क्योकि हे नाथ- आप में और रघुनाथजी में निश्चय ही कैसा अंतर है,जैसा जुगनू और सूर्य में,खलु खद्योत दिनकरहि जैसा॥भाव यह है की जैसे जुगनू असंख्य क्यों ना हो पर उनसे रात का अँधेरा दूर नहीं हो सकता और सूर्य अकेला ही है पर उसके उदय से अंधकार कही भी नहीं रहता तब जुगनू सूर्य के समान कैसे कहा जा सकता है वैसे ही तुम्हारे समान असंख्य रावण भी एकत्र होकर राम जी की बराबरी करने का प्रयास करे तो उपहास योग्य ही होंगे! (खद्योत=जुगनू) (अंतर=बीच,फर्क) (खलु=निश्चय, अवश्य) (खलु= वास्तव में, निश्चय ही)
बुधि बल (बुद्धि और बल) दो कहे; क्योंकि शत्रु पर जय के लिये ये ही दो मुख्य हैं! भाव यह कि जब शत्रु का बल और बुद्धि अपने से अधिक बल और बुद्धि हो तब शत्रु के सम्मुख नहीं जाना चाहिये, उससे वैर नहीं करना चाहिये, तब कुछ देकर संधि कर ले। हे नाथ जिनको तुमने परास्त किया, जिन पर विजय पायी वे सब जीव हैं पर ये राम रघुपति है अर्थात् जीव मात्र के रक्षक ईस्वर हैं। इसलिये तुममे और उनमें बड़ा-अन्तर हुआ।यह कह कर खद्योत और दिनकर का। इस पर दृष्टान्त देती है।
हे नाथ जीव ईश्वर का अंश है, अतएव उसमें किंचित अंश मात्र ही प्रकाश है। अतः जुगनू के ही समान है! जीवों के प्रकाशक तो श्री रामजी ही है।
हे नाथ अंश मात्र प्रकाश पाया हुआ यह जीव उनसे कैसे सामना कर सकता है! इसी तरह जानकी ने भी कहा हे दशमुख! सुन,जुगनू के प्रकाश से कभी कमलिनी खिल सकती है? मन्दोदरी कहती है कि सीताजी ने जो तुमको “खद्योत” और रामजी को (भानु=सूर्य) कहा था वह यथार्थ है,इसमें किंचित झूठ नहीं है।तुम निश्चय ही खद्योत के समान हो,यद्यपि तुम सीता के वचन पर कुपित हुए थे।(लवलेसा=लवलेश=बहुत थोड़ी मात्रा,नाममात्र का)
हे नाथ पर रामजी ईश्वर प्रकाश घन है, इससे सूर्य के समान कहा जाता है (दिनेसा=सूरज)
रावण ने अभिमान के कारण कहा (बृथा=व्यर्थ,बेकार)
अब मंदोदरी रावण को रामजी के ईश्वर होने का प्रमाण देती है! जिन्होंने (वामन रूप से) बलि को बाँधा और (परशुराम रूप से) सहस्रबाहु को मारा, जो दश अवतारों में एक है!वे ही(भगवान्) पृथ्वी का भार हरण करने के लिए (रामरूप में) अवतीर्ण (प्रकट) हुए हैं! हे नाथ! उनसे विरोध न कीजिए, जिनके हाथ में काल,कर्म और जीव सभी हैं। (सूत्र) भाव यह है कि जब काल, कर्म, जीव, सब उनके हाथ है तब तुम भी तो जीव ही हो इसलिए तुम भी उनके हाथ हो तब क्या कर सकते हो?
जो देवता, राक्षस और समस्त चराचर (चराचर=जड़ और चेतन,संसार) को खा जाता है, वह काल भी जिनके डर से अत्यंत डरता है, उनसे कदापि वैर न करो और मेरे कहने से जानकी जी को दे दो।
मन्दोदरी रावण से बोली-हे राजन आप से तो सभी डरते है आपने सुरो में देवराज इंद्र सबसे बड़ा है उसको भी जीत लिया,जितने दिगपाल है उनको जीता, भय के कारण ब्रम्हा और महेश तुम्हरे यहाँ नित्य हाजरी (उपस्थति) देते है असुरो में (विद्युतजिहा=शूर्पणखा के पति) को मारा, और जड़ में कैलाश पर्वत को भी गेंद सरीखा उठा लिया अब कोई जीतने को नहीं रहा गया अतः वन जाओ। (भर्ता=स्वामी, पति) (कर्ता= उत्पन्न करने वाला)
हे नाथ! रघुनाथ तो दीनों पर दया करने वाले हैं। सम्मुख (शरण में) जाने पर तो बाघ भी नहीं खाता।
मन्दोदरी रावण से बोली- (श्री रामजी) के चरण कमलों में सिर नवाकर (उनकी शरण में जाकर) उनको जानकीजी सौंप दीजिए और आप पुत्र को राज्य देकर वन में जाकर श्री रघुनाथजी का भजन कीजिए।
ये में ही नहीं कहती संत जन भी यही कहते है! जैसे मनु, यागवालिक, पुलस्त, वाल्मीक,व्यास जी इत्यादि? दूसरा भाव यह की कुछ में अपने मन से गड़कर नहीं कहती, और यह मेरा विचार भी नहीं है मैने तो संतो से सुना है उन्ही का कथन को में आपसे कहती हूँ। (कानन=बड़ा जंगल, घना वन)
इसे रानी स्वयं द्रश्टान्त देकर पुस्ट करती है।
नाथ दीनदयाल रघुराई। यदि रावण कहे की में तो उनसे विरोध कर ही चुका हूँ और वे मेरे नाश की प्रतिज्ञा एवं विभीषण जी का तिलक भी कर चुके तो मुझे कैसे छमा करेंगे ?
तब मंदोदरी बोली कि वे रघुराई दीन दयाल है वे भरत जी के मत को कहती है भरत जी कहते है यद्यपि मैं बुरा हूँ और अपराधी हूँ और मेरे ही कारण यह सब उपद्रव हुआ है, तथापि श्री रामजी मुझे शरण में सम्मुख आया हुआ देखकर सब अपराध क्षमा करके मुझ पर विशेष कृपा करेंगे।क्योकि रघुनाथजी शील, संकोच, अत्यन्त सरल स्वभाव, कृपा और स्नेह के घर हैं। श्री रामजी ने कभी शत्रु का भी अनिष्ट नहीं किया। मैं यद्यपि टेढ़ा हूँ, पर हूँ तो उनका बच्चा और गुलाम ही।(सूत्र) ये तो राम अवतार की विशेषता है की शत्रु भी उनकी बड़ाई करते है (अरिहुक= शत्रु का भी अनिष्ट) (सुठि= सुन्दर,बढ़िया, अच्छा,बहुत अधिक)
अतः हे नाथ
हे प्रिय राम जी तो संसार के तीनो कार्य अर्थात करता,पालक,और संहर्ता हैं! वही संसार के स्वामी एवं उपास्य है जैसे खेत के अन्न को जो बोता है,जो सींचता है ,वही काट कर घर ले जाता है वही उसका स्वामी होता है उसी तरह संसार राम जी का भोग्य है,शेष है,और राम जी ही भोक्ता है! (अंडकोस=ब्रह्मांड)
मन्दोदरी रावण से बोली- सोइ रघुबीर प्रनत अनुरागी। प्रभु इतने बड़े होते हुए भी शरणागत पर अनुराग रखते है मुनिवर शरभंग, बाल्मीक,अगस्त्य,आदि इन्ही प्रभु प्रभु को प्राप्त करने के लिए (प्रयास,साधना) करते है (तब समान्य मुनियो की बात ही क्या ? जिससे तुम भी डरते हो,तब तुमको भी उन्ही का भजन करना चाहिए!
प्रभु शरणागत का कभी भी त्याग नहीं करते
पर कौन से शरणागत का प्रभु त्याग नहीं करते?
मंदोदरी ने ममता छोड़ भजन करना कहकर जनाया कि ऐसा करने से तुम प्रभु के अत्यन्त प्रियपात्र हो जाओगे ये तो रामजी ने स्वयं कहा
जब सभी ममत्व छूट जायेगा तब हृदय में केवल और केवल प्रभु का वास होगा बाल्मीक जी ने भगवान के निवास के चौदह स्थान बताये उनमे दो स्थान ये भी है!
वही कोसलाधीश श्री रघुनाथजी आप पर दया करने आए हैं।
मुनि साधन करते हैं, फिर भी निश्चय नहीं कि उनको प्रभु की प्राप्ति हो पर तुम्हारे लिए तो स्वयं चल कर तुम्हारे पास आये है!
हे प्रियतम! यदि आप मेरी सीख मान लेंगे, तो आपका अत्यंत पवित्र और सुंदर यश तीनों लोकों में फैल जाएगा। जौ! शब्द से मन्दोदरी संदेह करती है।रावण की चेष्टा से वह समझ रही है कि यह मेरा उपदेश नहीं मानेगा।
प्रभु जिस पर कृपा करते हैं, उसका सुयश तीनों लोकों मे फैल जाता है !वही विजयी है, वही विनयी है और वही गुणों का समुद्र बन जाता है। उसी का सुंदर यश तीनों लोकों में प्रकाशित होता है।
मंदोदरी हनुमान जी के वचन सुन चुकी है की रघुनाथ का भजन करने से राज्य अचल हो जायेगा।उसी को समझ कर यहाँ मंदोदरी अपने सुहाग की अचलता के लिए रघुनाथ को भजने का उपदेश करती है और कहती है राम जी को छोड़ कर किसी और के भजने से मेरा (अहिवात=सुहाग) अचल नहीं हो सकता है
ऐसा कहकर, नेत्रों में (करुणा का) जल भरकर और पति के चरण पकड़कर, काँपते हुए शरीर से मंदोदरी ने कहा- हे नाथ! श्री रघुनाथजी का भजन कीजिए, जिससे मेरा सुहाग अचल हो जाए। (अहिवात=सुहाग)
क्योंकि भगवान के भक्तों का कभी भी नाश नहीं होता
“मयसुता” रावण ने मंदोदरी का निरादर नहीं किया उसका मुख्य कारण वह मयदानव की पुत्री है मयदानव का बड़ा (उपकार=भलाई) रावण पर है क्योकि रावण को अमोघ शक्ति इसी से मिली बाल्मीक जी के अनुसार यही शक्ति लछ्मण जी को मारी।“रावण! अर्थात् यह जगत-भर को रुलाने वाला है,यहाँ मंदोदरी को भी रुलावेगा,मानेगा नहीं।जैसे मय दानव नीति-कुशल था, बेसे ही मदोदरी भी नीति जानती है।अतःइसने वही नीति कही है।
रावण ने काल को भी जीता था, तो उसकी मृत्यु क्यों हुई? परन्तु प्रभु तो काल के भी काल है रावण का कहना ठीक भी है,जगत् में तो इसके तुल्य कोई नहीं था,परन्तु रामजी तो इस जगत से परे है।
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