जामवंत, कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना।।

कहइ रीछपति सुनु हनुमाना।

काकभुशुण्डिजी कहते हैं- हे गरुड़जी! हनुमान जी को छोड़ कर सभी बलवान है तभी तो सभी ने अपने अपने बल का वर्णन किया पर समुद्र पार होने में संदेह है। प्रभुने कृपा रूप में मुद्रिका तो हनुमान जी को दी है  अतः हनुमान जी का जाना ही उचित है अतः सभी ने उतना ही बल कहा जितने में पार जाने में संदेह रहे। (सूत्र) कोई भी अपने आचरण के बल से संसार समुद्र से पार नहीं जा सकता! ये तो प्रभु की कृपा के बल से ही पार होता है।

निज निज बल सब काहूँ भाषा। पार जाइ कर संसय राखा॥
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू। जन्म हमार सुफल भा आजू।।

जामवंत जी ने हनुमानजी से कहा- ‘हनुमान  चुप क्यों हो? अपने आप को पहचानो, अपने कुल के गौरव को याद करो, राम के कार्य के लिये ही तुम्हारा अवतार हुआ है। पथ-प्रदर्शक जामवंतजी के वाक्य जब हनुमानजी के कानों में पड़े तो उनकी बुद्धि जाग्रत हुई। पथ-प्रदर्शक के कारण ही उनकी लघुता प्रभुता में परिवर्तित हो गयी। वे पर्वताकार हो गये। उन्होंने पास ही स्थित पर्वत शिखर पर चढ़ कर तीव्र गर्जना की, लेकिन अपना संयम नहीं खोया, अपने मानसिक संतुलन को यथावत बनाये रखा।

सच्चा बलवान निर्भीक होते है, क्योंकि उसका प्रमुख आभूषण है नम्रता, जामवंत की प्रेरणादायिनी वाणी से हनुमानजी अत्यन्त प्रसन्न हो गए। (सिंहनाद=शेर की गरज या दहाड़) करते हुए उन्होंने कहा- मैं समुद्र पारकर सम्पूर्ण लंका को ध्वंस कर माता जानकी जी को ले आऊँगा या आप आज्ञा दें तो मैं दशानन के गले में रस्सी बाँधकर और लंका को त्रिकूटपर्वत सहित बायें हाथ पर उठाकर प्रभु राम के सम्मुख डाल दूँ। अथवा केवल माता जानकी जी को ही देखकर चला आऊँ। पवनपुत्र हनुमानजी के तेजोमय वचन सुनकर जामवंत जी बहुत प्रसन्न हुए। पंडित विजयानंद का मत है कि हनुमान जी यह सोच कर चुप बैठे है कि “यह रामदूत” होने के गौरव  प्राप्त करने का अवसर है अतः कोई लेना चाहे तो मै बोल कर बाधक क्यों बनू ?

मै तो आज्ञा कारी हूँ! जब सब लोग आज्ञा देंगे तभी जाऊंगा! जामवंत जी इस बात को समझते है अतः सभी के अस्वीकार करने पर हनुमान जी से कहा (रीछपति = जामवंत) 

कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना।।

हनुमानजी के चुप बेठने में श्री राम जी की प्रेरणा ही मुख्य कारण है यदि वे शुरू में  ही कह देते कि ‘जाऊं में पारा! तो इसमें उनकी कोई विशेषता न रह जाती। दुसरो- को कहने का अवसर मिल जाता कि हनुमानजी पहले ही तैयार हो गए, नहीं तो हम भी यह कार्य  कर सकते थे। जनकपुर में जनक जी कहा अब कोई भी अपने को वीर न कहे, अब कोई वीरता का अभिमानी ना करें, मैंने समझ लिया कि पृथ्वी वीर बिहीन हो गई है। (महि= पृथ्वी)

अब जनि कोउ माखै भट मानी। बीर बिहीन मही मैं जानी॥

जनक जी की सभा में इतना सुनकर भी श्री रामजी धनुष तोड़ने को नहीं उठे, और दूसरो को उठने का अवसर दिया, वैसे ही यहाँ रामदूत हनुमान ने किया! (सूत्र) सच्चे काम करने वाले को यह अभिमान नहीं रहता कि में ही कार्य करूँगा, दूसरे को न करने दूँगा।

पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।।

पवन के पुत्र हो, अतः, समुद्र  के लॉधने में उन्हीं के समान बल है। आगे छली और बली देत्यो से काम पढ़ेगा।उसमे बुद्धि, विवेक, और विज्ञान से काम लेना होगा वह भी तुममें पूर्ण है। बुद्धि से व्यवहार समझोगे, विवेक से उचित- अनुचित  समझोगे, और विज्ञान से कार्य का अनुभव करोगे। (निधाना=  धन,खान, खजाना)

कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं।।

अभी तक अपनी प्रशंसा थी, इससे चुप थे, और जैसे ही जामवंत ने कहा राम कार्य के लिये तुम्हारा अवतार हुआ वैसे ही गरज उठे! श्रीराम कार्य के लिये अपना जन्म सुनकर हरषे और शरीर बढ़ाया।

राम काज लगि तब अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्वताकारा।।

उनका सोने का सा रंग है, शरीर पर तेज सुशोभित है, मानो दूसरा पर्वतों का राजा सुमेरु हो। (अपर= दूसरा)

कनक बरन तन तेज बिराजा। मानहु अपर गिरिन्ह कर राजा।।

हनुमानजी ने जामवंत से कहा- हनुमान जी ने बार-बार सिंहनाद करके कहा- मैं इस खारे समुद्र को खेल में ही लाँघ सकता हूँ। (नाद= ध्वनि,आवाज़)

सिंहनाद करि बारहिं बारा। लीलहीं नाषउँ जलनिधि खारा।।
सहित सहाय रावनहि मारी। आनउँ इहाँ त्रिकूट उपारी।।
जामवंत मैं पूँछउँ तोही। उचित सिखावनु दीजहु मोही।।

हे हनुमान तुमको ये सब नहीं करना केवल सीता को देख कर वापस आना है।

एतना करहु तात तुम्ह जाई। सीतहि देखि कहहु सुधि आई।।

हे तात! तुम जाकर इतना ही करो (अभी अधिक पराक्रम का काम नहीं है) क्योंकि राजीव लोचन राम जी अपने बाहुबल से, कौतुक अर्थात लीला के लिये वानरी सेना साथ लेंगे। वानर सेना साथ लिये हुए, निशचरो का नाश करके श्रीराम जी सीता जी को लावेगे। तीनों लोको को पवित्र करने वाले श्रीराम जी के सुन्दर यश को सुर, मुनि और श्री नारद जी बखान करेंगे! और जिसे सुनते, गाते, कहते और समझते हुए मनुष्य परम पद पाते हैं। (इव= समान) (भवनिधि= संसार सागर)

कहहिं सुनहिं अनुमोदन करहीं। ते गोपद इव भवनिधि तरहीं।।

(सूत्र) कपट छोड़कर यह कथा गाते हैं, जो इसे कहते-सुनते और अनुमोदन अर्थात प्रशंसा करते हैं, वे मनुष्य अपनी मनःकामना की सिद्धि पा लेते हैं। वे मनुष्य संसार सागर को गाय के खुर से बने हुआ गड्ढे की भाँति पार कर जाते हैं। ये तो केवल और केवल प्रभु की सत्ता को स्वीकार करने का प्रभाव है पर महराज कपट तो छोड़ना ही पड़ेगा 

पर यह सब कब होगा? पुरुषार्थ से नहीं केवल और केवल प्रभु कृपा से ही संभव है।

अति हरि कृपा जाहि पर होई। पाउँ देइ एहिं मारग सोई।।
यह गुन साधन तें नहिं होई। तुम्हरी कृपा पाव कोइ कोई॥


कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना।।

Mahender Upadhyay

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