कारन कवन नाथ नहिं आयउ। जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ।।

कारन कवन नाथ नहिं आयउ

भरत की दीनता=भरतजी जैसा संत जिसको राम जी भजते हैं। बृहस्पति जी इंद्र से भरतजी की महिमा का बखान करते है! सारा संसार तो श्री राम जी को जपता है,पर श्री रामजी भरतजी को जपते हैं! अतःभरतजी के समान श्री रामचंद्रजी का प्रेमी कौन होगा? वही भरतजी बोल रहे है, क्या कारण हुआ कि नाथ नहीं आए? प्रभु ने कुटिल जानकर मुझे कहीं भुला तो नहीं दिया? भरत जी अपने मन में कारण ढूंढ रहे हैं कई कारणों का अनुमान होता है। “नाथ!शब्द से सूचित करते हैं कि मेरी प्रार्थना पर आपने कहा था कि मैं ठीक अवधि पर आऊंगा, पर न आने का क्या कारण हुआ। क्या लक्ष्मण जी नही अच्छे हुए? क्या लंका मे अभी युद्ध ही चल ही रहा है! अथवा स्त्री-हरण की लज्जा से नहीं आते हों। (निस्तार= छुटकारा, उद्धार) (कलप= युग) (कीधौ= अथवा, वा,या तो,न जाने) (बौराइ= पागल) (सरिस= समान,तुल्य)

भरत सरिस को राम सनेही। जगु जप राम रामु जप जेही

कारन कवन नाथ नहिं आयउ। जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ।।

श्री लक्ष्मण जी, निषादराज गुह ने जो अनुमान किया था,वही बात मानकर प्रभु ने भी संभवतः मुझे भुला दिया हो। लक्ष्मण जी का मत कुटिल भाई भरत और शत्रुघन अनेकों प्रकार की कुटिलताएँ रचकर सेना बटोरकर दोनों भाई आए हैं। यदि इनके हृदय में कपट और कुचाल न होती, तो रथ, घोड़े और हाथियों की कतार (ऐसे समय) किसे सुहाती ?

कुटिल कुबंधु कुअवसरु ताकी। जानि राम बनबास एकाकी॥

परंतु भरत को ही व्यर्थ कौन दोष दे? (सूत्र) राजपद पा जाने पर सारा जगत ही पागल (मतवाला) हो जाता है।अर्थात इस संसार में ऐसा कोई नहीं है जिसको प्रभुता पाकर घमंड न हुआ हो। (घमंड= अभिमान) (प्रभुता= स्वामित्व, अधिकार)

भरतहि दोसु देइ को जाएँ। जग बौराइ राज पदु पाएँ॥
नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं।प्रभुता पाइ  जाहि मद नाहीं॥

पर में तो मेरे रामजी का स्वाभाव तो  में जनता हूँ। (कोह= क्रोध,गुस्सा)

मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ॥

भरतजी जैसा संत कह रहा कि-अवधि बीत जाने पर यदि मेरे प्राण रह गए तो जगत में मेरे समान नीच कौन होगा? मेरी प्रतिज्ञा भूलने योग्य नहीं थी। क्या सरकार ने मुझे कुटिल समझकर उस प्रतिज्ञा को दम्भ मात्र समझा ।इसलिए मुझे भुला दिया? सरकार के वनवास की अवधि और अवधवासियों के जीवन की अवधि एक ही है। अयोध्या वासियों के विषम वियोग की दशा का वर्णन नहीं किया जा सकता।अयोध्या वासियों ने (चौदह साल की) अवधि की आशा से अपने प्राणों को रख रहे हैं।

बीतें अवधि रहहिं जौं प्राना। अधम कवन जग मोहि समाना॥
बिषम बियोगु न जाइ बखाना। अवधि आस सब राखहिं प्राना।।

अहा! लक्ष्मण बड़े धन्य एवं बड़भागी है, जो श्रीरामचन्द्रजी के चरणारविन्द के प्रेमी हैं(अर्थात् उनसे अलग नहीं हुए)। मुझे तो प्रभु ने कपटी और कुटिल पहचान लिया, इसी से नाथ ने मुझे साथ नहीं लिया।

भारत जी अपने मन में विचार कर रहे है- कि मैं चित्रकूट सेना को साथ लेकर गया था,मेरे द्वारा उनकी स्वतंत्रता में बाधा डाली गई,अतः रामजी ने मुझे पहचान लिया कि मेरे  मन में तो राजसी ठाट बाट है और ऊपर से केवल बाते बनता हू। देखो कैसे कुअवसर पर मेने हनुमान जी को अपने बाण से घायल किया।

अहह धन्य लछिमन बड़भागी। राम पदारबिंदु अनुरागी।।
कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा। ताते नाथ संग नहिं लीन्हा।।

भरतजी कह रहे है-मेरे समान पापों का घर कौन होगा, जिसके कारण सीताजी और श्री रामजी का वनवास हुआ?और मैं दुष्ट, जो अनर्थों का कारण हूँ, होश-हवास में बैठा सब बातें सुन रहा हूँ।

मोहि समान को पाप निवासू। जेहि लगि सीय राम बनबासू॥
मैं सठु सब अनरथ कर हेतू। बैठ बात सब सुनउँ सचेतू॥

यह भक्ति की कार्पण्य वृति है यथाः

जौं अपने अवगुन सब कहऊँ। बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ।।

अथवा इसी वृति में अपनी उस करनी का भी स्मरण करते है हनुमानजी को संजीवनी ले जाते समय बाण मारा था। अगर हनुमान जीवित नहीं होते तो कोई भी जीवित ना होता अतः भरतजी  बोल रहे है कि मेरी इस करनी को समझे तो करोडो कल्पो तक मेरा निर्बाह नहीं हो सकता। मुझे करोडो कल्पो तक भी क्षमा नहीं मिल सकती।

नाथ सकल साधन मैं हीना। कीन्ही कृपा जानि जन दीना।।

अति मृदुल सुभाऊ। का भाव प्रभु तो अति कोमल स्वाभाव के है अतः मुझ पर क्रोध ना कर के दया ही करेंगे ऐसा कहकर उपर्युक्त “कपटी कुटिल मोहि “का निराकरण किया पहले भी इन्होने कहा था। यथाः

देखि दोष कबहुँ न उर आने। सुनि गुन साधु समाज बखाने।।
जौं करनी समुझै प्रभु मोरी। नहिं निस्तार कलप सत कोरी।।

पर में तो मेरे प्रभु का स्वाभाव जनता हूँ कि वे अपने सेवक का अवगुण कभी नहीं मानते। वे दीनबंधु हैं और अत्यंत ही कोमल स्वभाव के हैं! राम जी तो बिना कारण के ही कृपा करते है!जन अवगुन। का भाव वे दीनबन्ध है और में दीन हूँ,तो अवश्य कृपा करेंगे यथाः

जन अवगुन प्रभु मान न काऊ। दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ।।
कोमल चित अति दीनदयाला। कारन बिनु रघुनाथ कृपाला

इस प्रसंग में भक्ति का शुद्धतम रूप है – जहाँ अपने को को शून्य मानकर प्रभु को पूर्ण रूप से स्वीकार करना ही उद्धार का मार्ग है।भरतजी प्रभु प्रेम में इतने निमग्न हैं कि स्वयं को सबसे बड़ा पापी और दोषी मानते हैं।

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Mahender Upadhyay

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