कह बालि सुनु भीरु प्रिय समदरसी रघुनाथ।

कह बालि सुनु भीरु प्रिय समदरसी रघुनाथ।

कह बालि सुनु भीरु प्रिय समदरसी रघुनाथ

तारा ने बाली से कहा कि हे नाथ! सुनिए, सुग्रीव जिनसे मिले हैं वे दोनों भाई रामजी और लछमण जी तेज और बल की सीमा हैं! अर्थात परम तेजस्वी और बलिष्ठ हैं वे कोसलपति दशरथजी के पुत्र हैं जो संग्राम में काल को भी जीत सकते हैं। संतो का मत है कि तारा पंचकन्या में से एक है अतः उसे दिव्य ज्ञान है इससे वह समझ गई।लक्ष्मण और राम परमात्मा ही है। संतो का भाव संग्राम में आगे सेवक चाहिये पीछे स्वामी इसी कारण कहा गया।

सुनु पति जिन्हहि मिलेउ सुग्रीवा। ते द्वौ बंधु तेज बल सींवा॥
कोसलेस सुत लछिमन रामा। कालहु जीति सकहिं संग्रामा॥

तेज बल सीवा,तेजस्वी देखने में छोटा भी हो,तो उसे लघु न जानना चाहिये, जहाँ तेज वहाँ बल भी है, कौसलेश सुतः- से अवतार सूचित किया, कि श्रीराम लक्ष्मण साक्षात भगवान के अवतार हैं कौसलेश के यहाँ भगवान ने अवतार लेने को कहा भी है! जैसे कि आकाशवाणी से सुना गया।

ते दशरथ कौशल्या रूपा ।कोशल पुरी प्रगट नर भूपा ।।

अतः हे स्वामी वे दोनों साधारण पुरुष नहीं है जो देवता,राक्षस और समस्त चराचर को खा जाता है,वह काल भी जिनके डर से अत्यंत डरता है, हे तात! राम मनुष्यों के ही राजा नहीं हैं।वे समस्त लोकों के स्वामी और काल के भी काल हैं। योगी लोग भी काल को योग-बल से जीत सकते है पर ये तो उसे संग्राम में भी जीत सकते हैं! तब तुम उनके सामने क्या हो? (भूपाला=राजा, भूपति) (भुवनेश्वर=लोकों का स्वामी, ईश्वर) (चराचर=संसार के सभी प्राणी) (अति=बहुत,सीमा के पार)

अग जग जीव नाग नर देवा। नाथ सकल जगु काल कलेवा।।
तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर काला॥
जाकें डर अति काल डेराई। जो सुर असुर चराचर खाई॥

और हे स्वामी उन्होंने राम जी तो स्वयं कहा है मैं स्वभाव से ही कहता हूँ, कुल की प्रशंसा करके नहीं, कि रघुवंशी रण में काल से भी नहीं डरते। हम बलवान शत्रु देखकर नहीं डरते। (लड़ने को आवे तो) एक बार तो हम काल से भी लड़ सकते हैं।

कहउँ सुभाउ न कुलहि प्रसंसी। कालहु डरहिं न रन रघुबंसी॥
रिपु बलवंत देखि नहिं डरहीं। एक बार कालहु सन लरहीं॥

और रामजी  ने तो  (लक्ष्मण से) कहा भी- हे भाई! हृदय में समझो, तुम काल के भी भक्षक और देवताओं के रक्षक हो। (कृतांत=यमराज,मृत्यु) (सुरत्राता=देवताओं के रक्षक)

कह रघुबीर समुझु जियँ भ्राता। तुम्ह कृतांत भच्छक सुर त्राता॥

अतःहे नाथ!

तासों तात बयरु नहिं कीजै। मारें मरिअ जिआएँ जीजै॥

बालि कह रहा है कि हे प्रिय! तुम कितनी डरपोक हो। तुम कह रही हो कि श्रीराम जी काल को भी जीतने वाले हैं। तो इसका अर्थ वे भगवान हैं। और भगवान किसी को थोड़े ही  मारते हैं। वे तो वास्तव में समदर्शी ही होते हैं। और रघुनाथ जी भी तो फिर समदर्शी हुए। अगर वे मुझे मारेंगे तो अफसोस कैसा? मैं निश्चित ही सनाथ हो जाऊँगा, और निश्चित ही परम पद को प्राप्त करुँगा। (भीरु=कायर, डरपोक)

कह बालि सुनु भीरु प्रिय समदरसी रघुनाथ।
जौं कदाचि मोहि मारहिं तौ पुनि होउँ सनाथ

“जो कदाचि’ में भाव यह हैं कि राम जी धर्मज्ञ हैं,कृतज्ञ हैं,क्योंकि रघुनाथ हैं,रघुकुल के सभी राजकुमार धर्मात्मा होते हैं, मैंने उनका कोई अपकार नहीं किया, अतः वे मुझे मारने का पाप क्यों करेंगे? (अपकार=हानि,अहित)
क्योकि रामजी ने स्वयं कहा है।

अखिल बिस्व यह मोर उपाया। सब पर मोहि बराबरि दाया।।
सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सब ते अधिक मनुज मोहि भाए॥

तथापि वे भक्त और अभक्त के हृदय के अनुसार सम और विषम व्यवहार करते हैं (भक्त को प्रेम से गले लगा लेते हैं और अभक्त को मारकर तार देते हैं) तो में  कृतार्थ हो जाऊँगा। समदर्शी  और ‘रघुनाथ” तौ पुनि होउ  सनाथ” अर्थात‌ कपि योनि से छूट कर परमगति को पाऊँगा।

तदपि करहिं सम बिषम बिहारा। भगत अभगत हृदय अनुसारा॥

जहाँ  भक्त नहीं होता वहां तो भगवान समदर्शी होते है अगर भगवान हमेशा समदर्शी बने रहेंगे तो भक्ति का मार्ग नष्ट  हो जायेगा ,फिर कोई भक्ति क्यों करेगा  भगवान  समदर्शी  होते हुए भक्तों का पक्ष लेते है उनके भक्त में हजार कमी हो तो भी भक्तों का पक्ष लेते है भगवान कहते है चाहे कोई मेरी निंदा करें या स्तुति करें में तो हमेशा भक्तों का ही पक्ष  लेता हूँ।

कुण जाणे या माया श्याम की,अजब निराली रे,हाली
तिरलोकी को नाथ जाट को,बण गयो हाली रे।।

सौ बीघा को खेत जाट को,श्याम भरोसे खेती रे,
आधा में तो गेहूँ चणा और,आधा में दाणा मैथी रे,
बिना बाड़ को खेत जाट को,श्याम करे रखवारी  रे,
तिरलोकी को नाथ जाट को,बण गयो हाली रे।।
भूरी भैंस चमकणी जाट के,दो छेरा दो नारा रे,
बिना बाढ़ को बाड़ो जा में,बांधे न्यारा न्यारा रे,
आवे चोर जब ऊबो दिखे,काढ़े गाली रे,
तिरलोकी को नाथ जाट को,बण गयो हाली रे।।
जाट जाटणी निर्भय सोवे,सोवे छोरा छोरी रे,
श्याम धणी पहरे के ऊपर,कईयाँ होवे चोरी रे,
चोर लगावे नित की चक्कर,जावे खाली रे,
तिरलोकी को नाथ जाट को,बण गयो हाली रे।।
बाजरे की रोटी खावे,ऊपर घी को लचको रे,
पालक की तरकारी सागे,भरे मूली को बटको रे,
छाछ राबड़ी करे कलेवो,भर भर थाली रे,
तिरलोकी को नाथ जाट को,बण गयो हाली रे।।
सोहनलाल लोहाकर बोले,यो घर भक्ता के जावे रे,
धावलिये री ओल बैठ कदे,श्याम खीचड़ो खावे रे,
भक्ता के संग नाचे गावे,दे दे ताली रे,
तिरलोकी को नाथ जाट को,बण गयो  हाली रे।।
कुण जाणे या माया श्याम की,अजब निराली रे,
तिरलोकी को नाथ जाट को,बण गयो हाली रे।।
—————————————————————————–

कह बालि सुनु भीरु प्रिय समदरसी रघुनाथ।

जौं कदाचि मोहि मारहिं तौ पुनि होउँ सनाथ।

Mahender Upadhyay

Share
Published by
Mahender Upadhyay

Recent Posts

बंदउँ संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥

संत-असंत वंदना जितनी वन्दना मानस में बाबा तुलसी ने की उतनी वंदना किसी दूसरे ग्रंथ… Read More

5 months ago

जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा। तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा॥

  जिमि जिमि तापसु कथइ अवतार के हेतु, प्रतापभानु  साधारण धर्म में भले ही रत… Read More

11 months ago

बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू॥

बिस्व बिदित एक कैकय अवतार के हेतु, फल की आशा को त्याग कर कर्म करते… Read More

11 months ago

स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥

स्वायंभू मनु अरु अवतार के हेतु,ब्रह्म अवतार की विशेषता यह है कि इसमें रघुवीरजी ने… Read More

12 months ago

सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥

सुमिरत हरिहि श्राप गति अवतार के हेतु, कैलाश पर्वत तो पूरा ही पावन है पर… Read More

12 months ago

नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा।।

  अवतार के हेतु, भगवान को वृन्दा और नारद जी ने करीब करीब एक सा… Read More

12 months ago