मानस चिंतन,जानें बिनु न होइ परतीती । बिनु परतीति होइ नहि प्रीती ।

जानें बिनु न होइ

किसी से प्रेम तब तक नहीं हो सकता जब तक उसके विषय में जानकारी ना हो जाय, जिसको आप जानते ही नहीं उससे प्रेम हो ही नहीं सकता, बिना प्रेम या बिना श्रद्धा के की गई भक्ति भी बेकार ही है ऐसी भक्ति केवल क्रिया अर्थात ओपचारिक्ता बन कर रह जाती है प्रेम बिना भक्ति दृढ़ अर्थात स्थिर नहीं हो सकती। जैसे पानी पर डाली गई तेल की परत (चिकनाई) कभी स्थिर नहीं रह सकती, वैसे ही बिना प्रेम की भक्ति भी चंचल और अस्थिर रहती है। (परतीती= दृढ़ निश्चय,विश्वास) (खगपति=गरुड़)

जानें बिनु न होइ परतीती । बिनु परतीति होइ नहि प्रीती ।।

प्रीति बिना नहि भगति दृढ़ाई । जिमि खगपति जल कै चिकनाई।।

जानने से विस्वास फिर प्रीति अंत में भक्ति सुग्रीव  जी पर चरितार्थ होती है। 

देखि अमित बल बाढ़ी प्रीती। बालि बधब इन्ह भइ परतीती।।
बार बार नावइ पद सीसा। प्रभुहि जानि मन हरष कपीसा।।

उपजा ग्यान बचन तब बोला। नाथ कृपाँ मन भयउ अलोला।।
अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँती। सब तजि भजनु करौं दिन राती।।

कबीर दास जी कहते हैं, प्रेम खेत में नहीं उपजता, प्रेम बाज़ार में भी नहीं बिकता, चाहे कोई राजा हो या साधारण प्रजा, यदि प्यार पाना चाहते हैं तो वह आत्म बलिदान से ही मिलेगा। त्याग और समर्पण के बिना प्रेम को नहीं पाया जा सकता। प्रेम गहन-सघन भावना है,प्रेम कोई खरीदी या बेचे जाने वाली वस्तु नहीं।

प्रेम न बाडी उपजे, प्रेम न हाट बिकाई ।
राजा परजा जेहि रुचे, सीस देहि ले जाई ॥

जिसको ईश्वर प्रेम और भक्ति पाना है उसे अपना शीश (काम, क्रोध, भय, इच्छा) को त्यागना होगा। लालची इंसान अपना शीश (काम, क्रोध, भय, इच्छा) तो त्याग नहीं सकता लेकिन प्रेम पाने की उम्मीद रखता है।

प्रेम पियाला जो पिए, सिस दक्षिणा देय ।
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ।।

जब तक मेरा ‘मैं’ अर्थात अहंकार रहता है तब तक हरि ( ब्रह्म) का साक्षात्कार नहीं होता। ब्रह्म और जीव के बीच जो अंतर दिखाई देता है वह माया के आवरण अर्थात ‘मैं’ के कारण ही होता है।   

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं ।
प्रेम गली अति साँकरी, ता मैं दो न समाहिं ॥

मीराबाई कलयुग की एक ऐसी संत हैं, जिसने अपना सब कुछ कृष्ण के लिए अर्पण किया। मीरा का कृष्ण प्रेम ऐसा था कि वह कृष्ण को अपना पति मान बैठी थीं। महराज भक्ति की ऐसी चरम अवस्था कम ही देखने को मिलती है।

जो मै ऐसा जानती, प्रीत करे दुख होय।
नगर ढिंढोरा पीटती, प्रीत ना करिये कोई।।

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ परि जाय॥

रहीम के वाक्य हमें कभी भी खीरे जैसी प्रीति न कीजिए। ऐसी दिखावटी प्रीति का कोई लाभ ही नहीं होता जिसमें आदमी एक दूसरे से जड़ें काटते हो।

रहिमन प्रीति न कीजिए,जस खीरा ने कीन ।
ऊपर से तो दिल मिला, भीतर फांकें तीन ॥

पोथी पढि-पढि जग मुआ,पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।।

प्रेम वास्तव में बाहर की चीज होती भी नहीं, वह तो हृदय से ही होता  है और प्रेम  हृदय से ही किया जाता है। जो बाहर आता है, वह तो प्रेम का बाहरी ढाँचा होता है, हनुमानजी भगवान श्रीराम का संदेश श्री सीताजी को इस प्रकार सुनाते है।

तत्त्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा।

(तत्त्व=सार) (प्रेमतत्त्व=प्रेम का रहस्य,मर्म)

श्रीराम का संदेश अलौकिक प्रेम के तत्त्व को मैं हो जानता हूँ, संसार उससे अपरिचित है, अतः संसार उसे नहीं समझ सकता।

शिवजी कहते हैं-हे उमा!अनेकों प्रकार के योग, जप, दान, तप, यज्ञ, व्रत और नियम करने पर भी श्री रामचंद्रजी वैसी कृपा नहीं करते जैसी अनन्य प्रेम होने पर करते हैं। परमात्मा की प्राप्ति एकमात्र मार्ग है परम प्रेम, परम प्रेम और परम प्रेम है, इसके अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग है ही नहीं। बिना प्रेम के राम (परमात्मा) की प्राप्ति नहीं होती चाहे कितना भी योग जप तप कर लिया जाये। 

उमा जोग जप दान तप, नाना मख ब्रत नेम।
राम कृपा नहिं करहिं तसि, जसि निष्केवल प्रेम

(तसि= वैसी,उस प्रकार की)  (निष्केवल= विशुंद्ध,पूर्ण शुद्ध)

हरि व्यापक सर्वत्र समाना । प्रेम में प्रगट होहिं मैं जाना ।।

यही बाबा तुलसी ने कहा- 

रामहि केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जान निहारा॥

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Mahender Upadhyay

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