असरन सरन बिरदु संभारी। मोहि जनि तजहु भगत हितकारी।।

असरन सरन बिरदु संभारी। मोहि जनि तजहु भगत हितकारी।।

असरन सरन बिरदु संभारी।

अंगद की दीनता।अंगद ने कहा पिता के मरने पर में अशरण था तब आपने मुझे शरण में लिया अर्थात गोद लिया अब आप गोद लेकर त्यागे नहीं  रखकर गिरावे नहीं मुझे त्यागने पर आपका असरन सरन बाना  ना रह जायेगा “मोहि जनि तजहु ” का भाव राम जी का रुख देखा की रखना नहीं चाहते ,तब ऐसा कहा “भगत हितकारी” भाव यह है की में भी भक्त हूँ वहां जाने से मुझे सुग्रीव से भय है अतः मेरा त्याग ना कीजिये,वहां ना भेजिए सुग्रीव से भय का कारण यह की अभी उसके पुत्र नहीं था इस कारण  और आपकी आज्ञा से सुग्रीव ने मुझे युवराज बनाया है जब उसके संतान होगी तब क्या मुझे क्यों जिन्दा छोड़ेगा। (बाना=रीति, प्रण)(कोछे =गोद)


असरन सरन बिरदु संभारी। मोहि जनि तजहु भगत हितकारी।।

मोरें तुम्ह प्रभु का भाव औरो के सब नाते पृथक पृथक होते है यदि एक जगह  गुजारा नहीं हुआ तो दूसरी जगह चले जाते है पर मेरे तो सब आप ही है तब में अन्यत्र कहाँ जाऊ ? हे प्रभु आप तो सबके हृदय के अंदर की जानने वाले है  मेरे तो सब कुछ केवल आप ही है।(जलजाता=जलज, पद्म,कमल) (निर्बाह=गुजारा) 

मोरें तुम्ह प्रभु गुर पितु माता। जाउँ कहाँ तजि पद जलजाता।।
मोरें सबइ एक तुम्ह स्वामी। दीनबंधु उर अंतरजामी॥

मेरे प्रभु आप विश्वास करें, मैं आपको छोड़कर गुरु, पिता, माता किसी को भी नहीं जानता।

गुर पितु मातु न जानउँ काहू।कहउँ सुभाउ नाथ पतिआहू॥

अतःहे प्रभु

तुम्हहि बिचारि कहहु नरनाहा । प्रभु तजि भवन काज मम काहा।।

आप तो राजा है राजाओ के व्यवहार को जानते है जरा विचार कर देखे कि एक राजा का पुत्र अपने पिता के बैरी राजा के आश्रित होकर कब सुखी रह सकता है? राजाओ की तो यही रीती है (नरनाहा=राजा) यथाः

भरत कीन्ह यह उचित उपाऊ। रिपु रिन रंच न राखब काउ॥

यही विचार कर ही तो मेरे पिता बाली ने मुझे आपकी गोद मे डाला है प्रभु तजि भवन काज मम काहा।।भाव यह है कि घर में मेरा क्या काम राजा श्री सुग्रीव जी है उनकी सहायता के लिए मंत्री गण एवं सेना है “प्रभु तजि “का भाव यह है कि घर बार छोड़ कर प्रभु की सेवा करनी चाहिये, जो प्रभु की सेवा छोड़ कर घर की सेवा करता है उस पर तो विधि कि वामता होती है (वामता= प्रतिकूलता,विरुद्धता)  यथाः

परिहरि लखन रामु बैदेही। जेहि घरु भाव बाम बिधि तेही॥

श्री लक्ष्मणजी, श्री रामजी और श्री जानकीजी को छोड़कर जिसको घर अच्छा लगे, विधाता उसके विपरीत हैं। मैं घर की सब नीची से नीची सेवा करूँगा और आपके चरण कमलों को देख-देखकर भवसागर से तर जाऊँगा। ऐसा कहकर वे श्री रामजी के चरणों में गिर पड़े (और बोले-) हे प्रभो! मेरी रक्षा कीजिए। हे नाथ! अब यह न कहिए कि तू घर जा। नीचि टहल(सेवा) -कहने का भाव यह की उच्च सेवा के अधिकारी भरत, हनुमान  आदि है। (टहल=सेवा, ख़िदमत)

बालक ग्यान बुद्धि बल हीना। राखहु सरन नाथ जन दीना।।
नीचि टहल गृह कै सब करिहउँ। पद पंकज बिलोकि भव तरिहउँ।।
अस कहि चरन परेउ प्रभु पाही। अब जनि नाथ कहहु गृह जाही।।

सुग्रीव ने कहा- हे पवनकुमार! तुम पुण्य की राशि हो (जो भगवान ने तुमको अपनी सेवा में रख लिया)। जाकर कृपाधाम श्री राम जी की सेवा करो। सब वानर ऐसा कहकर तुरंत चल पड़े। (आगारा=भंडार)

पुन्य पुंज तुम्ह पवनकुमारा। सेवहु जाइ कृपा आगारा।।
अस कहि कपि सब चले तुरंता। अंगद कहइ सुनहु हनुमंता॥

अंगद ने कहा- हे हनुमान! सुनो-मैं तुमसे हाथ जोड़कर कहता हूँ, प्रभु से मेरी दण्डवत कहना और श्री रघुनाथजी को बार-बार मेरी याद कराते रहना।

कहेहु दंडवत प्रभु सैं तुम्हहि कहउँ कर जोरि।
बार बार रघुनायकहि सुरति कराएहु मोरि॥

—————————————————————————————–
Mahender Upadhyay

Share
Published by
Mahender Upadhyay

Recent Posts

बंदउँ संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥

संत-असंत वंदना जितनी वन्दना मानस में बाबा तुलसी ने की उतनी वंदना किसी दूसरे ग्रंथ… Read More

5 months ago

जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा। तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा॥

  जिमि जिमि तापसु कथइ अवतार के हेतु, प्रतापभानु  साधारण धर्म में भले ही रत… Read More

11 months ago

बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू॥

बिस्व बिदित एक कैकय अवतार के हेतु, फल की आशा को त्याग कर कर्म करते… Read More

11 months ago

स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥

स्वायंभू मनु अरु अवतार के हेतु,ब्रह्म अवतार की विशेषता यह है कि इसमें रघुवीरजी ने… Read More

12 months ago

सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥

सुमिरत हरिहि श्राप गति अवतार के हेतु, कैलाश पर्वत तो पूरा ही पावन है पर… Read More

12 months ago

नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा।।

  अवतार के हेतु, भगवान को वृन्दा और नारद जी ने करीब करीब एक सा… Read More

12 months ago