कबीर कह रहे हैं कि अगर आपको अपना बड़प्पन रखना है तो सदैव छोटे बनकर रहो।छोटा बनने का अर्थ है विनम्र बनकर रहो।विनम्रता रखने में ही आपका बड़प्पन है।विनम्रता से आपका सभी लोगों में मान बढेगा। लघुता से ही प्रभुता मिलती है। प्रभुता से प्रभु दूर अर्थता अहंकार की भावना रखने से आपके और परमात्मा के मध्य की दूरी बढ़ जाएगी।अहँकार के कारण ही मनुष्य से परमात्मा दूर हो जाते हैं। कुछ करने और जानने का अहंकार आपको परमात्मा को पाने से वंचित कर देता है। चींटी छोटी है,विनम्र है इसलिए उसे शक्कर मिलती है। हाथी को अपने विशालकाय और बलशाली होने का अहंकार होता है। इसी बल के अहंकार के कारण वह सूंड से धूल उठाकर अपने सिर पर डालता रहता है।कहने का अर्थ है कि जीवन में कभी भी किसी भी विशेषता का अभिमान नहीं करना चाहिए। विनम्रता आपको शिखर तक ले जा सकती है और अहंकार पतन के अंधकार तक। चयन आपको करना है। परमात्मा के द्वार तक दंडवत लेट कर ही पहुंचा जा सकता है,अहंकार से अकड़कर चलने पर तो उसका दर तक दिखलाई नहीं पड़ेगा।
तुलसीदास जी ने कहा हे श्री रघुबीर! मेरे समान कोई दीन नही है और आपके समान कोई दीनो का हित करनेवाला नही है। ऐसा विचार कर हे रघुवंशमणि! मेरे जन्म मरण के भयानक दुख का हरण कर लीजिये। (बिसम=विकट,भीषण, प्रचंड भयंकर विकट) (भव भीर=जन्म मरण)
तुलसीदास जी ने कहा मुझको अपना दास जानकर कृपा की खान आप सब लोग मिलकर छल छोड़कर कृपा कीजिए। मुझे अपने बुद्धि-बल का भरोसा नहीं है, इसीलिए मैं सबसे विनती करता हूँ॥ (छोह=कृपा)(कृपाकर=कृपा+आकर=कृपा की खानि) दूसरा (कृपा+कर=कृपा करनेवाले)(किंकर= दास,सेवक)
सब जगत को सियाराम मय मानकर वंदना की और अपने में किंकर,भाव रखा यह गोस्वामी जी का अनन्य भाव है यथा
आगे अपने को संतो का बालक कहा,
तुलसीदास जी ने कहा। मैं न तो कवि हूँ, न वाक्य रचना में ही कुशल हूँ,मैं तो सब कलाओं तथा सब विद्याओं से रहित हूँ, इनमें से काव्य सम्बन्धी एक भी बात का ज्ञान मुझमें नहीं है यह मैं कोरे कागज पर लिखकर(शपथपूर्वक)सत्य-सत्य कहता हूँ। वेजनाथ के अनुसार कि अपने मुँह अपनी बड़ाई करना दूषण है।अपनी बड़ाई करने वाला लघुत्व को प्राप्त होता है। अतः यहाँ यह चतुरता गोसाई जी ने की कि काव्य के सर्वाग प्रथम गिना आए, फिर अंत में कह दिया कि हममें एक भी काव्यगुण नहीं हैं। जैसे पूजन कर अंतमें अपराध निवारण हेतु प्रार्थना की जाती है, वैसे ही यहाँ जानिये।
गोस्वामी जी सब गुणों से पूर्ण होते हुए भी ऐसा “कवि न होउँ” कह रहे है इन्होने तो विनम्रता की हद ही पार कर दी यह कार्पण्य यानि दीनता अथवा चित् का गर्वहीन भाव को कार्पण्य शस्णागति कहते है! जैसे हनुमानजी भक्ति के पूर्ण ज्ञाता हैं,फिर भी शपथ करके कहा है, ऐसा कहकर अपने हृदय की निष्कपटता दर्शित करता है,यथा
आप यह यथार्थ भी कह रहे हैं!
राम प्रताप क्या है!
तुलसीदास जी ने कहा -मेरी बुद्धि तो अत्यन्त नीची है और चाह बड़ी ऊँची है, चाह तो अमृत पाने की है, पर जगत में जुड़ती छाछ भी नहीं। जैसे बालक जब तोतले वचन बोलता है, तो उसके माता-पिता उन्हें प्रसन्न मन से सुनते हैं (मुदित=प्रसन्न)
तुलसीदास जी ने कहा:-कीर्ति, कविता, और सम्पत्ति ,वही उत्तम है, जो गंगाजी की तरह सबका हित करने वाली हो। श्री रामचन्द्रजी की कीर्ति तो बड़ी सुंदर (सबका अनन्त कल्याण करने वाली ही) है, परन्तु मेरी कविता भद्दी है। यह असामंजस्य है (अर्थात इन दोनों का मेल नहीं मिलता) इसी की मुझे चिन्ता है। (भनिति=कविता,कहावत,लोकोक्ति) (अँदेसा=शक,संदेह,संशय,खटका, अविश्वास) (भदेसा=भद्दा,कुरूप,बुरा)
तुलसीदास जी ने कहा-पशु, पक्षी, देवता, मनुष्य, असुर समेत जितने श्री रामजी के चरणों के उपासक हैं, मैं उन सबके चरणकमलों की वंदना करता हूँ, जो श्री रामजी के निष्काम सेवक हैं।(जे बिनु काम=निष्काम)
तुलसीदास जी ने कहा-जो श्री रामजी के भक्त कहलाकर लोगों को ठगते हैं, जो धन (लोभ), क्रोध और काम के गुलाम हैं और जो (धींगाधींगी= बदमाशी,उपद्रव) करने वाले, धर्मध्वजी (धर्म की झूठी ध्वजा फहराने वाले दम्भी) और कपट के धन्धों का बोझ ढोने वाले हैं, संसार के ऐसे लोगों में सबसे पहले मेरी गिनती है। (भगत कहाइ-ऐसे लोगों को स्वयं को भक्त कहलाने की बड़ी इच्छा होती है) और जो वास्तव में भक्त हैं जैसे भरत जी, हनुमानजी आदि , ये कभी अपने को भक्त कहते ही नहीं हैं और न उन्हें किसी से कहलाने की इच्छा रहती है। हनुमानजी जामवंत जी तो बंदर भालू के वेष में हैं लेकिन उनके अंदर साधुता का वास है।
(बंचक=ठग)(कंचन=धन,संपत्ति) (कोह=क्रोध,गुस्सा)(किंकर=गुलाम, दास,सेवक, नौकर) (रेख=गिनती)(धिग=घिकू=धिक्कार)(धरम ध्वज=धर्म का आडंम्बर खड़ा करके स्वार्थ साधन करने वाला पाखंडी) (धंधक=काम-धंथे का आडंम्बर,जंजाल) “तिन्ह महँ प्रथम रेख”अर्थात् जबसे कलियुग शुरू हुआ तब से आज तक जिनका जन्म हुआ “जग’ कहने का भाव यह है कि जगत् भर में जितने अधम हैं,उन सबों में प्रथम मेरी गिनती है।पुनः,भाव कि’सत्ययुग में देत्य खल,त्रेता में राक्षस खल और द्वापर में दुर्याधन आदि जो खल थे,उनको नहीं कहते। जो कलियुग में जन्मे उनमें से अपने को अधिक कहा। क्योंकि कलि के खल तीनों से अधिक हैं।
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परशुराम जी अत्यंत क्रोध में भरकर वे कठोर वचन बोले – रे मूर्ख जनक! बता, धनुष किसने तोड़ा? जड़ कहने का भाव यह की शिव धनुष की पूजा और रक्षा करना चाहिए थी सो ना करके उसे तुड़वाया यह तेरी जड़ता है मूर्खता है अति क्रोध मनुष्य को स्वयं ही निर्बल बना देता है यह संकेत भी परशुराम जी की हार के लिए कितना सुन्दर है। हे नाथ! शिव के धनुष को तोड़नेवाला आपका कोई एक दास ही होगा। राम जी ने सीधे सीधे क्यों ना कह दिया की हमने तोडा है परोक्ष रूप से क्यों कहा? सीधे कह देने से मुनि लड़ने लगते और राम जी के युद्ध करने से ब्रह्म हत्या लगती वचन चतुराई से ही उनको जीतना उचित समझा इसी से अपने आप (रामजी) को प्रकट करके नहीं कहा दूसरा प्रकट कहने में की हमने तोडा है अभिमान सूचित होता है अपने को दास कहा और दास कहकर भी प्रकट नहीं हुए कहते है की कोई तुम्हारा दास होगा इन वचनो में कितनी निरभिमानिता भरी हुई है राम जी अपनी प्रसंसा स्वयं कभी नहीं करते नाथ कहने का भाव की आप जिसके स्वामी है और जो आपका दास है उसने तोडा है नाथ शम्भु एक भाव यह भी है की जिन शम्भू का यह धनुष है उनके हम नाथ है अतः आप व्यर्थ ही रोष करते है!
जनक जी को जड़ मूड कहना उनके राज्य को उलट देने की धमकी देना अनुचित है! आपका अपराधी में हूँ!
सहसबाहु सम? कहने का भाव कि सहसबाहु हमारे पिता का द्रोही था। उसने हमारे पिता को मारा था! और धनुष तोड़ने वाला हमारे गुरु का द्रोही हे। पितृ द्रोही और गुरु द्रोही दोनों तुल्य होने से सहसबाहु के समान वैरी कहा आशय यह है कि जैसे हमने उसकी भुजाये काटी और उसका वध किया बैसे ही इसकी भुजायें काटेंगे जिनसे धनुष तोड़ा हैऔर फिर उसका बध भी करेंगे! यह लक्ष्मण की बुद्धिमानी है कि सब पर दोष बचा कर बात कर रहे हैं। यदि कहते कि श्रीरामजी ने राजा जनक की प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिये धनुष तोड़ा तो जनकजी का दोष ठहरता (ओर ये उन पर टूट पड़ते),यदि कहते कि विश्वामित्रजी की आज्ञा से तोड़ा तो उनका दोष ठहरता|और यदि कहते कि श्रीरामजी ने अपनी वीरता से तोड़ा तो उनका दोष माना जायगा और ये उनसे भिड़ पड़ेंगे! राम जी ने स्वयं कहा हे भगवान मैंने शिवचाप-को अच्छी तरह छुआ भी नहीं था कि वह अपने ही से टूट गया,में क्या करूँ?
रामचंद्र जी बोले – हे नाथ! हमारी और आपकी बराबरी कैसी? कहिए न, कहाँ चरण और कहाँ मस्तक! कहाँ मेरा राम मात्र छोटा सा नाम और कहाँ आपका परशु सहित बड़ा नाम॥ हमहि तुम्हहि= कहने का भाव की हम सेवक है और आप नाथ है! सेवक और स्वामी की बराबरी नहीं होती तब हमारी और आपकी बराबरी कैसे हो सकती है “सरबरी कसी” का भाव है की आप ब्राम्हिन है में छत्री हूँ इसी आधार पर कहा कहाँ चरण कहाँ माथा। कहकर दोनों में बड़ा अंतर दिखाया।(सरिबरि=बराबरी,समता)
रामजी ने परशुराम जी से कहा- हे देव! हमारे तो एक ही गुण धनुष है और आपके परम पवित्र (शम, दम, तप, शौच, क्षमा, सरलता, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता – ये) नौ गुण हैं। हम तो सब प्रकार से आपसे हारे हैं। हे विप्र! हमारे अपराधों को क्षमा कीजिए। भगवान राम की मर्यादा है कि भगवान परशुराम के प्रति किस प्रकार के सम्मानजनक शब्दों का प्रयोग करते हुए कहते हैं कि ‘हे देव! हम तो सब प्रकार से आपसे हारे हैं, क्योंकि आप विप्र हैं। हमारे अपराधों को क्षमा कीजिए।(सूत्र) यह केवल और केवल भगवान राम ही कह सकते हैं।
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(चलते समय) भारद्वाज वाल्मीकि जी के शिष्य हैं ।यद्यपि राम रास्ता पूछते है। पर किसी स्थान का नाम नही लेते,जहाँ जाना है। भाव यह कि मुनिजी रास्ता भी बतलायें और गन्तव्य स्थान का भी निश्चय कर दें| ऐश्वर्या छुपाते देखकर मुनि जी मन ही मन हंसे कि ये हमसे रास्ता पूछते है।
कृपानिधाना कहने का भाव दण्डकारन वन में और भी ऋषियों के लिए सुख देना चाहते है! इस वन में तो अत्रि मुनि की ही प्रधानता है इसलिए अन्य वन में जाने की मुनि अत्रि से आज्ञा ली भगवान अपने आचरण द्वारा यह उपदेश दिया कि जब हम छत्रिय वेश धारण कर मुनियो,विप्रो का सम्मान करते है! तो यही कर्तव्य अन्य जीवो को भी करना चाहिए!
मुझ पर निरंतर कृपा करते रहिएगा और अपना सेवक जानकर स्नेह न छोड़िएगा।
धर्म धुरंधर रामजी के वचन सुनकर ज्ञानी अत्रि मुनि प्रेमपूर्वक बोले-
चक्रवती महाराज के परम प्रतापी राजकुमार एक मुनि के सामने इस प्रकार कृपा की याचना करते है (अगस्त्यजी)जी ने कहा आप सेवकों को सदा ही बड़ाई दिया करते हैं,इसी से हे रघुनाथजी! आपने मुझसे पूछा है॥यथाः
धर्म धुरंधर प्रभु के वचन सुनकर ज्ञानी मुनि प्रेम पूर्वक बोले ब्रह्मा,शिव, सनकादिक सभी परमार्थवादी जिसकी कृपा की चाह करते है हे राम वही आप(जिसको निष्काम भक्त प्रिय है और जो)निष्काम भक्तो के प्यारे एवं दीनबंधु है जिन्होंने ऐसे कोमल वचन कहे!(परमारथ बादी=जो ब्रह्म से साक्षात करने में प्रबल है,ब्रह्म तत्व को जानने वाले,ज्ञानी) यथाः
आपकी चतुराई जानी। क्या? यह कि आप सबसे वड़े हैं इसी से ऐसी विनम्र वाणीबोले । अर्थात् अपनी नम्रता से ही आपने अपनी श्रेष्ठा जना दी यह चतुराई है।अथवा,श्री,लक्ष्मी की चतुराई जानी कि क्यों सब देवताओं को छोड़कर आपको ही जयमाल पहनाई थी ।ऐसा करके उन्होंने जना दिया कि सब में आप ही बड़े हैं।श्रीजीने यह शील देखकर ही आपका भजन किया।त्रैलोक्य की प्रभुता शीलवान का ही भजन करती है।
केहि बिधि कहौं जाहु अब स्वामी। भाव यह की कैसे कहू कि बन को जाओ,क्योकि आप तो सर्वत्र हो आप तो अन्तर्यामी हो पुनः नाथ के जाने से सेवक अनाथ हो जायेगा ,यह कैसे कहू कि मुझ को अनाथ करके जाइये पुनःआप स्वामी है,सेवक स्वामी को जाने को कैसे कह सकता है?आप नाथ है नाथ के बिना सेवक अनाथ होकर कैसे रहना चाहेगा? ऐसा कह कर धीर मुनि प्रभु को देखने लगे उनके नेत्रों से जल बह रहा है, शरीर पुलकित है नेत्र मुख कमल में लगे हुए है अत्रि जैसा संत मन में विचार कर रहा है!कि मैने ऐसे कौन से जप तप किये कि मन,ज्ञान,गुण और इन्द्रियों से परे प्रभु के दर्शन पाये॥
श्री रामजी ने मुनि से कहा-अगस्त्यजी: हे प्रभो! अब आप मुझे वही मंत्र (सलाह) दीजिए, जिस प्रकार मैं मुनियों के द्रोही राक्षसों को मारूँ। प्रभु की वाणी सुनकर अगस्त्यजी मुस्कुराए और बोले- हे नाथ! आपने क्या समझकर मुझसे यह प्रश्न किया?जगत का दाता अगस्त जी से मांग रहा है।
सुतीक्ष्ण जैसा संत बोल रहा मेरे हृदय में दृढ़ विश्वास नहीं होता,क्योंकि मेरे मन में भक्ति,वैराग्य या ज्ञान कुछ भी नहीं है॥
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हनुमान जी अपनी अत्यंत दीनता और मन ,कर्म,वचन से सरनागति दिखा रहे है एक का अर्थ “प्रधान “वा “शिरोमणि “है अर्थात में मंद ,मोहबस ,और कुटिलो का शिरोमणि हूँ।
हे नाथ|यदपि मुझ में बहुत अवगुण है,तथापि (यह) सेबक प्रभु को भोरे न पड़े अर्थात अवगुणी होने पर भी मुझ सेवक को आप ना भूलावे !इस पर भी हे रघुबीर !आपकी शपथ करके कहता हूँ कि मैं कुछ भी भजन का उपाय नहीं जानता॥’जानो नहिं कछु भजन उपाई’ कहने का भाव कि माया मोहित जीव का तरना दो तरहसे है।एक तो आपके छोह से,दूसरे भजन से। सो में भजन का उपाय नहीं जानता,आपकी कृपा से ही निस्तार होगा। माया से तरना केवल और केवल कृपा साध्य है,क्रिया साध्य नहीं।
भजन उपाई॥=भजनका उपाय अर्थात साधन। ‘कछु’ का भाव कि भजन थोड़ा भी हो तो भी माया कुछ नहीं कर सकती,यथाः
यह प्रपन्न-शरणागति का लक्षण हे। इसमें दो भेद हैं।एक पुरुषार्थ -युक्त, दूसरा पुरुषार्थ- हीन अतः दोनों के उदाहरण देते हैं। सेवकमें कुछ पुरुषार्थ है, हम छोटे वालक के समान पुरुषार्थ हीन हैं। केवल आप ही के भरोसे है । यही शरणागति श्री राम जी ने नारद जी से कही हे! हमारे शरीर और मन के स्वस्थ पर ‘आस्था ‘ का प्रभाव पड़ता है इसका विश्लेषण चिकित्सको ने किया है ऐसा अनेक अध्यनो में सामने आया है! अस्पतालों में प्राण लेवा रोगो से झूलते हुए मरीजों पर प्रयोग किया गया भगवान में विस्वास करने वाले और उनकी सत्ता को नकारने वालों के एक से उपचार हुए! अंत में देखा गया की नास्तिको के स्वस्थ में दवाइयों से मामूली सुधर हुआ पर आस्तिक रोगी ना केवल रोग मुक्त हुए बल्कि उनकी प्रतिरोधक छमता भी बढ़ गई! हनुमानजी भक्तों में आदर्श हैं, इनमें भक्ति के सब अंग है ,पर फिर भी भगवान कीअपेक्षा में उन्हें कुछ न गिनते हुए वे कार्पए्य – शरणागति की रीति से स्तुति कर रहे हैं,जो भक्ति का परम आवश्यक अंग है।
शाखामृग का भाव यह कि मे तो शाखा पर रहने वाला पशु हूँ। एक डाल पर से दूसरे पर उछल जाऊ और डाल न चूके। बस इतनी ही मेरी बहादुरी है। यह सामर्थ अन्य किसी पशु मे नहीं है।अत यह मेरी जाति की प्रभुताई है।समुद्र लांघना (ग्राहदि=मगर,घड़ियाल)से भी (अशक्य=जो न हो सके, असाध्य)है। हाटक सोना का जलाना स्वर्णकार से भी अशक्य है। निशिचरों को मारना देवताओं से भी अशक्य है और अशोक वन उजाडना इन्द्र से भी अशक्य है। इन सब कामो को मैंने किया तो क्या इनमे मेरी प्रभुता थी? यह सब सरकार की प्रभुता ने किया।यह कह कर हनुमानजी ने बुद्धि में इन्द्रादिक को भो जीत लिया। ‘न कछू मोरि प्रभुताई! ।-अर्थात मेरा पुरुषार्थ किसी कार्य में भी किंचित् नहीं है;सब में आपके प्रताप ने ही काम किया ।श्री हनुमानजी की इतनी निरभिमानता भी श्री प्रभु की प्रसन्नता का कारण है। (हाटक=सोना,स्वर्ण) (बिपिन=वन)
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हनुमान विभीषण संवाद और दीन भाव-
विभीषण हनुमान से बोल रहे है”तामस तनु”का भाव है कि हम पापी है!
यही बात रावण ने भी कही: तामस देह दोनों भाई दुखी थे। पर दोनो भाइयों को भजन पर आस्था थी। तामसी को उल्लू की उपमा दी गई है, उल्लू सूर्य दर्शन से विमुख होते हैं वैसे ही तामसी जीव ज्ञानसे विमुखहैं|
हे हनुमान इसी से में ज्ञान हीन भी हूँ”कछु साधन नाहीं।”साधनो से ही भगवान मिलते है यथाः
हे हनुमान मुझ से तो वह भी नहीं बनता अतः में कर्म हीन हूँ क्योकि साधन करना कर्म है प्रीति न पद सरोज मन माहीं।। का भाव उपासना से रहित हूँ जब कुछ साधन ही नहीं तब प्रीति कहाँ से हो अतः ‘तामस तन”कहकर तब साधन रहित होना-कहा और अंत में प्रीत का न होना। यथाः
हे हनुमान पद सरोज’ का भाव कि प्रभु के चरण कमलवत् हैं,उनमें मन को भ्रमर होकर.लुब्ध रहना चाहिये सो हमारा मन मधुप होकर उसमें नहीं लुभाता,मुझ में तो यह भी नहीं है
(हनुमान्जी ने कहा-) हे विभीषणजी! सुनिए आपका तो केवल तामस तन है पर कुल तो उत्तम है यथाः
और मै-भला कहिए, मैं ही कौन बड़ा कुलीन हूँ? (जाति का) चंचल वानर हूँ और सब प्रकार से नीच हूँ, सब प्रकार से गया बीता हूँ प्रातःकाल जो हम लोगों (बंदरों) का नाम ले ले तो उस दिन उसे भोजन न मिले॥
हे सखा! सुनिए, मैं ऐसा अधम हूँ, पर श्री रामचंद्रजी ने तो मुझ पर भी कृपा ही की है। भगवान् के गुणों का स्मरण करके हनुमान्जी के दोनों नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया॥
और सुनो विभीषण= श्रीरामजी कुलकी अपेक्षा नहीं रखते, वे तो केवल भक्ति का नाता मानते है! यथाः
सदा प्रीती का निर्बाह करना कठिन है पर प्रभु सदा एक रस निबाहते है प्रभु को सेवक से कोई अपेच्छा नहीं है पर वे तो सेवक पर बिना कारण ममता और प्रीत करते है
विभीषण स्वयं हनुमान जी से बोल रहा है बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता।।अर्थात् चाहे ब्रमाण्ड भर खोज डालें तो भी नहीं मिलते और जब कृपा होती है तब घर बैठे संत मिल जाते हैं,ग्रन्थकार यहाँ उपदेश देते हैं कि जब इस तरह साधन करे जेसे विभीषणजी ने किया तब श्रीराम जी कृपा करें और तब सन्त मिलें! श्री रामचंद्रजी समुद्र हैं तो धीर संत पुरुष मेघ हैं। श्री हरि चंदन के वृक्ष हैं तो संत पवन हैं।
जौ रघुबीर अनुग्रह कीन्हा। का भाव रघुवीर शब्द में पांच प्रकार की वीरता के भाव रहते है
1 त्यागवीर 2 दयावीर 3 विद्या वीर 4 -धर्मवीर 5 पराक्रम वीर –
1 त्यागवीर
2दयावीर – विश्व का मित्र वही विश्वामित्र है। गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या के दुख को विश्वामित्र नही सह पाए और प्रभु से विनय करते हुए कहा कि यदि कोई भिक्षा मांगता है उसे भिक्षा मिलता है, प्रभु यह भीख मांग रही है इन्हें चरण रज प्रदान करें।
3 विद्या वीर –
नीति रावण और बाली को सिखाई प्रीति- यथा-“जानत प्रीति रीति रघुराई” परमार्थ पुरजन को उपदेश, स्वार्थ अर्थात लोक व्यवहार में निपुण, इसी से राम सबको प्राणो से अधिक प्रिय लगते है! नीति, प्रेम, परमार्थ और स्वार्थ को रामजी के समान यथार्थ(तत्त्व से)कोई नहीं जानता।
जल में पत्थरो का तैरना भी एक विद्या है
4 -धर्मवीर –
5 पराक्रम वीर – परशुरामजी के आगमन पर राम सब लोगों को भयभीत देखकर और सीता को डरी हुई जानकर बोले -उनके हृदय में न कुछ हर्ष था न विषाद-॥
गुप्तचरों ने रावण से बोल-रामजी एक ही बाण से सैकड़ों समुद्रों को सोख सकते हैं, परंतु नीति निपुण रामजी ने (नीति की रक्षा के लिए) आपके भाई से उपाय पूछा॥
ये पांचो वीरता राम जी में ही है
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नाथ दसानन कर मैं भ्राता। इति अपनी अधमता दिखाने के लिए अपने को रावण का भाई कहकर अपना परिचय दे रहे है पिता का नाम लेकर प्रणाम करने की रीती है पर विभीषण अपने पिता का नाम नहीं लेते क्योकि वे ऋषि है इससे कुलीनता पाई जाती है पिता की जगह बड़े भाई का नाम लिया क्योकि बड़ा भाई पिता तुल्य होता है यहाँ मयंककार आदि ने शंका की है!कि इन्होंने निशिचर वंश क्यों कहा,इनके पिता तो ऋषि हैं?इसके दो कारण पहला अपनी अधमता दिखाने के लिए ऐसा कहा अपनी अधमता दिखाना यह दीनता हैदूसरा माता निशचरी है,माता के ही यहाँ पले भी और वंश की सत्यता संस्कार पर ही होती है! विजया नंद त्रिपाठीजी लिखते हैं- मातृ कुल पितृ कुल भेद से दो कुल या वंश होते हैं। रावणादि का पितृ कुल ऋषिकुल था,और मातृ कुल देत्य कुल था।अपने स्वजनो की करणी विचार करके ऋषि कुल से परिचय देने में उन्हें लज्जा लगी|यह कार्पण्य भक्ति के लक्षणों में हे,अतः निशिचर वंश कहना स्वार्थ प्राप्त था। दूसरा भाव चार बातो से पुरुष की परीक्षा होती है कुल,संग,स्वाभाव,और शरीर से विभीषण जी ने अपने मुख से अपनी अधमता चारो प्रकार से कह रहा है क्रम से सुनिए निसचर बंश में जनम,यह कुल से अधम “दशानन का भ्राता “यह संग अधम का “सहज पाप प्रिय “यह स्वाभाव से अधम और “तामस देह”यह शरीर से अधम बताया है दशानन आपका विरोधी है में उसका भाई हूँ अतः शरण योग्य नहीं हूँ,आप सुरत्राता है में निसिचर सुर विरोधी हूँ तात्पर्य यह की जो आपके सनेही है में उन्ही का विरोधी हूँ और जो आपके विरोधी है उनका में सनेही हूँ आप धर्म प्रिय है मुझको पाप प्रिय है सब प्रकार से आपकी शरण के अयोग्य हूँ किसी प्रकार भी योग्य नहीं हूँ (सुरत्राता=विष्णु,कृष्ण)(उलूकहि=उल्लू)(तम=अँधेरा, अंधकार,तमाल वृक्ष,पाप,अपराध)
“दशानन और भ्राता”निसिचर वंस जनम”और सहज पाप प्रिय!हैं। पाप से भजन नहीं होता यथाः
उल्लू को अंधकार-सहज प्रिय है,वह अशुभ पक्षी हे! वेसे ही मुझे पाप सहज प्रिय है! ओर देह तामसी है अतएव अशुभ है।जैसे तम दुखद बैसे ही पाप ढुखद ।उलूक से संत-विरोधी जनाया, यथाः
रही एक बात वह यह है कि मैंने आपका यह सुजस सुना है की आप शरण सुखद है कैसा भी कोई पापी हो आपकी शरण जाने पर आप उसे अवश्य शरण देते है!
प्रभु यह भी सुना=
प्रभु भंजन भव भीर।आदि विशेषणों का भाव है कि आप समर्थ है में सब प्रकार से असमर्थ हूँ आप भवभीर भंजन है में सभीत हूँ आप आरति हरण है में आर्त हूँ आप शरण सुखद है में शरण में हूँ आप रघुवीर है में आपके शत्रु का भाई हूँ आपके दरबार में दीन का आदर है में सब प्रकार से दीन हूँ! विभीषणने रामजी से कहा मैं अत्यंत नीच स्वभावका राक्षस हूँ।मैंने कभी शुभआचरण नहींकिया।जिनका रूप मुनियोंके भी ध्यानमें नहीं आता, उन प्रभु ने स्वयं हर्षित होकर मुझे हृदय से लगा लिया॥ विभीषण जी अपने को तीन तरह से अनधिकारी बताते है!अपने को निशचर कह कर भजन का अनधिकारी कहा !अपना अधम स्वभाव बता कर ज्ञान का अनधिकारी कहा “सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ”बता कर कर्म का अनधिकारी कहा !
प्रभु ने मुझे हृदय से लगाया और तो और मेरे लिए अपनी प्रतिज्ञा भी तोड़ दी!
श्रीलमगोड़ा जी-सुन्दर कांड वास्तव में अति सुंदर कथाओ का भंडार है। कारण कि सेवा धर्म की पराकाष्ठा हनुमानजी में और शरणागत धर्म का उच्चतम उदाहरण विभीषण जी में मोजूद है।
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भरत की दीनता=भरतजी जैसा संत जिसको राम जी भजते हैं बोल रहा है क्या कारण हुआ कि नाथ नहीं आए? प्रभु ने कुटिल जानकर मुझे कहीं भुला तो नहीं दिया? भरत जी अपने मन में कारण ढूंढ रहे हैं कई कारणों का अनुमान होता है। “नाथ!शब्द से सूचित करते हैं कि मेरी प्रार्थना पर आपने कहा था कि मैं ठीक अवधि पर आऊंगा; पर न आने का क्या कारण हुआ|क्या लक्ष्मण जी नही अच्छे हुए?क्या लंका मे अभी युद्ध ही चल ही रहा है!अथवा स्त्री -हरण की लज्जा से नहीं आते हों ! (निस्तार=छुटकारा, उद्धार) (कलप=युग) (कीधौ=अथवा,वा,या तो,न जाने)
श्री लक्ष्मण जी ने जो अनुमान किया था;वही बात मानकर प्रभु ने भी संभवतः मुझे भुला दिया हो ।कुटिल खोटे भाई भरत कुसमय देखकर और यह जानकर कि रामजी (आप) वनवास में अकेले (असहाय) हैं!
पर भगवान का स्वाभाव तो जो में जनता हूँ!
अवधि बीत जाने पर यदि मेरे प्राण रह गए तो जगत् में मेरे समान नीच कौन होगा? मेरी प्रतिज्ञा भूलने योग्य नहीं थी। क्या सरकार ने मुझे कुटिल समझकर उस प्रतिज्ञा को दम्भ मात्र समझा ।इसलिए मुझे भुला दिया? सरकार के वनवास की अवधि और अवधवासियों के जीवन की अवधि एक ही है| अयोध्या वासियों के विषम वियोग की दशा का वर्णन नहीं किया जा सकता। (चौदह साल की) अवधि की आशा से ही वे प्राणों को रख रहे हैं।
भरतजी=मेरे समान पापों का घर कौन होगा, जिसके कारण सीताजी और श्री रामजी का वनवास हुआ?और मैं दुष्ट, जो अनर्थों का कारण हूँ, होश-हवास में बैठा सब बातें सुन रहा हूँ।
यह भक्ति की कार्पण्य वृति है यथाः
अथवा इसी वृति में अपनी उस करनी का भी स्मरण करते है हनुमानजी को संजीवनी ले जाते समय बाण मारा था अगर हनुमान जीवित नहीं होते तो कोई भी जीवित ना होता अतः भरत जैसा संत बोल रहा है कि मेरी इस करनी को समझे तो करोडो कल्पो तक मेरा निर्बाह नहीं हो सकता जन अवगुन। का भाव वे दीनबन्ध है और में दीन हूँ ,तो अवश्य कृपा करेंगे यथाः
अति मृदुल सुभाऊ। का भाव प्रभु तो अति कोमल स्वाभाव के है अतः मुझ पर क्रोध ना कर के दया ही करेंगे ऐसा कहकर उपर्युक्त “कपटी कुटिल मोहि “का निराकरण किया पहले भी इन्होने कहा था यथाः
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काकभुशुण्डि ने गरुड़ कहा ॥हे गरुड़जी!यद्यपि मैं सब प्रकार से हीन (नीच) हूँ, तो भी आज मैं धन्य हूँ, अत्यंत धन्य हूँ, जो श्री रामजी ने मुझे अपना ‘निज जन’ जानकर संत समागम दिया (आपसे मेरी भेंट कराई) (समागम=सम्मेलन,सभा)
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अंगद की दीनता।
अंगद ने कहा पिता के मरने पर में अशरण था तब आपने मुझे शरण में लिया अर्थात गोद लिया अब आप गोद लेकर त्यागे नहीं कोछे (गोद ) रखकर गिरावे नहीं मुझे त्यागने पर आपका असरन सरन बाना ना रह जायेगा”मोहि जनि तजहु ” का भाव राम जी का रुख देखा की रखना नहीं चाहते ,तब ऐसा कहा”भगत हितकारी” भाव यह है की में भक्त हूँ वहां जाने से मुझे सुग्रीव से भय है अतः मेरा त्याग ना कीजिये,वहां ना भेजिए सुग्रीव से भय का कारण यह की अभी उसके पुत्र नहीं था इससे और आपकी आज्ञा से सुग्रीव ने मुझे युवराज बनाया है जब उसके संतान होगी तब मुझे क्यों जीता छोड़ेगे ?
मोरें तुम्ह प्रभु का भाव औरो के सब नाते पृथक पृथक होते है एक जगह निर्बाह नहीं हुआ तो दूसरी जगह चले जाते है पर मेरे तो सब आप ही है तब में अन्यत्र कहाँ जाऊ ?
(नरनाहा=राजा) का भाव आप तो राजा है राजाओ के व्यवहार को जानते है जरा विचार कर देखे कि एक राजा का पुत्र अपने पिता के बैरी राजा के आश्रित होकर कब सुखी रह सकता है?राजाओ की तो यही रीती है यथाः
यही विचार कर तो बाली ने मुझे आपकी गोद मे डाला है प्रभु तजि भवन काज मम काहा।।भाव यह है कि घर में मेरा क्या काम राजा श्री सुग्रीव जी है उनकी सहायता के लिए मंत्री गण एवं सेना है “प्रभु तजि “का भाव यह है कि घर बार छोड़ कर प्रभु की सेवा करनी चाहिये ,जो प्रभु की सेवा छोड़ कर घर की सेवा करता है उस पर तो विधि कि वामता (प्रतिकूलता,विरुद्धता) होती है यथाः
श्री लक्ष्मणजी, श्री रामजी और श्री जानकीजी को छोड़कर जिसको घर अच्छा लगे, विधाता उसके विपरीत हैं॥
मैं घर की सब नीची से नीची सेवा करूँगा और आपके चरण कमलों को देख-देखकर भवसागर से तर जाऊँगा। ऐसा कहकर वे श्री रामजी के चरणों में गिर पड़े (और बोले-) हे प्रभो! मेरी रक्षा कीजिए। हे नाथ! अब यह न कहिए कि तू घर जा॥
नीचि टहल(सेवा) -कहने का भाव यह की उच्च सेवा के अधिकारी भरत आदि है
(सुग्रीव ने कहा-) हे पवनकुमार! तुम पुण्य की राशि हो (जो भगवान ने तुमको अपनी सेवा में रख लिया)। जाकर कृपाधाम श्री राम जी की सेवा करो। सब वानर ऐसा कहकर तुरंत चल पड़े।
अंगद ने कहा- हे हनुमान! सुनो-॥मैं तुमसे हाथ जोड़कर कहता हूँ, प्रभु से मेरी दण्डवत कहना और श्री रघुनाथजी को बार-बार मेरी याद कराते रहना॥
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