अब रावण को शिक्षा देना है इसलिए हनुमान जी हाथ जोड़ते है, विनती करते है, और आदर के शब्द कह रहे विनम्र निवेदन से उपदेश मानने की आशा रहती है। हाथ जोड़ना कोई भय का सूचक नहीं है। यह भी एक सभ्यता है। बड़े लोग नम्रता एवं प्रार्थना पूर्वक उपदेश देते है।
बिनती करउँ जोरि कर रावन। सुनहु मान तजि मोर सिखावन॥
स्वयं राम जी ने भी प्रजा को दिव्य ज्ञान हाथ जोड़ कर दिया।
संत लोगो ने भी हाथ जोड़ कर निवेदन किया-
हनुमान जी रुद्रावतार एवं महान संत हैं, रावण तुमको समझने का मुख्य कारण में तुम्हारा गुरु हूँ! और संतो का स्वाभाव होता है कि शत्रु का भला ही चाहते है शिवजी अपने भक्त के कल्याण के लिए हनुमान रूप से हाथ जोडकर विनती कर रहे हैं। (बिटप=वृक्ष) (सरिता= नदी) (गिरि=पर्वत) (धरनी= पृथ्वी)
गुरु एवं संत स्वाभाव से हनुमान जी शत्रु रावण का भला ही चाहते है।
“मान तजि” क्योकि अभिमानी किसी की सलाह नहीं मानते, शिक्षा मानने के लिए अभिमान बाधक है अतः रावण ने अभिमान नहीं छोड़ा, इस कारण उसने हनुमान का उपदेश भी नहीं माना उल्टा क्रोधित हुआ। अभिमानी व्यक्ति कि एक विडंबना है की वह किसी की सलाह को नहीं मानता तारा ने अपने पति बाली को बहुत समझाया पर उसने तारा की एक ना सुनी परिणाम मारा गया। (मान=अभिमान) (सिखावन =शिक्षा)
हे रावण! तुम ब्रह्मा जी के सर्वोत्तम वंश में उत्पन्न हुए हो।
हे रावण! विश्रवा के पुत्र और कुबेर के भाई हो।अतःएक बार विचार करो, की तुम देहात्मबुद्धि से भी राक्षस नहीं हो। तुम्हारे पिता, चाचा, पितामह, परपितामह सभी भगवद्धक्त हैं।- भगवान का भजन करना तुम्हारा कुल धर्म है। इसलिए तुमको भी उस कुल धर्म का पालन करना चाहिए। (अत्युत्तम=अतिश्रेष्ठ,सर्वोत्तम)
(सूत्र) (भ्रम=भ्रम भजन का बाधक है) भगत भय हारी=का भाव है कि जो उस भगवान का भजन करते है उसका भय वे भक्त वासल्य हरण करते है। रावण को भ्रम क्या है? रावण को श्री रामजी के ब्रह्म होने में भ्रम है, वह उनको प्रकृत नर जानता है! जब तक संदेह रहेगा तब तक भक्ति नहीं हो सकती। इसी से ‘भ्रम’ को त्याग करनेको कहा। ‘भ्रम’ के कारण ही उसने वैर किया इसी से ‘बयरु नहिं कीजे’ भी आगे कहते हैं। (रंजन=प्रसन्न करना) (चराचर=संसार के सभी प्राणी)
हे रावण! जो देवता, राक्षस और समस्त चराचर को खा जाता है, वह काल भी रामजी से थोड़ा बहुत नहीं अत्यंत डरता है, काल श्रीराम जी को नहीं खा सकता, वे काल के वश नहीं है। और रावण सुन- तुम यह न समझो कि काल तुम से डरता है। वह अपना अवसर ताक रहा है! तुम काल के वश हो।
हे नाथ! काल का पेट कभी नहीं भरता, नाग, मनुष्य, देवता आदि चर-अचर जीव तथा यह सारा संसार काल का कलेवा है। चर और अचर जीव (गूलर के फल के भीतर रहने वाले छोटे-छोटे) जंतुओं के समान उन (ब्रह्माण्ड रूपी फलों) के भीतर बसते हैं और वे (अपने उस छोटे से जगत के सिवा) दूसरा कुछ नहीं जानते। उन फलों का भक्षण करने वाला कठिन और कराल काल है। वह काल भी सदा रामजी भयभीत रहता है। (अगजग =चराचर,जड़ चेतन)
जीव चराचर जंतु समाना। भीतर बसहिं न जानहिं आना॥
ते फल भच्छक कठिन कराला। तव भयँ डरत सदा सोउ काला॥
उनसे कदापि वैर न करो और मेरे कहने से जानकी जी को दे दो यह वैर मिटाने का उपाय बताया। “मोरे कहें “का भाव में तुम्हरा गुरु हूँ अन्य भाव तुमने मेरा-पराक्रम देख लिया कि लंका का कोई वीर मेरे सामने ठहर नहीं सका तब अनेक यूथपतियों,और सुग्रीव,राम लक्ष्मण के आने पर तुम्हरी क्या दशा होगी यह समझ कर मेरा कहना मान लो।
हे रावण तुम्हारे जैसे अभिमानी को एक सुअवसर है तुम कह सकते हो कि रामजी के दूत ने हाथ जोड़ कर निवेदन किया तब मैंने जानकी जी को दिया में ये सभी बातें अपनी तरफ से कह रहा हूँ और मेरी सलाह मान लोगे तो-
क्योंकि रामजी
हे रावण रामजी तीन विशेषता है प्रणतपाल, करुणासिघु, खरारि प्रनत के लिए ये तीनों गुण धारण करते हैं।-उसे पालते हें,पालन रजोगुण है।उस पर करुणा करते हैं, यह सत्वगुण है। उसके लिये खर आदि शत्रुओं को मारते हैं, यह तमोगुण है। अतः प्रणत को सब कुछ देते है क्योकि रामजी रघुनायक है अतः शरणागत होने पर रक्षा करेंगे, वध और, त्याग नहीं करेंगे! ‘खरारि! से जनाया कि वे भगवान ही हैं, खर दूषन तो किसी और से नहीं मर सकते थे! ये तो रावण तुमने ही कहा है! (प्रनतपाल= प्रणतपाल=दीन-दुखियों की रक्षा करने वाला, पालन-पोषण करने वाला)
रावण तुमने जो अपराध किया है वह छमा के योग्य तो नहीं है पर मेरे प्रभु ऐसे अपराध को तो भूल ही जाते है क्योकि वे सर्व समर्थ भगवान है रामजी ने स्वयं ही कहा है।
हे रावण सीता जी को देने से सभी अपराध समाप्त हो जायेगे और-
हे रावण तुम्हारा हृदय अभिमान और भ्रम से भरा हुआ है उसको मन से निकल दो राम चरण कमल को हृदय में धारण करो इससे तुम्हारा राज्य अचल रहेगा।
हनुमानजी ने रावण से कहा- रामविमुख पुरुष की संपत्ति और प्रभुता रही हुई भी चली जाती है और उसका पाना न पाने के समान है। जैसे जिन नदियों के मूल में कोई जल स्रोत नहीं है। (अर्थात जिन्हें केवल बरसात ही आसरा है वे वर्षा बीत जाने पर फिर तुरंत ही सूख जाती हैं।) सुकृत के द्वारा सम्पति और प्रभुता दोनों प्राप्त होती है पर राम बिमुख होने से शीघ्र ही उनका नाश हो जाता है “जांइ रही पाइ विनु पाई!।’रही’- भूतकाल में मिली हुईं। पाई! वर्तमान-काल में जो प्राप्त हे।विनु पाई!“जो भविष्यमें प्राप्त होनेवाली है जाइ जाया है। (प्रभुता=हुकूमत वैभव) (आसरा= सहारा) (जाया=व्यर्थ)
हनुमानजी ने रावण से कहा (पन=प्रण,प्रतिज्ञा) (त्राता=रक्षा करनेवाला,शरण देनेवाला) (कोपी=क्रोध करनेवाला,क्रोधी)
हे रावण तू रामजी से विमुख ही नहीं हुआ तू तो द्रोही भी है अतः तेरे दसों सिर काटे जायेंगे इसमें त्रिदेव भी तुझको बचा नहीं सकते।
ब्रह्मा विष्णु महेश तीनों के तीन ही रामजी के अधीन है।
और सुन रावण-
रावण में मोह और अभिमान दोनों है वह मोह के कारण रामजी को मनुष्य समझता है और अभिमान यह कि सभी देव, दानव मेरे वश में है मेरे बराबर संसार में कोई भी नहीं है इसी कारण सीता का हरण किया।
अभिमान ही भजन का बाधक है इसलिए हे रावण त्यागने का अनुरोध कर रहा हूँ। (मोह और अभिमान) दोनों ही सभी मानसिक रोगो का मूल (मुख्य) कारण है यथाः
काम, क्रोध और लोभ आदि शूल है, एक सिद्धांत है कि शारीरिक रोगों के पीछे बहुधा कोई ना कोई मानसिक कारण अवश्य होता है। बाबा तुलसी ने मानस में वात, पित्त, कफ की तुलना काम, क्रोध, लोभ से की है। शारीरिक स्वास्थ्य के लिए वात -पित्त -कफ को एक समुचित अनुपात में ही रहना चाहिए। यह तीनों बराबर बराबर मात्रा में भी नहीं होने चाहिए। बराबर मात्रा में व्यक्ति का जीवित रहना भी मुश्किल है। बराबर की स्थिति को सन्निपात कहते हैं, जो असाध्य है।सन्निपात एक ऐसी शारिरिक समस्या है जिसके कारण व्यक्ति अपना मानसिक एवं शारीरिक सन्तुलन खो देता है। जिसके परिणाम स्वरूप मनुष्य स्मृति खो देता है और वह पागल की तरह आचरण करने लगता है जिसको सन्निपात हो जाता है,उसका परिणाम मरण है। रावण में यह सब कहे गए हैं!
राम चरन पंकज उर धरहू। लंका अचल राजु तुम्ह करहू॥
रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका। तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका॥
तुम श्री राम जी के चरण कमलों को हृदय में धारण करो और लंका का अचल राज्य करो। ऋषि पुलस्त्यजी का यश निर्मल चंद्रमा के समान है। उस चंद्रमा में तुम कलंक न बनो। (मयंक=चंद्रमा)
यद्यपि हनुमान जी ने भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और नीति से सनी हुई बहुत ही हित की वाणी कही, तो भी वह महान अभिमानी रावण बहुत हँसकर (व्यंग्य से) बोला कि हमें यह बंदर बड़ा ज्ञानी गुरु मिला।
बिनती करउँ जोरि कर रावन। सुनहु मान तजि मोर सिखावन॥
बिनती करउँ जोरि कर रावन। सुनहु मान तजि मोर सिखावन॥
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