(अवसि =अवश्य ही) भिखारी होने का अर्थ घर घर जाकर भीख मांगनी पड़ती है या दुख होता है पर्वती आप अपने को देखो आपका घर छुड़वाया तप करने के लिए वन में भेजा और तप भी किसके लिए ? भिखारी से विवाह करने के लिए, जिसमें एक भी गुण नहीं है।(सरिस=समान)
नारद के वचनों पर विश्वास मानकर तुम ऐसा पति चाहती हो जो स्वभाव से ही उदासीन, गुणहीन, निर्लज्ज, बुरे वेषवाला, नर-कपालों की माला पहनने वाला, कुलहीन, बिना घर-बार का, नंगा और शरीर पर साँपों को लपेटे रखने वाला है! (निर्गुन=गुणरहित त्रिगुणातीत) (त्रिगुणातीत= जो तीनों गुणों सत, रज और तम से परे हो) (निलज=निर्लज्ज=लज्जा रहित) (कुबेष= बुरे वेषवाला) (कपाली=नर-कपालों की माला पहनने वाला) (अकुल=परिवार रहित) (अगेह=बिना घर का) (दिगंबर=नंगा, नग्न) (ब्याली=सर्पी को धारण करने वाला, शिव)
सप्तऋषि पार्वती से कहा:-अब भी हमारा कहा मानो, हमने तुम्हारे लिए अच्छा वर विचारा है। वह बहुत ही सुंदर, पवित्र, सुखदायक और सुशील है, जिसका यश और लीला वेद गाते हैं!
सप्तऋषि पार्वती से कहा:-वह दोषों से रहित, सारे सद्गुणों की राशि, लक्ष्मी का स्वामी और वैकुण्ठपुरी का रहने वाला है। हम ऐसे वर को लाकर तुमसे मिला देंगे। (सूत्र) (नार+द=नारद) (नार=ज्ञान) जो ज्ञान दे उसका नाम ‘नारद,है! (श्रीपति=लक्ष्मी के पति भगवान विष्णु)
(सूत्र) हम सभी को माता पार्वती का उपदेश कि गुरु वाक्य पर शिष्य का ऐसा ही दृद विश्वास रहना चाहिये। विश्वास का धर्म दृणता है,वह अवश्य फलीभूत होगा इसमें संदेह नहीं । शिष्य में आचार्याभिमान होना परम गुण है,गुरुनिष्ठ भक्तों की कथाएँ भक्तमाल में भी प्रसिद्ध हैं।सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही॥ का भाव कि मनुष्यों ही की कौन कहे देवताओं को भी स्वप्नमें भी सुख और सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती। देवराज इंद्र और चन्द्रमा ये लोकपाल भी ग़ुरु की अवज्ञा करने से दुखी ही हुए! ब्रह्मा भी क्रोध करें, तो गुरु बचा लेते हैं, पर गुरु से विरोध करने पर जगत में कोई भी बचानेवाला नहीं है। अतएव गुरु के वचन पर दृढ् रहना ही कर्तव्य है।
यही तो प्रताप भानु ने कपटी मुनि से कहा- गुरु के क्रोध से, कहिए, कौन रक्षा कर सकता है? यदि ब्रह्मा भी क्रोध करें, तो गुरु बचा लेते हैं,पर गुरु से विरोध करने पर जगत में कोई भी बचाने वाला नहीं है।
यही तो कबीर दास ने भी कहा। जो लोग गुरु और भगवान को अलग समझते हैं, वे सच नहीं पहचानते।अगर भगवान अप्रसन्न हो जाएँ,तो आप गुरु की शरण में जा सकते हैं। लेकिन अगर गुरु क्रोधित हो जाएँ, तो भगवान भी आपको नहीं बचा सकते।
(सूत्र) श्री पार्वती जी अपने वाक्यों द्वारा उपदेश दे रही हैं कि मनुष्य को अपने उपास्य में दृंढ रहना चाहिये, अन्य में चित्त लगाना उचित नहीं। यहाँ किस सुन्दरता के साथ उत्तर दिया गया है, वह देखने ही योग्य है। शिवजी में आप जो दोष समझे हुए हैं, जो आप अवगुण बताते हैं, वे गुण ही है अवगुण नहीं हैं-यह वाद-विवाद वे नहीं करती । न तो परम श्रद्धा (श्रद्धास्पद=पूजनीय) के गुण-दोष-विवेचन पर बहस करती और न ही विष्णु के विरुद्ध एक शब्द मुख से निकालना उचित है। वे सप्तर्षियों की बात मान लेती हैं कि ठीक है, शिवजी में दोष -ही-दोष हैं और विष्णुजी में गुण -ही-गुण हैं, पर में करूँ तो क्या करूँ? मेरा मन तो शिवजी ही में रम गया है, हमें गुण-दोष से कोई सरोकार ही नहीं रह गया। अतः वें ही मुझे प्रिय लगते हैं, दूसरा नहीं। साहब-यह प्रेम की सीमा है।
यही तो मीरा ने भी कहा!
तुलसी दास ने कहा-गुण-अवगुण सब कोई जानते हैं, किन्तु जिसे जो भाता है, उसे वही अच्छा लगता है। (यदि ऋषि लोग कहें कि तुम एक के बचन पर दृढ़ रहकर हम सात का अपमान क्यों करती हो?तो उसका उत्तर उमा जी देती है) हे मुनीश्वर आप पहले मिलते तो आप ही के उपदेश सिर पर चढ़ाकर सुनती। अर्थात् सम्मति देने या मानने का समय अब हाथ से निकल गया। अब मैं जन्म संभु हित हारा! में वर्तमान स्थिति कही और आगे भविष्य की भी यही परिस्थिति प्रतिज्ञापूर्वक कहती हैं -जन्म कोटि!
इस जन्म में तप करते-करते प्राण छूट गये तो दूसरे जन्म में फिर उन्हीं के लिये तप करूँगी, फिर भी न. मिले तो तीसरे जन्म में फिर शिव जी ही के लिये तप करूँगी, इसी तरह जब तक वे नहीं मिलेंगे हठ न छोड़ेगी, बराबर प्रयास करूँगी | साहब -यह प्रेम की सीमा है । रहउँ कुवारी॥ का भाव की प्रतिज्ञा न छोडूगी हताश होकर संकल्प के प्रतिकूल विवाह न करूँगी। (रगर=हठ,जिद) (त्राता=रक्षा करनेवाला) (रगर=हठ,जिद)
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