कबीर ने कहा था सदमार्ग पर चलने के लिए जीवन में गुरु का होना आवश्यक है, मार्गदर्शन के लिए, रास्ता दिखाने के लिए। अकेले तो आप शुरू से ए बी सी डी पड़ेंगे , फिर से सारे रास्ते खोजेंगे । गुरु एक (कैटेलिस्ट=उत्प्रेरक) होता है गुरु एक उत्प्रेरक है, आपके रास्ते सुगम करने के लिए ,सुरक्षित बनाने के लिए , सुनिश्चित करने के लिए कि आप अपनी मंज़िल तक पहुंच जाये। गुरु तो अनुभव कि खान है, जिन रास्तो पर आप चलने का प्रयास कर रहे है वह उन पर सफलतापूर्वक चल चुका होता है। (सूत्र) श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि अवतार लेकर धरा पर आये, तब उन्होंने भी गुरु विश्वामित्र, वसिष्ठजी तथा सांदीपनी मुनि जैसे ब्रह्मनिष्ठ संतों की शरण में जाकर मानव मात्र को सदगुरु महिमा का महान संदेश प्रदान किया।
बाबा तुलसी ने गुरु की महिमा में लिखा -जिनके चरण कमलों के (दर्शन एवं स्पर्श के) लिए वैराग्यवान पुरुष भी भाँति-भाँति के जप और योग करते हैं।वे ही दोनों भाई अर्थात राम और लछ्मण प्रेमपूर्वक गुरुजी के चरण कमलों को दबा रहे हैं।
इसी लिए बाबा तुलसी ने तो प्रभु की इस (कौतुक=लीला,अचरज ) को साधारण नहीं कहा बहुत अधिक विशेष कहा
राम औरकृष्ण ही नहीं उनके पिता भी गुरु की शरण में गए।
संत जन कहते है दशरथ जी चौथे पन तक निसंतान क्यों रहे? क्योंकि महाराज दशरथ अपने गुरु के द्वार तक संतान की इच्छा लेकर कभी गए हीं नहीं और जिस दिन अपने गुरु वशिष्ट जी के द्वार पर संतान पाने की लालसा लेकर गए तो स्वयं भगवान श्री राम के रूप में अवतरित हो गए क्योंकि भगवान का यह संकल्प है कि जो गुरु के द्वार तक नहीं जाता है मै उसको प्राप्त ही नहीं होता। (सूत्र) बिना गुरु के प्रभु की प्राप्ति हो ही नहीं सकती।
कलयुग में अगर किसी गुरु का मिलना कठिन प्रतीत होता हो तो श्री कृष्ण या शंकर को अपना गुरु मानना चाहिए क्योंकि श्री कृष्ण समूचे जगत के गुरु हैं । क्योंकि शास्त्र कहता है।माता पार्वती ने शंकर जी से कहा कि वेदों ने आपको तीनों लोकों का गुरु कहा है।
अर्थात् मैं गुरु महाराज के चरणकमलों की रज की वंदना करता हूं, जो सुरुचि, सुगंध तथा अनुरागरूपी रस से पूर्ण है। वह अमरमूल का सुंदर चूर्ण है, जो संपूर्ण भवरोगों के (परिवार=समूह) को नाश करनेवाला है।
मानस में लिखा गया है कि ब्रह्माजी में सृष्टि बनाने की ताकत है और भगवान शंकरजी में सृष्टि प्रलय करने की ताकत है । फिर भी गुरु के बिना जन्म-मरण के चक्कर से तुम पार नहीं हो सकते। शास्त्रों में गुरु कि अनन्त महत्ता का वर्णन है। सभी जानते हैं कि शब्द में ताकत होती है लेकिन वह शब्द अगर दैवी शब्द है तो दैविक फायदे ही होते हैं या आध्यात्मिक शब्द है तो आध्यात्मिक फायदे ही प्राप्त होते हैं । यदि यह मंत्र है और गुरु के द्वारा विधिवत् रूप से दिया है तो उसके जप से जो फायदा होता है उसका वर्णन हम-तुम या खुद परमात्मा भी नहीं कर सकते। क्योंकि गुरु के द्वारा दिया गया मंत्र सर्वोपरि होता है। शिरोमणि भगवान भी राम प्रातःकाल उठ कर अपने माता पिता और गुरु को सिर झुका कर प्रथम प्रणाम करते है।
भरत जैसा संत जिसका पूरी की पूरी राम कथा में कोई अपराध ही नहीं है पर अपने को दोषी मानकर सजा काटी, राम भी उसी भरत का भजन करते है और भरत की साधना को देख कर तो स्वयं वसिष्ठ जी भी (पातक= नरक में गिरानेवाला पाप) (सरिस=समान,तुल्य)
ऐसे संत ने भी गुरु की महिमा कही ।
गुरु, पिता, माता, स्वामी और सुहृद् (मित्र) की वाणी सुनकर प्रसन्न मन से उसे अच्छी समझकर करना (मानना) चाहिए। उचित-अनुचित का विचार करने से धर्म जाता है और सिर पर पाप का भार चढ़ता है।
माता, पिता, गुरु और स्वामी की बात को बिना ही विचारे शुभ समझकर करना (मानना) चाहिए।
पर एक बार आज्ञा देने के पहले विचार अवश्य करना चाहिए।
इसी तरह जब गुरु या माता पिता आज्ञा देते हैं, तब यह देखना चाहिए कि गुरु ने गुरुत्व पर और पिता ने पितृत्त्व पर स्थित होकर ही आज्ञा दी है या नहीं। यदि ऐसा न हो, गुरु ने बिना गुरुत्त्व में स्थित हुए आज्ञा दी हो और ब्यक्ति उसे गुरु की आज्ञा समझ कर उसका पालन कर ले, तो वह वस्तुतः धर्म-पालन की भ्रान्ति में अधर्म कर लेता है।
भगवान राम ने लक्ष्मण से कहा कि तुम मेरे साथ बन मत चलो। पर लक्ष्मणजी ने नहीं माना। श्रीराम ने सीताजी से भी साथ चलने की मनाही की, पर उन्होंने भी श्रीराम का कहना अस्वीकार कर दिया। सुमंत ने भगवान राम से कहा- आपके पिता दशरथ ने कहा है कि आप लोगों को चार दिन वन में घुमाकर वापस अयोध्या ले चलूँ पर भगवान राम ने इसे नहीं माना। भरतजी को गुरु वशिष्ठ के द्वारा पिता का आदेश सुनाया गया कि तुम्हें अयोध्या का राज्य स्वीकार करना है, पर भरतजी ने उसे अमान्य कर दिया।
(सूत्र) अब ये पात्र ही तो हमारे धर्म के सर्वोच्च आदर्श हैं, और ये बड़ों का आदेश नहीं मानते। क्यों? इसलिए कि वे देखते हैं कि इस आदेश का आधार भोग है। वस्तुतः धर्म का उद्देश्य, भोग पर नियंत्रण है, न कि भोग का समर्थन। इसलिए इन महान पात्रों ने एक कसौटी बनाई कि आज्ञा भोग के लिए दी जा रही है या त्याग के लिए? और उन्होंने भोग के लिए दी जा रही आज्ञा को स्वीकार नहीं किया।
(सूत्र) अगर किताबों के अध्ययन के साथ-साथ नियमित रूप से मंत्र का बोलकर जाप किया जाए या मन ही मन स्मरण किया जाए, तो इससे एकाग्रता बढ़ती है. पढ़ाई-लिखाई में उत्साह मिलता है. सबसे बड़ी बात यह कि प्रभु की कृपा से विद्या फलदायी होती है.
श्री रघुनाथजी (भाइयों सहित) गुरु के घर में विद्या पढ़ने गए और थोड़े ही समय में उनको सब विद्याएँ आ गईं॥विद्या उसे कहते हैं जो हमारे भेद को मिटा दे। पूर्णता प्राप्त कर दे। हमारे होने के अर्थ को प्रकट कर दे। हमारे अंदर के भय और भ्रम का निवारण कर दे।अभाव का भंजन कर दे भीतर की पवित्रता को प्रगट कर दे। हमारे उद्देश्य को जो स्पष्ट कर दे। विद्या के बाद व्यक्ति में पूर्णता आती है।
दशरथ जी वशिष्ठ जी से बोले श्री राम जी की लोकप्रियता इतनी बड़ी हुई है कि मेरे शत्रु एवं उदासीन भी राम जी से प्रेम करते है बाकी लोग जो मेरे को मानते है इसलिए मेरे पुत्र को माने ये कोई बड़ी बात नहीं है मै ऐसा मानता हूँ की आपका आशीर्वाद ही मेरे यहाँ पुत्र रूप में प्रकट हुआ है जो लोग गुरु के चरणों की रज को मस्तक पर धारण करते हैं, वे मानो समस्त ऐश्वर्य को अपने वश में कर लेते हैं। इसका अनुभव मेरे समान दूसरे किसी ने नहीं किया। आपकी पवित्र चरण रज की पूजा करके मैंने सब कुछ पा लिया।
भक्त भक्ति भगवंत गुरु कहने के लिए नाम चार है , किन्तु इनमे कोई भेद नही है, जैसे एक माला में कहने को चार तत्व विद्यमान है, मोती, धागा, फुंदना, और सुमेरु किन्तु माला एक ही है, इसी प्रकार भक्त माला के मोतियों के समान है, और सुमेरु श्री गुरुदेव है।
पार्वती जी सप्त ऋषियों से बोली मैं नारदजी के वचनों को नहीं छोड़ूँगी, चाहे घर बसे या उजड़े, इससे मैं नहीं डरती। जिसको गुरु के वचनों में विश्वास नहीं है, उसको सुख और सिद्धि स्वप्न में भी सुगम नहीं होती, पार्वती जी की गुरु के प्रति आस्था और विश्वास की (पराकाष्ठा=चरम सीमा) है जिसमें पत्थर भी पानी में तैर जाते हैं ।रामसेतु इसका प्रमाण है जो आज भी देखा जा सकता है।पत्थर का पानी में तैर जाना आस्था की पराकाष्ठा है। (सूत्र) माता पार्वती तो एक निष्ठ भक्ति की गुरु है।
सद्गुरु रूपी वैद्य के वचन में विश्वास हो। विषयों की आशा न करे, यही संयम (परहेज) हो। (संयम=रोक, निग्रह, नियंत्रण,इंद्रिय निग्रह)
विश्वामित्र रामको आदेश देते हैं कि वह शंकर जी के धनुष को तोड़कर राजा जनक की पीडा को दूर करें। सीता जी अपने मन में स्तुति करती हैं। भगवान श्रीराम धनुष को देखते हैं। मन में गुरु को प्रणाम कर धनुष को तोड़ देते हैं।
मन ही मन उन्होंने गुरु को प्रणाम किया और बड़ी फुर्ती से धनुष को उठा लिया। जब उसे (हाथ में) लिया, तब वह धनुष बिजली की तरह चमका और फिर आकाश में मंडल जैसा (मंडलाकार) हो गया॥ लेते, चढ़ाते और जोर से खींचते हुए किसी ने नहीं (लखा=दिखाई देना) अर्थात ये तीनों काम इतनी फुर्ती से हुए कि धनुष को कब उठाया, कब चढ़ाया और कब खींचा, इसका किसी को पता नहीं लगा, सबने श्री रामजी को (धनुष खींचे) खड़े देखा। उसी क्षण श्री रामजी ने धनुष को बीच से तोड़ डाला। भयंकर कठोर ध्वनि से (सब) लोक भर गए।
जो मूर्ख गुरु से ईर्षा करते हैं, वे करोड़ों युगों तक रौरव नरक में पड़े रहते हैं। फिर (वहाँ से निकलकर) वे तिर्यक् (पशु, पक्षी आदि) योनियों में शरीर धारण करते हैं और दस हजार जन्मों तक दुःख पाते रहते हैं।
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