मानस चिंतन,भरी उनकी आँखों में है कितनी करुणा।

मानस चिंतन,भरी उनकी आँखों में है कितनी करुणा।

भरी उनकी आँखों

आज के समय में मित्रता जल्दी टूट जाती है जबकि मित्रता कभी टूटती  ही नहीं अगर टूटती है तो वह स्वार्थ का सम्बन्ध था मित्रता  का सम्बन्ध नहीं  प्रमाण भगवान कृष्ण और सुदामा की  मित्रता


भरी उनकी आँखों में है कितनी करुणा।
जाकर सुदामा दुखारी  से पूछो॥

मित्रता तो वह  नाता है ,जो योनियों, जातियों, धर्मो, उंच नीच सभी को पीछे छोड़ कर , एक मनुष्य का दुसरे मनुष्य से रिश्ता कर सकता है, मित्रता तो एक राजा की एक भिखारी से भी हो सकती है| राम जी सुग्रीव के सामने मित्रता का प्रस्ताव रखते है, जिसे सुन कर सुग्रीव भाव विभोर हो जाते है वे कहते है कि मैं वानर जाति का छोटा सा प्राणी हूँ पर आप तो मानवजाति के उच्च प्राणी, फिर भी आप मुझ से मित्रता करना चाहते है तो आप मेरा हाथ एक पिता की तरह थाम लीजिये। राम सुग्रीव के साथ अग्नि को साक्षी मानकर मित्रता करते  है।

कीन्हि प्रीति कछु बीच न राखा। लछिमन राम चरित् सब भाषा॥

बीच रखने से प्रीत का नाश होता है क्योंकि भेद रखने से विश्वास नहीं होता और विश्वास के बिना प्रीत द्रण नहीं होती। (बीच रखना =भेद रखना , दुराव रखना) 

जानें बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती॥
प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई। जिमि खगपति जल कै चिकनाई॥

श्री लक्ष्मणजी ने राम जी के सभी (चरित=पुरुषार्थ )तड़का ,सुबाहु ,कबंध ,खरदूषण के वध  कहने का मुख्य कारण  सुग्रीव  रामजी को सामान्य न समझे, सामान्य समझने से प्रीत  घट जाती है जिससे मित्र धर्म की  हानि होती हैं। लक्ष्मणजी के कहने का भाव कि रामजी अपने मुख से अपना प्रताप और  पुरुषार्थ नहीं कह सकते (सूत्र) नीति का मत है कि जब निष्कपट प्रीति  हो जाय तब आप अपनी गुप्त  बातें कहे अन्यथा बिलकुल ना कहे।

श्री सुग्रीव जी का प्रेम निष्कपट है,स्वार्थ का नहीं है,वे श्री लक्ष्मण जी से राम जी का चरित सुनकर  दुखी  हो गए अतः उनके नेत्रों में जल भर आया हे। अन्य भाव  सुग्रीव पत्नी वियोग को भली भाँति जानते हैं, क्योंकि उन पर भी  यह आपदा पड़ चुकी हैं। इसी से मिन्र के दुखसे वे दुखी हो गए।

कह सुग्रीव नयन भरि बारी। मिलिहि नाथ मिथिलेसकुमारी॥

अतः मिथिलेशकुमारी में भाव यह हे कि मिथिलेश जैसे पुण्यात्मा की कन्या न मिले यह केसे संभव है, उनके पुन्य प्रभाव से वे अवश्य मिलेंगी।

कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा। तजहु सोच मन आनहु धीरा॥
सब प्रकार करिहउँ सेवकाई। जेहि बिधि मिलिहि जानकी आई॥

रघुवीर का भाव कि आप वीर हैं, वीर होकर सोच करना और अधीर होना अयोग्य है, अतएव आपको सोच नहीं  करना चाहिए और  न ही  अधीर होना चाहिए। सुग्रीव के इन विचरों के बाद रामजी निश्चिन्त हो गए और सुग्रीव से पूछा (कृपासिंधु=कृपा के सागर)  (बलसींव=बल की सीमा, सबसे बली)

सखा बचन सुनि हरषे कृपासिंधु बलसींव।
कारन कवन बसहु बन मोहि कहहु सुग्रीव॥

तुलसीदास जी ने भगवान श्रीराम के माध्यम से एक अच्छे मित्र की पहचान बताई है। रामजी ने सुग्रीव से कहा-जो अपने बड़े से बड़े दुख को धूल के समान और प्रिय मित्र के धूल के समान दुख को सुमेरु (बड़े भारी पर्वत) के समान माने। रामजी का स्वाभाव तो देखिये राज्य छूटा, वनवास हुआ, राक्षस  द्वारा श्री जानकी जी का हरण हुआ-इस तरह पर्वत के समान अपने दुखों को तृण के समान मानकर भुला  दिया और मित्र श्री सुग्रीव के दुख को भारी मानकर शीघ्र ही  दूर किया। जो लोग मित्र के दुख से दुखी नहीं होते,ऐसे महापापी का मुँह भी नहीं देखना चाहिए। (बिलोकत=देखना) (पातक=पाप, नरक में गिरानेवाला पाप)

जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी।।
निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना।।
जिन्ह कें असि मति सहज न आई। ते सठ कत हठि करत मिताई।।

जिनका स्वभाव ऐसा है जिन्हें स्वभाव से ही ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं है, वे मूर्ख हठ करके क्यों किसी से मित्रता करते हैं? (मिताई= मित्रता,दोस्ती )

मित्रता के दोष कहने का भाव है कि मित्रता जब भी करें दोषों को त्यागकर ही करें 

सच्चा मित्र कौन है ? मित्र का धर्म है कि मित्र में दोष होने पर भी उससे  प्रेम करें और लोक परलोक का भय दिखा कर कुमार्ग से बचाकर सुमार्ग पर चलाये उसके गुण प्रकट करे और अवगुणों को छिपावे।  (सूत्र) किसी में कमी देखना तो बहुत ही सरल है पर हे भाई किसी के भीतर अच्छाई का दर्शन करना बहुत ही कठिन है।

कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटे अवगुनन्हि दुरावा।।
देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई।।

देने-लेने में मन में शंका न रखे। अपने बल के अनुसार सदा हित ही करता रहे। विपत्ति के समय तो सदा सौगुना स्नेह करे। अपना और मित्र का धन एक ही  माने पर मित्र को देने या सहायता करने का विचार पहले रखे। वेद कहते हैं कि संत (श्रेष्ठ) मित्र के गुण (लक्षण) ये हैं।

बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा।।

मित्र की परीक्षा का काल ही कुसमय है।

धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी॥

जो सामने तो बना-बनाकर कोमल वचन कहता है और पीठ-पीछे बुराई करता है तथा मन में कुटिलता रखता है- हे भाई! (इस तरह) जिसका मन साँप की चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्र को तो त्यागने में ही भलाई है।  

आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई।।
जा कर चित अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहि भलाई।।

सेवक सठ नृप कृपन कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी।।
सखा सोच त्यागहु बल मोरें। सब बिधि घटब काज मैं तोरें।।

मूर्ख सेवक, कंजूस राजा, कुलटा स्त्री और कपटी मित्र- ये चारों शूल के समान पीड़ा देने वाले हैं। (सूत्र) ऊपर से हितेषी बने रहते है और भीतर से पीड़ा देते है ! हे सखा सुग्रीव ! मेरे बल पर अब तुम चिंता छोड़ दो। मैं सब प्रकार से तुम्हारे काम आऊँगा (तुम्हारी सहायता करूँगा)। आज्ञा ना मानना वा हट करने वा स्वामी को उत्तर देने को “शठ “कहा है! (सूत्र) शूल=प्राचीन काल का एक अस्त्र जो प्रायः बरछे के आकर का होता है !=वायु के प्रकोप से होने वाला एक प्रकार का बहुत तेज दर्द जो प्रायःपेट, पसली, कलेजे में होता है! इस पीड़ा में ऐसा अनुभव होता है कि कोई अंदर से बहुत नुकीला कांटा या शूल गड़ रहा है! (सब बिधि का भाव =नीति आदि रीति से) (कृपन=कंजूस)  (कुनारी=कुलटा स्त्री) (घटब=करूँगा)


भरी उनकी आँखों में है कितनी करुणा।
जाकर सुदामा दुखारी  से पूछो॥

Mahender Upadhyay

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