और जालंधर को केवल उसकी स्त्री के पति व्रत का बल और समर्थ है उसमे स्वयं का समर्थ नहीं है।
“सब हारे”अतः तेतीस कोटि देवता हार गये।
(सती स्त्रियों के पतिव्रता धर्म का बल बड़ा भारी होता है जलन्धर की कथा में प्रमाण देखिये) (सुराधिप=देवताओं के स्वामी,इंद्र दैत्यों का अधिपति) (असुराधिप=जलंधर नामक असुरराज)
भगवान देवताओं का दुख नहीं देख सकते।
वृन्दा का व्रत भंग करना विष्णुजी के लिए भी संभव नहीं था विष्णु जी ने जलन्धर के रूप में वृन्दा का व्रत भंग किया। जलन्धर भी शिव जी का रूप धारण करके उमा के पास गया था इसी बीच वृन्दा का व्रत भंग हो गया। इसका समाचार पाकर जलन्धर क्रोध से युद्ध करने शिवजी के सम्मुख गया और मारा गया। भगवान अपने अपयश के लिये नहीं डरे भक्तों का कार्य किया। जब वृन्दा को अपने सतीत्व भंग और अपने पति के वध का पता चला तब वृंदा ने क्रोध करके भगवान को श्राप दिया।
प्रभु ने छल से वृंदा का व्रत भंग कर देवताओं का काम किया।
और जब वृंदा ने यह भेद जाना, तब वृंदा ने क्रोध करके भगवान को श्राप दिया।
जब भगवान ने स्वयं कहा मोहि कपट छल छिद्र न भावा तब छल क्यों किया ?
भगवान ने छल जगत की भलाई के लिए किया (सूत्र) केवल परोपकार कि द्रष्टि से किया गया कार्य में दोष नहीं लगता धर्म अधर्म के बीच बहुत मामूली फर्क होता है। भगवान ने भोग की इच्छा से नहीं अपितु सुर कार्य के लिए असुराधिप नारी से भोग किया। छल करना दोष है पर “प्रभु “शब्द देकर उनको दोष से निवृत किया वे समर्थ है। अतः छल करने का अधर्म उनको नहीं हो सकता या ऐसा कहे कि।
लीलाओं के भंडार कृपालु हरि ने वृंदा के श्राप को प्रामाण्य दिया (स्वीकार किया)।
वही जलन्धर उस कल्प में रावण हुआ, जिसे श्री रामजी ने युद्ध में मारकर परम पद दिया।
भगवान ने मर्म को जनाया जिससे वृंदा भगवान को श्राप देवे और भगवान लीला करे नहीं तो जिस मर्म को भगवान छिपावे उसे कौन जान सकता है? जैसे
बाल्मीक जैसे संत बोल रहे है -जिसको प्रभु कृपा करके स्वयं जना दे केवल और केवल वही जान सकता अन्यथा कोई भी नहीं।
तब वृंदा कैसे जान सकती है प्रभु को तो लीला करनी थी।
यह सब उनकी इच्छा से हुआ। यथाः
मरम! यह की ये विष्णु है इन्होने छल से हमारा पति व्रत छुड़ाया और व्रत भंग होते ही मेरा पति मारा गया! वृंदा ने श्राप यह दिया कि तुमने हमसे छल किया, हमारा पति तुम्हारी स्त्री को छल कर हर लेगा, तुमने हमे पति वियोग से व्याकुल किया है वैसे ही तुम स्त्री वियोग से व्याकुल होंगे, तुमने मुझे मनुष्य तन धर कर छला है,अतः तुमको मनुष्य होना पड़ेगा।
(कौतुकनिधि= कुतूहल,आश्चर्य, अचंभा, विनोद,हँसी-मज़ाक, खेल-तमाशा, उत्सुकता,कौतुक करने वाला, विनोदशील) (प्रमान= प्रमाण=आदर,मान) (हति= मारकर)
“श्राप कोप कर दीन” बिना क्रोध के श्राप नहीं होता,जब होता है तो केवल और केवल क्रोध से होता है।जैसे
भगवान के स्मरण से तो लोगो के श्राप मिट जाते है तो हरि को श्राप कैसे लगेगा? यथाः
फिर भला उनको क्यों कर श्राप लग सकता है?
हरि ने वृंदा के श्राप का आदर दिया, क्योंकि प्रभु तो बड़े ही कौतुकी है जय विजय से भी भगवान ने यही कहा था कि हम श्राप को मेट सकते हैं पर यह हमारी भी यही इच्छा है इसलिए श्राप अंगीकार करो, तुम दोनों का कल्याण होगा। किसी में समर्थ नहीं कि प्रभु को श्राप अंगीकार करा सके। प्रभु ने भृगु जी का श्राप स्वीकार नहीं किया, तब भृगु जी ने यह विचारकर कि श्राप के अंगीकार न करने से हमारा ऋषित्व नष्ट हो जायेगा तब भृगु जी ने कठोर तप कर प्रभु से ही वरदान माँगा कि मेरे श्राप को अंगीकार करो यही नारद जी ने कहा कि मेरा श्राप मृषा हो पर कौतुकी निधि ने कहा-
अतः प्रभु ने सतीत्व की मर्यादा प्रतिष्ठा की रक्षा एवं लीला के हेतु श्राप को अंगीकार किया। कृपा ही प्रभु के अवतार का हेतु है। (कौतुकनिधि = लीला के भंडार, खज़ाना)
राम अवतार के कारण NEXT
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