जौं बिनु बोलें जाहु भवानी। रहइ न सीलु सनेहु न कानी॥

जौं बिनु बोलें जाहु भवानी। रहइ न सीलु सनेहु न कानी॥

जौं बिनु बोलें जाहु भवानी

शिव जी के मन को भाने का कारण- यज्ञ भगवान का अंग है उसका दर्शन करने से  धर्म पुण्य होता है उसे अवश्य देखना चाहिए अतः इसमें कोई संदेह नहीं में तुमको अवश्य भेजता पर बिना निमंत्रण के वहां जाना उचित नहीं है क्योंकि यज्ञ में भाग पाने वाले देवताओं के नाते मुझको भी बुलाना चाहिए (सूत्र) अगर किसी बात का खंडन करना हो तो सामान्य तोर पर पहले समर्थन करे फिर युक्ति पूर्वक उसका खंडन करना चाहिए सीधे सीधे खंडन करने से द्वेष होता है। (नीक=अच्छा, अनुकूल)


कहेहु नीक मोरेहुँ मन भावा। यह अनुचित नहिं नेवत पठावा।।

भरत और राम जी ने भी युक्ति पूर्वक खंडन किया-  

मोहि उपदेसु दीन्ह गुरु नीका। प्रजा सचिव संमत सबही का॥
गुर पितु मातु स्वामि हित बानी। सुनि मन मुदित करिअ भलि जानी॥

हित हमार सियपति सेवकाईं। सो हरि लीन्ह मातु कुटिलाईं॥
मोहि समान को पाप निवासू। जेहि लगि सीय राम बनबासू॥
मोहि राजु हठि देइहहु जबहीं। रसा रसातल जाइहि तबहीं॥

राम जी ने भी युक्ति पूर्वक खंडन किया-  

कही तात तुम्ह नीति सुहाई। सब तें कठिन राजमदु भाई॥
सुनहू लखन भल भरत सरीसा। बिधि प्रपंच महँ सुना न दीसा॥

दच्छ सकल निज सुता बोलाई। हमरें बयर तुम्हउ बिसराई।।

पर वैर के कारण मेरे साथ साथ तुमको भी नहीं बुलाया शिवजी ने पार्वतीजी से कहा। आपके पिता दक्ष हमसे वैर मानते हैं और हमारे नाते तुमसे भी वैर मानते हैँ। इस कारण तुम भी भुला दी गई अतः (नेवता=निमंत्रण)  नहीं भेजा! मिश्र जी का मत- यहाँ दक्ष का जैसा नाम वैसा ही गुण दिखाया गया है। (दक्ष=चतुर, सयाना,चालाक)  दक्ष ने खूब चतुराई दिखाई। तुमको बुलाया नहीं यही चतुराई है। जिसमें तुम्हारा और हमारा प्रकट अपमान हो।

ब्रह्मसभाँ हम सन दुखु माना। तेहि तें अजहुँ करहिं अपमाना॥

शिवजी ने पार्वतीजी से कहा। एक बार ब्रह्मा की सभा में हम से अप्रसन्न हो गए थे, उसी से वे वैर मानते है और अब भी हमारा अपमान करते है। एक बार विश्वस्रष्टाओं ने एक यज्ञ किया जिसमें सभी परमऋषि, देवता, और मुनि अपने अपने अनुयायियों के साथ सम्लित हुए उसी में में सूर्य के समान तेज वाले दक्ष भी आये उनको देखकर ब्रह्मा शंकर जी को छोड़ कर सभी ने अपने आसान से उठकर सम्मान किया शंकर जी के इस व्यवहार से दक्ष ने उस महासभा में कई दुर्वचन शंकर जी के लिए कहे और ग्लानि करने लगे की ब्रह्मा जी के कहने पर मैंने अपनी भोली भाली सुन्दर कन्या का विवाह शंकर जी से कर दिया फिर भी शंकर जी ने कोई जबाब नहीं दिया अंत में दक्ष ने शंकर जी को श्राप दे दिया। इस घटना में तीन श्राप  एक दुसरे को दिए गए 1 दक्ष  ने- देवयज्ञ में इंद्र उपेंद्र आदि देवगणों के साथ शिव जी यज्ञ का भाग ना पावें 2 नंदीश्वर को बड़ा क्रोध आया- नंदीश्वर ने दक्ष और सभी को दक्ष के कुवाक्यों का समर्थन करने के कारण श्राप दिया कि दक्ष सदा तत्वज्ञान से विमुख रहे इसका मुख बकरे का हो और इसके अनुयायी हमेशा संसार चक्र में पड़े रहे और ये ब्राह्मण हमेशा पेट पालने के लिए विद्या तप व्रत का सहारा लेवे तथा धन शरीर और इन्द्रियों में ही सुख माने और भिक्षुक  होकर हमेशा पृथ्वी पर विचरा करे। 3  इस पर भृगु जी से ना रहा गया अतः  भृगु जी ने श्राप दिया-  शिव भक्त और उनके अनुयायी शास्त्रों के विरुद्ध आचरण करने वाले पाखंडी शौच हीन बुद्धि हीन ,जटाधारी , भस्म और अस्थियाँ को धारण करने वाले होवें।

जौं बिनु बोलें जाहु भवानी। रहइ न सीलु सनेहु न कानी॥

हे भवानी! जो तुम बिना बुलाए जाओगी तो शील-स्नेह नहीं रहेगा और मान-मर्यादा भी नहीं रहेगी। भवानी कहने का भाव- शंकर जी ने कहा तुम हमारी पत्नी हो अतः इस तरह के अपमान को नहीं सह सकोगी (सीलु=शील=व्यवहार, आचारण) ( सनेहु=प्रेम) (कानी=मान, प्रतिष्ठा)

जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा। जाइअ बिनु बोलेहुँ न सँदेहा॥

शिवजी ने पार्वतीजी से कहा। (सूत्र) मित्र, स्वामी, पिता और गुरु  के घर को अपना घर ही मानना चाहिए इसलिए मित्र, स्वामी, पिता और गुरु के घर बिना बुलाए भी जाना चाहिए पर हे पार्वती जहाँ कोई विरोध मानता हो, उसके घर जाने से कल्याण नहीं होता। 

तदपि बिरोध मान जहँ कोई। तहाँ गएँ कल्यानु न होई॥

जब मित्र के यहाँ जाने से कल्याण नहीं है तब किसी दुसरे के यहाँ जाने से कैसे संभव होगा? (सूत्र) जहाँ कही भी कोई विरोध मानता हो वहां जाने से कल्याण नहीं होता तो फिर यदि माता पिता ,भाई बंधु ,स्नेही आदि जब विरोध मानने लगे तब तो महाराज उनके समान दूसरा शत्रु हो ही नहीं सकता वहां कल्याण तो छोड़ो प्राण बचाना मुश्किल हो जायेगा।  

तुलसी दास जी ने भी यही कहा है।(कंचन=सोना,धन, संपत्ति) (हिय=मन, हृदय)

आवत हिय हरषै नहीं, नैनन नहीं सनेह।
तुलसी तहाँ न जाइए, कंचन बरसे मेह॥

शिवजी ने बहुत प्रकार से समझाया, पर होनहार वश सती के हृदय में बोध नहीं हुआ। फिर शिवजी ने कहा कि यदि बिना बुलाए जाओगी, तो हमारी समझ में अच्छी बात न होगी।

भाँति अनेक संभु समुझावा। भावी बस न ग्यानु उर आवा॥

शिवजी भावी की प्रबलता समझते थे, भविष्य भी जानते थे तब उसमें रुकावट क्यों डालते हैं? इसका समाधान यह कि यहाँ शिव जी हम सभी को शिक्षा दे रहे हैं। सती का अपमान अपना ही अपमान है! रही भावी, वह तो अमिट है। सतीजी मानेगी  ही क्यों? शंकर जी इससे उपदेश दे रहे हैं कि कर्तव्य करना अपना धर्म है, उससे चूकना नही चाहिये और फल तो हरि-इच्छानुसार हो होगा। (सुजान=कुशल, निपुण) (प्रजेश=राजा, प्रजापति)

हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत संभु सुजाना॥
होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥

कह प्रभु जाहु जो बिनहिं बोलाएँ। नहिं भलि बात हमारे भाएँ॥
जद्यपि जग दारुन दुख नाना। सब तें कठिन जाति अवमाना॥
एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी। अकथनीय दारुन दुखु भारी॥

यद्यपि जगत में अनेक प्रकार के दारुण दुख है  पर , जाति, समाज ,परिवार के द्वारा किया गया अपमान सबसे बढ़कर कठिन है। यज्ञ में भाग ना देना ही सबसे बड़ा अपमान है इसका सीधा सीधा अर्थ है महादेव जी को देव जाति से बहिष्कृत करना अतः सती को अति क्रोध हुआ। सतीजी की माता ने उन्हें बहुत प्रकार से समझाया-बुझाया। परन्तु शिव जी का अपमान सती जी से सहा नहीं जाता और न मन को संतोष ही होता है। (प्रजेश=राजा,प्रजापति)

समुझि सो सतिहि भयउ अति क्रोधा। बहु बिधि जननीं कीन्ह प्रबोधा॥

पार्वतीजी ने कहा। त्रिपुर दैत्य को मारने वाले भगवान महेश्वर सम्पूर्ण जगत की आत्मा हैं, वे जगतपिता और सबका हित करने वाले हैं। पर मेरा मंदबुद्धि पिता उनकी निंदा करता है शिव जी का उपकार और महिमा ना जानने से सती ने अपने पिता को मंदबुद्धि कहा और मेरा यह शरीर दक्ष ही के वीर्य से उत्पन्न है।

जगदातमा महेसु पुरारी। जगत जनक सब के हितकारी॥
पिता मंदमति निंदत तेही। दच्छ सुक्र संभव यह देही॥
तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू। उर धरि चंद्रमौलि बृषकेतू॥

तजिहउँ तुरत- (सूत्र) भगवान विमुख से पल भर भी संबंध नहीं रखना चहिये अतः में अब क्षण भर भी पिता पुत्री का संबंध नहीं रखूगी पिता का नाम लेना निषेध है पर अब दक्ष के साथ साथ मतिमंद भी कहा इस तरह सती जी बताया कि अब दक्ष से मेरा कोई संबंध नहीं है। (चंद्रमौलि=जो सिर पर चंद्रमा धारण करें , शंकर) (बृषकेतू=शिव या महादेव, जिनकी ध्वजा पर बैल का चिह्न माना जाता, बैल=धर्म का प्रतीक है ) (मख=यज्ञ)

अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। भयउ सकल मख हाहाकारा॥

इसलिए चन्द्रमा को ललाट पर धारण करने वाले वृषकेतु शिवजी को हृदय में धारण करके मैं इस शरीर को तुरंत ही त्याग दूँगी। ऐसा कहकर सतीजी ने योगाग्नि में अपना शरीर भस्म कर डाला। सारी यज्ञशाला में हाहाकार मच गया।

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जौं बिनु बोलें जाहु भवानी। रहइ न सीलु सनेहु न कानी॥
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