

एक बार प्रभु सुख
लक्ष्मणजी के वचनों में ही क्या, उनके हृदय में, उनके आचरण में कभी कोई छल-कपट की कल्पना स्वप्न में भी नहीं करेगा ‘छलहीना” का अर्थ (सूत्र) प्रश्न करने में छल कपट नही होना चाहिए। केवल जिज्ञासा के लिए ही पूछना चाहिए। वाद-विवाद करके अपना पांडित्य, अपनी महानता जनाने, अथवा परीक्षा लेने या किसी का अपमान करके अपना मान बढ़ा लेने की इच्छा नहीं होनी चाहिए। आज का समाज इस विकार से जूझ रहा है।
सुर नर मुनि सचराचर साईं। मैं पूछउँ निज प्रभु की नाई।।
मोहि समुझाइ कहहु सोइ देवा। सब तजि करौं चरन रज सेवा।।
कहहु ग्यान बिराग अरु माया। कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया।।
जो प्रश्न अपनी जीत और दूसरे की परीक्षा लेने एवं अपनी चतुरता प्रकट करने के लिये होते है वे छल युक्त कहलाते है। या ऐसा कहे कि आप यदि कुछ पाने के भाव से पूछते हो तो छल हीन प्रश्न कहलाते है और यदि नापने के भाव से पूछते हो तो छल युक्त प्रश्न कहलाते है इसी को कुतर्क कहा गया है। लक्ष्मण जी ने कहा हे देव! मुझे समझाकर वही कहिए, जिससे सब छोड़कर मैं आपकी चरणरज की ही सेवा करूँ। ज्ञान, वैराग्य और माया का वर्णन कीजिए और उस भक्ति को कहिए, जिसके कारण आप दया करते हैं।
मानस में सभी ने रामकथा को समझकर विस्तार से कहने का निवेदन किया हैअति श्रेष्ठ परम तपस्वी, मनस्वी, विद्वान्, करुणाशील जैसे संत भारतद्वाज जी याज्ञवल्क्य से कहा (कृपानिधि=जो बहुत ही दयालु हो,दया से भरा दिल)
रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही। कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही॥
जागबलिक बोले मुसुकाई। तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई॥
पार्वती से कहा (केतू=पताका,ध्वजा) (बृषकेतू=शिव,जिनकी ध्वजा पर बैल का चिह्न माना जाता है)
नाथ धरेउ नर तनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू॥
उमा बचन सुनि परम बिनीता।रामकथा पर प्रीति पुनीता॥
भरत जी ने रामजी से कहा (बिलगाई=अलग होने की अवस्था या भाव)(प्रनतपाल शरणागत का रक्षक)
संत असंत भेद बिलगाई। प्रनतपाल मोहि कहहु बुझाई।।
संतन्ह के लच्छन सुनु भ्राता। अगनित श्रुति पुरान बिख्याता।।
गरुण जी
एक बात प्रभु पूँछउँ तोही। कहहु बुझाइ कृपानिधि मोही॥
कहहिं संत मुनि बेद पुराना। नहिं कछु दुर्लभ ग्यान समाना॥
उपरोक्त सभी परम ज्ञानी है पर परम तत्व को समझने के लिए निवेदन कैसे कैसे कर रहे है इन सभी ने अपने अपने वक्ता से विस्तारपूर्वक समझाने की प्रार्थना की गई है।
ईस्वर जीव भेद प्रभु, सकल कहौ समुझाइ।
जातें होइ चरन रति, सोक मोह भ्रम जाइ॥
लक्ष्मण जी ने कहा हे देव! हे प्रभो! ईश्वर और जीव का भेद भी सब समझाकर कहिए, जिससे आपके चरणों में मेरी प्रीति हो और शोक, मोह तथा भ्रम नष्ट हो जाएँ।
ज्ञान, वैराग्य, माया, भक्ति, ईश्वरऔर जीव, इन पांचो में भेद समझाये ।
श्री रामजी ने कहा- हे तात! लक्ष्मण मैं थोड़े ही में सब समझाकर कहे देता हूँ।
थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई। सुनहु तात मति मन चित लाई॥
अंतःकरण चतुष्टय में चार पदार्थ हैं। पहला मन, दूजा बुद्धि, तीजा चित्त, और चौथा अहंकार। पर हे भाई मन, बुद्धि , चित्त , को लगा कर सुनोगे तब आप थोड़े में ही समझ सकते हो पर अहंकार को दूर ही रखना सती माता कथा सुनने गई तो थी पर अहंकार के कारण कुछ भी नहीं पाई। तात मति मन चित लाई लक्ष्मण जैसे उत्तम अधिकारी को भी प्रभु ने सावधान किया। हे लक्ष्मण जीवो केआचार्य होने से तुम जिज्ञासु मात्र के आदर्श हो| सुनना कैसे चाहिए, यह सभी जीव तुमसे सीखेंगे (सूत्र ) कथा सुनने का फल कब प्राप्त होता है? राम जी साफ साफ कह रहे है जब श्रवण मनन चिंतन तीनों होते है। श्रवण मन के द्वारा होता है , मनन बुद्धि के द्वारा होता है, चिंतन चित्त द्वारा होता है सरल शब्दों में जब सुनो गुनो चुनो ये तीनों होते है तब कथा सुनने का फल प्राप्त होता है अन्यथा कुछ भी प्राप्त नहीं होता।
माया की व्याख्या बहुत लम्बी चौड़ी नहीं है मैं और मेरा,तू और तेरा-इन्ही चार शब्दों में माया की व्याख्या है , जिसने संसार के सभी मनुष्यों को ही नहीं सभी जीवों को वश में कर रखा है।(निकाया=समूह,झुंड,समुदाय)
मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया॥
भुशुंड जी ने भी तो यही कहा है।
चिंता साँपिनि को नहिं खाया। को जग जाहि न ब्यापी माया॥
यही तो ब्रह्मा जी ने भी कहा
हरि माया कर अमिति प्रभावा। बिपुल बार जेहिं मोहि नचावा॥
राम जी लक्ष्मण जी से बोले इंद्रियों के विषयों को और जहाँ तक मन जाता है, हे भाई! उन सबको माया जानना। उसके भी एक विद्या और दूसरी अविद्या, ॥ एक अविद्या दुष्ट दोषयुक्त है और अत्यंत दुःखरूप है (गो=गाय,इंद्रिय) (गोचर= वस्तु जिनका ज्ञान इंद्रियों द्वारा संभव हो) (अगोचर=न दिखाई देने वाला, अदृश्य,इंद्रियों से जिसका ज्ञान संभव न हो,इंद्रियातीत)
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई॥
तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ। बिद्या अपर अबिद्या दोऊ॥
राम जी लक्ष्मण जी से बोले एक (अविद्या) दुष्ट (दोषयुक्त) है और अत्यंत दुःखरूप है, जिसके वश होकर जीव संसार रूपी कुएँ में पड़ा हुआ है और एक (विद्या) जिसके वश में गुण है और जो जगत् की रचना करती है, वह प्रभु से ही प्रेरित होती है, उसके अपना बल कुछ भी नही है। (भव=संसार,जगत्) (अतिसय=अधिकता,श्रेष्ठता)
एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा। जा बस जीव परा भवकूपा ।।
एक रचइ जग गुन बस जाकें। प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें ।।
ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं। देख ब्रह्म समान सब माही।।
ज्ञान की परिभाषा रामायण। गीता और पोथियों से पढ़कर जो ज्ञान प्राप्त होता है उसे जानकारी कहते है जानकारी का परिणाम ईगो ही होता है राम जी कहते है अगर अभिमान है तो वह ज्ञानी नहीं कबीर दास कोई पड़े लिखे नहीं थे पर ज्ञानी के लिए सुन्दर ही कहा है।
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय। ।
कहिअ तात सो परम बिरागी। तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी।।
राम जी लक्ष्मण जी से बोले जो माया को, ईश्वर को और अपने स्वरूप को नहीं जानता, उसे जीव कहना चाहिए। जो (कर्मानुसार) बंधन और मोक्ष देने वाला, सबसे परे और माया का प्रेरक है, वह ईश्वर है।करम अनुसार जो बंधा सकता और कृपा कर दे तो मोक्ष प्रदान कर सकता (सीव=ईश्वर)
माया ईस न आपु कहुँ ,जान कहिअ सो जीव।
बंध मोच्छ प्रद सर्बपर, माया प्रेरक सीव॥
धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना। ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना।।
जातें बेगि द्रवउँ मैं भाई। सो मम भगति भगत सुखदाई।।
सो सुतंत्र अवलंब न आना। तेहि आधीन ग्यान बिग्याना।।
भगति तात अनुपम सुखमूला। मिलइ जो संत होइँ अनुकूला।।