प्रेम,बार बार प्रभु चहइ उठावा। प्रेम मगन तेहि उठब न भावा॥

बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।

बार बार प्रभु चहइ

रामजी हनुमान जी को बार-बार उठाना चाहते है, परंतु प्रेम में डूबे हुए हनुमान जी को चरणों से उठना सुहाता नहीं। प्रभु के  (कर कमल=हाथ) हनुमान जी के सिर पर है। उस स्थिति का स्मरण करके शिव जी प्रेममग्न हो गए।  इस चौपाई में गोस्वामी जी ने भक्त और स्वामी के सम्बन्ध का जो चित्रण प्रस्तुत करते है वह हृदय स्पर्शी है! हनुमान प्रभु के चरणों में गदगद पड़े है इस स्थिति को देख कर स्वयं भगवान शंकर भाव मगन हो गए तो साधारण मानव के लिए क्या सन्देश है? इसका अभिप्राय यह है कि हनुमानजी तो भगवान शंकर ही हैं। जब उन्होंने देखा कि हनुमान जी के सिर पर प्रभु का हाथ है, और प्रभु उन्हें उठा रहे हैं, तब शंकर जी तो स्वयं अपने सिर पर प्रभु के स्पर्श की अलौकिक अनुभूति में डूब जाते हैं।

बार बार प्रभु चहइ उठावा। प्रेम मगन तेहि उठब न भावा॥

प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा। सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा॥

हनुमान जी सेवक है और सेवक ही चरणों के उपासक होते है अतः अपने इष्ट  के चरण पाकर छोड़ना नहीं चाहते। और भक्त तो सदा ही प्रभु के कर कमलों का स्पर्श  चाहता भी है 

शिवजी को हनुमान रूप में यह आनंद प्राप्त हुआ इसका स्मरण करके उसी प्रेम में मग्न हो गये क्योंकि यह परम लाभ है तभी तो भक्त ऐसी ही अभिलाषा करते है। कथा कुछ क्षण के लिए रुक जाती है। पर कथा तो चलनी ही चाहिए इसलिए फिर जब कथा प्रारंभ हुयी तो,

सावधान मन करि पुनि संकर।लागे कहन कथा अति सुन्दर॥

शिवजी कहते है – हे पार्वती

हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥
अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी॥

वे चराचरमय (चराचर में व्याप्त) होते हुए ही सबसे रहित हैं और विरक्त हैं (उनकी कहीं आसक्ति नहीं है)

जाके हृदयँ भगति जसि प्रीती। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती॥
रामही केवल प्रेम पिआरा। जान लेहु जो जाननिहारा ॥

बिना परम प्रेम यानि बिना भक्ति के भगवान नहीं मिल सकते।  अन्य सभी साधन भी तभी सफल होते हैं जब ह्रदय में भक्ति होती है। जीवन की हर कमी, विफलता, अभाव, दुख और पीड़ा एक रिक्त स्थान है जिसकी भरपाई सिर्फ प्रभु प्रेम से ही हो सकती है।  अपने समस्त अभाव, दुख और पीड़ाएँ प्रभु को समर्पित कर दो। अपने प्रारब्ध और संचित कर्म भी उन्हें ही सौंप दो।  हमारा स्वभाव प्रेम है जिसकी परिणिति अर्थात परिणाम आनंद है, कर्ता रामजी हैं, हम नहीं  सारे कर्म भी उन्हीं के हैं और कर्मफल भी उन्हीं के है। (सूत्र) संसार में सुख की खोज ही सब दुखों का कारण है। मनुष्य संसार में सुख ढूंढ़ता है पर निराशा ही हाथ लगती है| यह निराशा सदा दुखदायी है। (प्रारब्ध=कर्म का एक विशेष अंश) (बिरागा= अरुचि,रागहीन, उदासीन) (परिणिति=परिणाम)

मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किएँ जोग तप ग्यान बिरागा।।

और अनुराग कब होगा यथाः

बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग॥

शिवजी कहते है – हे पार्वती अर्थात केवल हरि का निरंतर स्मरण ही एक मात्र सत्य है बाकी इस जगत में सभी कुछ केवल स्वप्न के समान है।

शिवजी कहते-हे पार्वती ऐसे लोग निश्चित रूप से अभागे हैं जो भगवत भजन छोड़ कर सांसारिक चिंतन में अपने आप को लपेटते हैं।संसार में धनहीन-रोगी, पुत्रहीन, आवासहीन, माता-पिताविहीन, पति-पत्नी विहीन होना उतना भाग्यहीन होना नहीं है जितना कि भजन-साधनहीन होकर विषयानुरागि होना।

पर हे भवानी! प्रभु की माया (बड़ी ही) बलवती है, ऐसा कौन ज्ञानी है, जिसे वह न मोह ले?

प्रभु माया बलवंत भवानी। जाहि न मोह कवन अस ग्यानी।।

ब्रह्माजी मन में विचार करने लगे कि कवि, कोविद और ज्ञानी सभी माया के वश हैं। भगवान की माया का प्रभाव असीम है, जिसने मुझ तक को अनेकों बार नचाया है।

हरि माया कर अमिति प्रभावा। बिपुल बार जेहिं मोहि नचावा॥
उमा कहउँ मैं अनुभव अपना। सत हरि भजनु जगत सब सपना॥
सुनहु उमा ते लोग अभागी। हरि तजि होहिं बिषय अनुरागी॥

तुलसीदास:-रामजी तो विशुद्ध प्रेम से ही रीझते हैं, कहने में चाहे बुरी जान पड़े (कहते ना बने) मगर हृदय की अच्छी हो! श्री राम जी दास के हृदय की जानकर रीझते है! दूसरा भाव गौड़ जी के अनुसार राम जी अपने जन (दास) के मन की बात जान कर रीझते है यह बात कहने की नहीं है! कहने से उसका रस जाता है! (मन ही मन समझ रखने की है, उसके आनंद में डूबे रहने की है) हृदय में ही उसका रहना सर्वोत्तम है! बाबा जानकी दास के अनुसार “हियँ नीकी”का भाव यह है कि हम रामजी के है यह हृदय में दृंढ विश्वास होना  चाहिए! (निसोतें= शुद्ध,निरा) (जन = प्रजा,दास) (नसाइ= नष्ट हो ,नष्ट हो जाती है ,बिगड़ जाती है)

कहत नसाइ होइ हियँ नीकी। रीझत राम जानि जन जी की॥

रामजी ने स्वयं सीता जी से कहा! मेरे और तेरे प्रेम का तत्त्व (रहस्य) एक मेरा मन ही जानता है। और वह मेरा मन सदा तेरे ही पास रहता है। बस, मेरे प्रेम का सार इतने में ही समझ ले। प्रभु का संदेश सुनते ही जानकीजी प्रेम में मग्न हो गईं। उन्हें शरीर की सुध न रही। (तत्त्व= रहस्य)

तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं। जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं॥
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही। मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही॥

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            प्रेम,बार बार प्रभु चहइ उठावा। प्रेम मगन तेहि उठब न भावा॥               

 

Mahender Upadhyay: