परशुराम क्रोध के कारण जनक जी को मूर्ख कह रहे है जनक जी साधारण नहीं है श्रीमद्भागवत पुराण के रचनाकार व्यास जी ने भी अपने पुत्र शुकदेव को ज्ञान प्राप्त व भ्रम दूर करने के लिए राजा जनक के पास भेजा।
रामजी ने दोनों हाथ जोड़कर अत्यंत नम्रता से कहा- हे नाथ आपके दास को छोड़ कर धनुष तोड़ने का समर्थ किस में है।
वाणी के लिए तो कबीर जी की सुन्दर व्याख्या –
परशुराम क्रोध के कारण समझ ना सके उन्होंने तो यही समझा कि धनुष राम जी से भला क्या टूटेगा ये तो तोड़ने वाले की तरफ से निहोरा कर रहे है। सुनो राम सहसबाहु ने मेरे पिता को मारा था और अब शंकर जी का धनुष तोड़ा जो मेरे गुरु है अतः पितृ द्रोही और गुरु द्रोही दोनों बराबर के शत्रु होते है अतः जिस प्रकर मैंने सहसबाहु को मारा उसी प्रकार धनुष तोड़ने वाले को मरुँगा।
राम ने कहा आप सिर रूप और में चरण रूप हूँ आप उत्तमांग रूप ऊँचे और में अधमांग रूप नीचे हूँ युद्ध तो बराबरी से होता है यह विनीत वचन है!
(सूत्र) राम मात्र पद से नाम जापको को श्री रामजी के मुखार बिन्द से उपदेश हो रहा है कि दो अक्षर का मन्त्र है! इसमें और कुछ न मिलावें। लघु कहने का भाव कि मन्त्र जितना ही छोटा होता है! उतना ही उसका प्रभाव अधिक प्रभावी है। (सूत्र) जिसका जाप स्वयं देवों के देव महादेव भी निरंतर करते हैं। राम नाम महामंत्र है। पर राम जी की दीनता,उदारता देखो उसको अपने मुख से छोटा बता रहे है।
रामजी ने कहा-
अगर आप मेरे भाई लक्ष्मणजी से नाराज हो तो-
इस पर आपका रोष और मेरा अभिमान व्यर्थ है क्योंकि धनुष तो पुराना है।
और लक्ष्मणजी ने भी यही कहा-
और जैसे ही राम जी ने कहा- परशुराम जी को कन्फर्म हो गया इतना ब्राह्मण के प्रति आदर केवल नारायण में ही हो सकता है! (सूत्र) जब तक क्रोध का पर्दा पड़ा रहेगा तब तक कुछ भी दिखलाई नहीं देगा।
हे राम! आपके वचन से तो आपका अवतार होना निश्चय हुआ, परन्तु अब कर्म से भी निश्चय करना चाहता हूँ।
इस कारण लक्ष्मी पति विष्णु जी का जो यह धनुष मेरे पास है !इसे लो ओर खेंच कर चढ़ा दो तो हमारा संदेह दूर हो परशुराम का वह धनुष स्वतः ही राम के पास पहुंचता है जहँ संदेह है वहां विश्वास नहीं रह सकता परशुराम यहाँ तो आत्म विश्वास को भी खो बैठे थे! धनुष का अपने से चल कर जाने का भाव एक तो धनुष पहले से टूटा पड़ा है। दूसरा में तो इन्ही का धनुष हूँ! धनुष देते समय जो तेज उनमे था वह भी रामजी में चला गया परशुराम जी निस्तेज से हो गए।
(भगवान ने परशुरामजी जी को धनुष देते समय कह दिया था कि जो धनुष को चढ़ावे उसको पूर्ण अवतार जानना ओर तप करने चले जाना) अब यह तो आप ही चढ़ गया तो फिर परशुरामजी ने विष्णु रूप से भी परे राम जी को पहचान लिया अतः अब दुर्वचन कहने का खेद हुआ अतः छमा मांगी उनका ईश्वरीय अंश भी राम में लय हो गया।
इसके बाद पुनः भगवान परशुराम के मुंह से निकल पड़ता है: हे रघुकुलरूपी कमल वन के सूर्य! हे राक्षसों के कुलरूपी घने जंगल को जलानेवाले अग्नि! आपकी जय हो! हे देवता, ब्राह्मण और गौ का हित करनेवाले! आपकी जय हो। हे मद, मोह, क्रोध और भ्रम के हरनेवाले! आपकी जय हो। हे रघुकुल के पताका स्वरूप राम! आपकी जय हो, जय हो, जय हो। ऐसा कहकर परशुराम तप के लिए वन को चले गए। (कोह=अर्जुन वृक्ष, क्रोध,गुस्सा) (बनज=कमल) (कृसानू= लौ, आग, प्रकाश) (अग्याता= अनजाने में) (छमामंदिर= क्षमा के मंदिर) (भृगुकुल केतु=भृगुवंश की पताका रूप परशुराम) (दनुज=राक्षस,दानव)
हे रघुबंस कमल वन के सूर्य = जिस तरह से कमल वन सूर्योदय के उदय से विकसित होता है उसी तरह आपके अवतरण से रघुवंश प्रफुल्लित हो रहा है दनुज कुल इस समय वन की भांति सघन और विस्तृत हो रहा है उसके लिए आप अग्नि है वन का नाश जिस भांति अग्नि से होता है अग्नि में वह समर्थ है कि वन के विस्तार अनुसार अपनी शक्ति या यो कहे प्रचंडता कम ज्यादा कर शक्ति है इस समय निशाचरों द्वारा विप्र धेनु का अहित हो रहा है उनके लिए आप दनुज बन कृषानु है (बनज=कमल) (भानु=सूर्य) (कृसानू=कृशानु= अग्नि, आग)
परशुराम शिव जी के परम भक्त है इस कारण दोनों भाइयों को अपने इष्टदेव का मन मानस का हंस कह रहे है परशुराम बताना चाहते है की मैं अपने एक मुख से आपके यश को क्या कहू जिनके अनेक मुख है अर्थात शेष महेश आपका यशोगान नहीं कर सकते।
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