बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू॥
कुसंगति पाकर कौन नष्ट नहीं होता।
अवतार के हेतु में संत, मुनि, वेद और पुराणों का जो मत था वह शिव जी ने कहा वह याज्ञवल्क्य जी ने भरद्वाज मुनि को सुनाया। अब केवल अवतार का जो कारण शिवजी की समझ में आता है, उसे सुनाते है।
शिव जी हे पार्वती, देवता, नर, असुर (तीनों) श्राप के कारण कुम्भकर्ण और रावण राक्षस बने। पूर्व की कथाओं में शिव जी ने देवता और असुर का रावण कुंभकर्ण होना कहा, जय विजय, रुद्रगण देवता थे, और जलंधर असुर था। अब मनुष्य का भी रावण कुंभकर्ण होना कहते है। भानुप्रताप और अरिमर्दन नर है।अतः भानुप्रताप की कथा कहने का मुख्य कारण यही है।
करुणासिंधु जी के मतानुसार यह कथा आदि कल्प की है, अतः पुरानी कहा, एवं संत श्री गुरुसहाय लाल जी एवं संत धनराज सूर केअनुसार यह कथा महा रामायण, और शिव संहिता,अगस्त रामायण, में है।
हे मुनि! वह पवित्र और प्राचीन कथा सुनो, जो शिवजी ने पार्वती से कही थी। संसार में प्रसिद्ध एक कैकय देश व्यास और शाल्मली नदी की दूसरी ओर था और उस समय वहां की राजधानी गिरिब्रज वा राजगृह थी। अब यह देश काश्मीर राज्य के अंतर्गत है इसको कश्यप ऋषि का बसाया हुआ था।वहाँ सत्यकेतु नाम का राजा राज्य करता था।
राजा सत्यकेतु है, सत्य का अर्थ धर्म इसी से धर्म घुरंधर है। (जुगल= युगल, जोड़ी)
राजा नीति निधान है, क्योंकि राजा के लिए नीतिज्ञ होना परमावश्यक है। नीति राजा का एक मुख्य अंग है। नीति के बिना जाने राज्य नहीं रहता।
नीति बिना जाने क्या राज्य रह सकता है? श्री हरि के चरित्र वर्णन करने पर क्या पाप रह सकते है?
(सूत्र) केवल धर्म से ही उत्तम सन्तान की प्राप्ति होती।
धर्म, नीति, तेज, प्रताप, शील और बल, गुण पिता सत्यकेतु में है पर दोनों पुत्र तो इन सभी गुणों के धाम है। फिर भी, दोनों भाइयों में वीरता का गुण पिता से अधिक है। पिता रणधीर थे और ये तो महारणधीर हुए। पिता सत्यकेतु तो एक देश के राजा थे पर इन दोनों भाइयों ने तो अपने पराक्रम से सप्तद्वीप का राज्य किया, चक्रवर्ती हुए।
राज्य का उत्तराधिकारी बड़ा लड़का प्रतापभानु था। नाम से ही दोनों भाइयों के गुण दिखाई देते है। सूर्य का सा प्रताप है. इससे भानुप्रताप नाम है। दूसरे का अरिमर्दन शत्रुओं का मर्दन करता है, जिसकी भुजाओं में अपार बल था और जो युद्ध में पर्वत के समान अटल रहता था, इसी से उसका अरिमर्दन नाम है। बड़ा भाई प्रताप में अधिक है और छोटा भाई बल में अधिक था। जब ये दूसरे जन्म में रावण कुम्भकरण हुए कुम्भकरण रावण से अधिक बलशाली था। (अरि=शत्रु ,बैरी) (मर्दन=कुचलना, रौंदना)
रावण के घूसे से हनुमान जी भूमि पर नहीं गिरे थे।
हनुमान घुटने टेककर रह गए, पृथ्वी पर गिरे नहीं। और फिर क्रोध से भरे हुए सँभलकर उठे।
पर कुंभकर्ण के धूसे से हनुमान जी चक्कर खाकर गिर पड़े थे।
कुम्भकरण ने हनुमान जी को मारा, वो चक्कर खाकर तुरंत ही पृथ्वी पर गिर पड़े। (घुर्मित=घूमता हुआ, चक्कर खाता हुआ)
रावण विशेष प्रतापी था, यथा
रावण का ऐसा प्रताप देवता और दिक्पाल हाथ जोड़े बड़ी नम्रता के साथ भयभीत हुए सब रावण की भौं ताक रहे है।
भाई-भाई में बड़ा मेल और सब प्रकार के दोषों और छलों से रहित (सच्ची) प्रीति थी। राजा ने जेठे पुत्र को राज्य दे दिया और आप भगवान के भजन के लिए वन को चल दिए। (समीती=सुंदर मित्रता) (वर्जित=रहित)
सत्यकेतु भी प्रजा का पालन करते थे पर भानुप्रताप वेद विधि के अनुसार प्रजा का पालन करता है। वेद पुराण शास्त्रों में उसकी अत्यन्त श्रद्धा है। उसके राज्य में हिंसा, जुआ, चोरी, व्यभिचार आदि पाप-कर्म नहीं रह गये। (अघ= पाप) (लेश= अल्प थोड़ा)
यह एक अनोखा संयोग था मंत्री बुद्धिमान होना चाहिए सो शुक्राचार्य के समान मंत्री चतुर था।श्री शुक्राचार्य देवता है, पर देत्यों के पक्ष में रहते हैं, देत्यों के आचार्य और सर्वज्ञ है। शुक्राचार्यजी ने अपने शिष्य बलि द्वारा घोर अपमान सहकर भी राजा बलि का हित किया, ठीक वैसा ही प्रतापभानु का सचिव (मंत्री) है। शुक्रनीति राजनीति का प्रसिद्ध ग्रंथ है।भाई सहायक होना चाहिए सो भाई बली और वीर था राजा को प्रतापी होना चाहिए सो प्रताप भानु प्रताप का पुंज था चतुरंगिणी सेना में के चार अंग होते है। हाथी, रथ, घोड़े और पेदल सो चारों अंगों का कोई पारावार नहीं था। (पारावार=सीमा,अंत,समुद्र)
शत्रु तो बुद्धि और बल से जीता जाता है।
सचिव बुद्धि मान है ओर भाई में अतुलित बल है। ये दोनों राजा की दक्षिण भुजा है | चतुरंगिणी सेना ओर सुभट राजा के वाम भुजा है, ऐसा चतुर्भुज विश्व को विजय करता है। (सुभट= रणकुशल योद्धा)
प्रताप भानु कर्मयोगी राजा था और मंत्री भगवतभक्त था गुरु, सुर, सन्त, पितर और ब्राह्मण की सेवा से ही सब कुछ मिलता है । इन पाचों की सेवा राजा स्वयं करे यही नीति है।
प्रजापालन और देश की रक्षा राजा के धर्म है वेद और महाभारत के शांतिपर्व के अनुसार राजा यदि सन्यास धर्म का पालन करे तो वह उसके लिए पर धर्म है इसका फल बुरा होता है गीता में कहा धर्माचरण शुरू में तो विष जैसा प्रतीत होता है पर परिणाम अमृततुल्य होता है राजाओं के धर्म में रामजी ने भरत जी से कहे –
वेदो के श्रवण से पुण्य प्राप्त होता है वेदो का श्रवण ही सब प्रकार के कल्याणों का मूल है। इसलिए प्रताप भानु नित्य इनका श्रवण करता था।
जहाँ तक वेद-पुराणों में यज्ञ कहे गये हैं,प्रतापभानु ने उन सभी को हजार-हजार बारअनुराग पूर्वक किया जिस दान का शास्त्र में जैसा विधान बताया है उसके अनुसार दान करता था। प्रताप भानु राजा बड़ा विवेकी और चतुर था। अतः वह हृदय में कुछ भी फल की चेष्टा नहीं करता जो धर्म मन, वचन और कर्म से करता था, उसे वह वासुदेव भगवान को अर्पित भी कर देता था। (अनुसंधाना=चेष्टा,इच्छा) क्योंकि वह जनता है। (सूत्र) फल को कामना से कर्म करने वालों को शास्त्रों ने कृपण बतलाया है। (कृपण=कंजूस, क्षुद्र, नीच,विवेकरहित, गरीब दयनीय,अभागा)
(सूत्र) यदि एक भी कर्म प्रभु को बिना समर्पित किये रह जाये तो वह भव बंधन का कारण होता है।इसलिए ही हम केवल कहते ही है। उस पर अमल नहीं करते है। केवल और केवल इस कारण जन्म-मरण के चक्र से निकलना असंभव है। सकाम कर्म ही भव बंधन का कारण होता है। (भव बंधन=जन्म-मरण का चक्र)
तेरा तुझको अर्पण क्या लगे मेरा।
फिर भी इतने बड़े धर्मात्मा को एक कुसंग के कारण प्रताप भानु को असुर बनना पड़ा।
कुसंगति पाकर कौन नष्ट नहीं होता।
बाबा तुलसी तो बोलते है कि प्रताप भानु की गलती को तो पता करने की तो जरूरत ही नहीं है।
छणभर को भी नहीं छोड़ता,सदा हमारे साथ में हैं।
काया की स्वान्सा डोरी का तार उसी के हाथ में है।
हंसना-रोना,जीना-मरना सब उसकी मर्जी का है।
जिसको हम परमात्मा कहते, यह सब खेल उसी का है।।
निर्धन धनी,धनी हो निर्धन ,ग्यानी मूढ,मूरख ग्यानी।
सब कुछ अदल-बदल देने में कोई नहीं उसका सानी।
समझदार भी समझ सके ना ऐसा अजब तरीका है।
जिसको हम परमात्मा कहते, यह सब खेल उसी का है।।
मिट्टी काली पीली हरे बन्,आसमान का रंग नीला।
सूर्य सुनहरा चन्द्रमा शीतल, सब कुछ उसकी ही लीला।
सबके भीतर स्वयं छिप गया, सृजनहार सृष्टि का है।
जिसको हम परमात्मा कहते यह सब खेल उसी का है।।
राजेश्वर आनंद अगर सुख चाहो तो मानो शिक्षा।
तज अभिमान मिला दो उसकी इच्छा में अपनी इच्छा।
यही भक्ति का भाव है प्यारे, सूत्र यही मुक्ती का है।
जिसको हम परमात्मा कहते, यह सब खेल उसी का है।।
प्रताप भानु ने काम अर्थ धर्म को तो जीत ही लिया था केवल मोक्ष बाकि था प्रतापभानु को जंगल में वराह दिखाई दिया।
विनय पत्रिका के अनुसार लोभ लालच ही सूअर है राजा ने अपना घोड़ा उसके पीछे लगा दिया। वाराह जान बचाता हुआ घने वन में घुस गया। प्रतापभानु भी उसका पीछा करते हुए वन की ओर चल पड़ा। इसी बीच प्रतापभानु अपने सैनिकों से बिछुड़ गया। वन के बीचो बीच पहुँचकर वराह आँखों से ओझल हो गया और प्रतापभानु भूख-प्यास से व्यथित होकर इधर-उधर भटकने लगा। अचानक उसे घने जंग में एक आश्रम दिखाई दिया उस प्रंगण में एक साधु हवन कर रहा था।
उसे देखकर जैसे प्रतापभानु की जान में जान आई। मुनि वेष मे एक राजा था ।वह भानुप्रताप का ही शत्रु था | भानुप्रताप ने युद्ध में उसका राज्य छीन लिया था। वह प्राणों के भय से लड़ाई के मेदान में फौज छोड़कर भाग गया था। प्रतापभानु ने साधु के पास जाकर अपना परिचय दिया। साधु ने प्रतापभानु को खाने के लिए फल दिए। तदनंतर वन में आने का कारण पूछा।
प्रतापभानु ने सारी घटना कह सुनाई। तब साधु उपदेश देते हुए बोला, हे राजन, आपके प्रताप से कौन परिचित नहीं है। आपकी श्रेष्ठता का गुणगान तो देवलोक में भी किया जाता है। प्रजा की संतुष्टि से ही स्पष्ट हो जाता है कि आप एक कुशल शासक हो। आपके नेतृत्व में ही कैकय देश महानता के शिखर पर विराजमान है। यह धरा भी आपको पाकर धन्य है। राजन अब वह भयंकर वराह आपके राज्य की ओर कभी नहीं आएगा। आप निश्चिंत रहे मैं अपने तपबल से उसे मार डालूँगा।
धर्म शास्त्र के अनुसार देव मंदिर, तीर्थ एवं संतो बड़ों को देखकर सवारी से उतर कर और हथियार छोड़ कर प्रणाम करना चाहिये। कपटी मुनि को महामुनि समझ कर प्रताप भानु ने वही किया, परन्तु प्रणाम करते समय अपना परिचय भी देना चाहिये, यह परम चतुरता है।
मुनि ने कहा- तुम कौन हो? जीवन की परवाह न करके वन में अकेले क्यों फिर रहे हो? तुम्हारे चक्रवर्ती राजा के से लक्षण देखकर मुझे बड़ी दया आती है।
राजा ने कहा- हे मुनि मैं प्रतापभानु राजा का मंत्री हूँ।
शिकार के लिए फिरते हुए राह भूल गया बड़े भाग्य से यहाँ आकर मैंने आपके चरणों के दर्शन पाए है। कपटी मुनि समझ गया कि प्रताप भानु को कालकेतु ही मेरे पास लाया है। कालकेतु के सौ पुत्र और दस भाई थे, जो बड़े ही दुष्ट, किसी से न जीते जाने वाले और देवताओं को दुख देने वाले थे। ब्राह्मणों, संतों और देवताओं को दुखी देखकर प्रतापभानु ने उन सबको युद्ध में मार डाला था।
प्रताप भानु ने कहा -हम लोग विषयों में लिप्त है और आप तो विशुद्ध संत हैं, ऐसे संत दैव योग से ही मिलते है।हमें आपका दर्शन दुर्लभ था, इससे जान पड़ता है कुछ भला होने वाला है।
कपटी मुनि ने कहा- हे तात! अँधेरा हो गया। तुम्हारा नगर यहाँ से सत्तर योजन अर्थात 560 मील पर है।
बाबा तुलसी ने सुन्दर ही लिखा कि जैसी भवितव्यता हरि इच्छा रुपी प्रारब्ध या होनहार होती है, वैसी ही सहायता मिल जाती है या तो वह भवितव्यता आप ही स्वयं उसके पास आती है या उसी को वहाँ ले जाती है। अर्थात जैसी होनहार होती है वैसी सहायता मिलती है या तो आप ही उसके पास आती है अथवा उसको वहाँ ले जाती है अर्थात संयोग बनते जाते है। प्रताप भानु का नाश होना है यही होनहार है।
प्रताप भानु के प्रसंग के प्रारंभ मध्य और अंत में बाबा तुलसी ने भवितव्यता को प्रधानता दी।
कालकेतु ने बैर याद करके तपस्वी राजा से मिलकर षडयंत्र किया कि किस प्रकार शत्रु का नाश हो, वही उपाय रचा। भावीवश प्रतापभानु नहीं समझ सका।
अंत में जब ब्राम्हणों ने आकाश वाणी के द्वारा रहस्य को समझा तब कहा भी यही-
मानस में कई ऐसे प्रसंग से हमारे मन में यह विचार आता है कि इन्होंने इतनी बड़ी गलती क्यों की तुलसी दास जी कहते है कि इसमें गलती खोजने की जरूरत ही नहीं है ये सब तो भावी के अधीन है।
प्रताप भानु का इसमें कोई दोष नहीं है शिव सहिंता केअनुसार रामजी के दो सखा जिनका नाम प्रतापी और बलबीर्य ये दोनों रामजी की इच्छा से भानु प्रताप और अरिमर्दन हुए है।भगवान रण के कौतुक के लिये ऐसे संयोग स्वयं रचते है,ये दोनों सखा अगले जन्म में रावण कुम्भकरण असुर बनकर पूरे बैर भाव से युद्ध करेंगे।
भावी के भी दो प्रकार है पहली प्रारब्ध जन्य भावी को शिव जी समाप्त कर सकते है।
पर जिस भावी में हरि इच्छा है वह मेटी नहीं जा सकती।
राम अवतार के कारण NEXT
———————————————————————————————
बंदों अवधपुरी आति पावनि। सरयू का साधारण अर्थ स से सीता रा से राम जू… Read More
अवध प्रभाव जान तब प्राणी। किस कारण अयोध्या को विश्व का मस्तक कहा गया है।… Read More
संत-असंत वंदना जितनी वन्दना मानस में बाबा तुलसी ने की उतनी वंदना किसी दूसरे ग्रंथ… Read More
जिमि जिमि तापसु कथइ अवतार के हेतु, प्रतापभानु साधारण धर्म में भले ही रत रहा… Read More
स्वायंभू मनु अरु अवतार के हेतु,ब्रह्म अवतार की विशेषता यह है कि इसमें रघुवीरजी ने… Read More
सुमिरत हरिहि श्राप गति अवतार के हेतु, कैलाश पर्वत तो पूरा ही पावन है पर… Read More