्रिपाठी जी का मत है निर्बल या अविवेकी पुरुष क्षमा नहीं कर सकता। जहाँ क्षमा है वहाँ बल और विवेक अवश्य हैं।  इसी प्रकार जहाँ कृपा नहीं है वहाँ इन्द्रिय दमन या परहित का अभाव है। बिना इन्द्रियदमन के मनुष्य दयावीर नहीं हो सकता परहित-निस्वार्थ दूसरे के साथ भलाई करना परहित है।रस्सी से घोड़े अपने वश में रहते है वैसे ही क्षमा कृपा से बल और विवेक अपने वश में रहते है रस्सी भी तीन डोरी से बनती है इस कारण क्षमा कृपा समता तीन कहे गए है।  यथाः 

पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥
पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया॥

(समता की परिभाषा)= शत्रु मित्र मान अपमान को एक समान मानना भागवत गीता में भी कहा गया है राग द्वेष काम क्रोध को मिटा कर स्वयं में प्रिय मित्र और शत्रु में समानता का भाव रखे महराज आज के समय में असंभव है।

सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती। सरल सुभाउ सबहि सन प्रीति॥
ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना॥

(ईस = ईश =शंकर) रथ सारथी के अधीन है तथा घर्मरथ शंभु भजनाधीन है। क्योंकि शिवजी धर्म के मूल हैं, देव दानव से भी  दुर्जय जिसकी लंका का (कोट =दुर्ग) है  और जो रावण स्वयं  इन्द्र, ब्रह्मा  और विष्णु से भी अजेय है उसे आप बिना शंकर की कृपा के कैसे मार सकते हैं? ईश्वर का भजन चतुर सारथी है। वैराग्य ढाल है और संतोष दो धार खंडक है! ईस भजन को सारथी कहकर स्वयं रामजी ने स्पष्ट कर दिया कि जीव को भगवत भजन ही करना चाहिये  समस्त सेना सेनानी सशस्त्र एवं रथ के नष्ट हो जाने पर भी अगर सारथी सुजान चतुर है तो वह रथी की रक्षा करता है ठीक इसी तरह समस्त साधनों के खंडित हो जाने पर भी अगर  साधक का भजन चल रहा है तो वह साधक संसार में पतित नहीं होता वह संसार रूपी रिपु को पार कर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है सारथी रथ को स्वामी के अनुकूल चलता है उसे लक्ष्य पर पहुंचता है और सब काल में रथी की सुरक्षा करता है ठीक इसी तरह ईश्वर का भजन साधक की रक्षा करता है।  (सुजान=समझदार, चतुर ,कुशल, निपुण) (ईस= ईश =शंकर)
रामजी ने तो स्वयं ही कहा है।

औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि।
संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि॥

जो ईश्वर का भजन करता है समय पड़ने पर स्वयं ईश्वर उसकी सहायता करता है। वह सुजान है, उससे कहना नहीं पड़ता, वह स्वयं ही जानकर रक्षा करता है। भगवान ने स्वयं ही कहा है! 

करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी॥
सकल बिघ्न ब्यापहिं नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥

जो संसारके पदार्थो का त्याग करे वह ‘वैरागी’ और जो दिव्य पदार्थो का त्याग करे वह परम ‘वेरागी’। मन में विषय भोगो की कामना न होने देना वेराग्य है। 

कहिअ तात सो परम बिरागी। तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी॥

चौबीस सिद्धि वा तीन गुणों की यानी ब्रह्मा विष्णु महेश ये ही तीन देवता है! और ये ही तीन गुण है। जो इन तीनो गुणों की भक्ति वा सिद्धि को तिनके के सामान त्याग देगा तब भक्ति की पहली सीडी चढ़ पायेगा।

बिधि हरि हर तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा॥
मागहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए॥

यहाँ रजो गुण के  (विधि=ब्रह्मा) , सत्व गुण के अधिष्ठाता (हरि=विष्णु)  और तमो गुण के अधिष्ठाता (हर=महेश) अपने गुण सम्बन्धी सब प्रकार- के सुख तथा सिद्धियों का लोभ दिखा रहे हैँ, पर परम वैराग्यवान स्वयंभू  मनु को उन  गुणों तथा सिद्धियों की कोई भी  इच्छा नहीं हुई। (अधिष्ठाता= मुखिया=ईश्वर)

भरतहि होइ न राजमदु बिधि हरि हर पद पाइ।
कबहुँ कि काँजी सीकरनि छीरसिंधु बिनसाइ॥s

‘बिरति चर्म” रथ, घोड़े, सारथी, होने के साथ साथ रथी की  रक्षा के लिए रथ पर ढाल तलवार आदि रखी होनी चाहिए,जैसे ढाल से देह की रक्षा होती है, वैसे ही वैराग्य से रथी (जीव) की कामादि विघनों से रक्षा होती है अन्यत्र भी कहा है वैराग्य रूपी ढाल से अपने को बचाते हुए और ज्ञान रूपी तलवार से मद, लोभ और मोह रूपी वैरियों को मारकर जो विजय प्राप्त करता  है,वह हरि भक्ति ही है,हे पक्षीराज! इसे विचार कर देखिए।

बिरति चर्म असि ग्यान मद लोभ मोह रिपु मारि।
जय पाइअ सो हरि भगति देखु खगेस बिचारि॥

संसार के किसी भी चीज की चाह ना होना और जो कुछ प्राप्त है उसी में खुश रहना संतोष का लक्षण है संतोष का अर्थ इच्छा से रहित होना है (सूत्र) प्रारब्ध या धर्म निति से व्यापार करके जो लाभ प्राप्त हो उसी में निर्वाह करना और किसी की चाह ना करना ही संतोष है।  यथाः

गोधन गजधन बाजिधन, और रतनधन खान।
जब आवत संतोष धन, सब धन धूरि समान॥

सरल सुभाव न मन कुटिलाई। जथा लाभ संतोष सदाई॥
आठव जथा लाभ संतोषा । सपनेहु नहीं देखई परदोषा ॥
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥

“दान परसु? श्रुति की आज्ञा है कि अपने  (ऐश्वर्य=सामर्थ)  के अनुसार श्रद्धा, अश्रद्धा ,लज्जा अथवा डर से जानकर वा अनजान में चाहे जेसे दे, पर दान अवश्य देना चाहिये। धन की उत्तम गति दान ही है।(दान) अपनी वस्तु दुसरे को देने को दान कहा गया है अन्न दान सर्वश्रेष्ठ माना गया है भूखे को भोजन और प्यासे को पानी के अतिरिक्त जो भी दान दिया जाये उसमें पात्रता का विचार अति आवश्यक बताया गया है। 

प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान।
जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान॥

दान से पाप कटता है,परसु से पेड़ और पर्वत कटते हैं। रथ का मार्ग वृक्ष और पर्वत से बंद हो जाता है, पाप वन और पर्वत हैं।
गीता में! हे पार्थ प्रवृत्ति मार्ग और निवृत्ति  मार्ग को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को एवं भय और अभय को तथा बंधन और मोक्ष को जो बुद्धि  यथार्थ जानती है वह सात्विक है। ऐसी बुद्धि शक्ति रूपा है। शक्ति जितनी  पैनी हो उतनी उत्तम है, वैसे ही बुद्धि भी पेनी (तीव्र) ही उत्तम होती है, शक्ति के देवता ब्रह्मा होने से ही वह अमोघ है। उसने लक्ष्मण जी को भी न छोड़ा तब दूसरे की क्या चली? वह व्यर्थ न हुई। शक्ति अस्त्र और शस्त्र दोनों है अर्थात् यह हाथ से भी मारी जाती है और फेककर भी चलयी जाती है।
भगवान ने स्वयं कहा है कि जो जीव (अव्यभिचारी=सदाचारी) भक्ति योग के द्वारा मुझको निरंतर भजता है। वह मुझको पाने के योग्य हो जाता है इस प्रकार की भक्ति के द्वारा जो विज्ञान प्राप्त होता है यह  “बर विज्ञान”  है।क्योकि इसमें भगवान विज्ञानी भक्त को विघनों से  बचाते है। जैसे समस्त साधनों में विज्ञान सर्वश्रेष्ठ है।  वेसे ही समस्त उपकरणों में धनुष सर्वश्रेष्ठ है।जिस विज्ञान में भक्ति भी हो वह“वर विज्ञान”है! (वरविज्ञान=ज्ञान युक्त भक्ति)
(सूत्र) भगति करने से ही सुक, सनकादि, नारद जी विज्ञान विशारद कहलाए है यथाः

सुक सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिबर बिग्यान बिसारद॥

पर विज्ञान काम-क्रोधादि के अधीन हो जाता है। यथा

तात तीनि अति प्रबल खल काम क्रोध अरु लोभ।
मुनि बिग्यान धाम मन करहिं निमिष महुँ छोभ॥

हे तात! काम, क्रोध और लोभ-ये तीन अत्यंत प्रबल दुष्ट हैं। ये विज्ञान के धाम मुनियों के भी मनों को पलभर में क्षुब्ध कर देते हैं।

अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना॥

विषय-रूपी मल से रहित मन अमल है (अचल=चंचलता रहित) ऐसा मन तर्कश के समान है। जिस तरह तर्कश में बहुत-से बाण रहते हैं!उसी तरह शुद्ध मन में शम,यम और नियम के ही संकल्प हुआ करते हैं! संयम-नियमादि के सामने विषय नहीं ठहर सकते, शम, यम और नियम का आधार निर्मल मन है जैसे बाण का आधार (तूण=तरकश है)। विषयों में ही मन का अनुराग ही मन का मल है विषयों मे जिनका चित्त नहीं लगा है उनको निर्मल मन कहतेहै। जैसे अशुद्ध मन में विषय सम्बन्धी मनोरथ हुआ करते है। यहाँ पर शम,यम और नियमों को नाना प्रकार के बाण कहा है। बाण हमेशा लक्ष्य वेध करता है,जैसे चंचल को रस्सी से बाँध देने से वह अचल हो जाता है वैसे ही समस्त विषयों से मन को हटाकर उसे प्रभु पद लगा देने से वह बँध जायगा अर्थात अचल हो जायगा। यथा 

राम-चरन-अनुराग-नीर बिनु मल अति नास न पावै ॥

प्रेम भगति जल बिनु रघुराई। अभिअंतर मल कबहुँ न जाई।।
सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा॥

“शम यम नियम? इति। अन्तःकरण तथा अन्तर इन्द्रियों को वश में करना “शम? है। यम-चित्त को धर्म कार्य में स्थिर रखने वाले कर्मो का साधन |नियम-शौच-संतोष आदि क्रियाओं का पालन करना और उनको ईस्वर को अर्पित करना।

कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा॥

(अभेद=अभेद्य=जिसका छेदन न हो सके), जिसके भीतर अस्त्र-शस्त्र  न घुस सके कवच-लोहें के कड़ियों के जाल का बना हुआ पहनावा जिसे योद्धा छड़ाई के समय पहनते थे। ब्राह्मण और गुरु की पूजा अभेद्य कवच है। इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है । यथाः

पुन्य एक जग महुँ नहिं दूजा। मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा॥
सानुकूल तेहि पर मुनि देवा। जो तजि कपटु करइ द्विज सेवा॥

मन क्रम बचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव।
मोहि समेत बिरंचि सिव बस ताकें सब देव॥

ब्राह्मण और गुरु की पूजा में छिद्र न हों तो पूजक पर शत्रु का शस्त्र कुछ भी काम नहीं कर सकता।

तपबल बिप्र सदा बरिआरा। तिन्ह के कोप न कोउ रखवारा॥
जौं बिप्रन्ह बस करहु नरेसा। तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा॥

विष्णु भगवान ने  विप्र पद चिन्ह (भृगुलता) को हृदय में  धारण किया, इससे उन्होंने समस्त दैत्यों को जीत लिया।

करनधार सदगुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा॥

सद्गुरु इस मजबूत जहाज के कर्णधार (खेने वाले) हैं। इस प्रकार दुर्लभ (कठिनता से मिलने वाले) साधन सुलभ होकर (भगवत्कृपा से सहज ही) उसे प्राप्त हो गए हैं।(अभेद=जिसके भीतर आयुध ना घुस सके)

सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें॥

“धर्ममय अस रथ? से जनाया कि इस रथ के जितने अंग ऊपर कहे हैं वे सब भी धर्म ही हैं। “जाके! अर्थात् जिसके पास हो वह ही शत्रु-रहित हो सकता है। आशय से रामजी ने बताया  कि ये सब अंग हम में स्थित हैं; इससे रावण को पराजित ही समझो। शत्रु देखने मात्र को है, नहीं तो वह मारा हुआ है ही।

महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर।
जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर॥

व्यक्ति को धैर्य वान होना चाहिए कभी कभी बुद्धि की अधिकता जीव को अधीर बना देती है। इस समय जब शिक्षा का युग में बुद्धिमान होना सरल है पर धैर्य वान होना उतना ही कठिन होता जा रहा है! अगर बुद्धि के साथ धैर्य जुड़ जाये तो लक्ष्य बिलकुल ही सरल होगा ही या हो जायेगा। सुंदरकांड में हनुमान के लिए मति धीरा कहा गया है यह संसार रूपी शत्रु बड़ा अजय है। इसको वही वीर जीत सकता है। जिसके पास ऐसा दृंढ  रथ हो। हे मतिधीर सखा! सुनो यह संसार वन्धन का कारण है इसलिए शत्रु है। सारा दुख इसी से भोगना पडता है।और यह महा अजय है। अनादि काल से प्राणी दुख उठा रहा है पर इससे छूट नहीं सकता। जिन्होंने  इन्द्रादिक को जीता वे भी इसके जीतने मे सफल अर्थात समर्थ नहीं हुए। (मतिधीरा= बुद्धिमान)

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Mahender Upadhyay

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