जीने कीराह

प्रभु माया बलवंत भवानी। जाहि न मोह कवन अस ग्यानी॥

प्रभु माया बलवंत भवानी।

माया का प्रभाव – गरुण जी कोई साधारण नहीं है गरुण जी त्रिलोक पति के वाहन है जिनके चरणों के स्पर्श से संसार के सभी पाप समाप्त हो जाते है ऐसे भगवान के चरणों का सदा स्पर्श गरुण जी को होता है  ऐसे गरुण जी को भगवान की माया ने घेर लिया ,माया पति की माया ने शिवजी ब्रह्म जी नारद जी तक को नहीं छोड़ा तब साधारण जीव की किस गिनती में है। आश्चर्य तो यह है कि जो माया शिव ब्रह्मा देव देवताओं को भी नहीं छोड़ती पर आज का संसारी जीव  माया से अलग होने का (पाखंड=ढोंग) किया करते हैं।


प्रभु माया बलवंत भवानी। जाहि न मोह कवन अस ग्यानी॥

अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया।।
ग्यानि भगत सिरोमनि त्रिभुवनपति कर जान।
ताहि मोह माया नर पावँर करहिं गुमान।।

इस संसार मे जो भी दिखाई दे रहा है सब माया के आधीन है और यह मायापति की लीला है किंतु जो संत है  ( सर्वोच्च गुण, कर्म, स्वभाव) से परिपूर्ण उनके वाणी, कर्म ,स्वभाव मे ईश्वर का वास  होता है यह सब हरि की माया है

यह प्राप्ति पूर्व जन्म के कर्मानुसार प्राप्त होती है और सत्संग से इस पर कुंदन सी चमक आती है!

माया बस सब जगत है, हरि बस मायहिं जानु!
संतन बस श्रीराम हैं, यह महिमा उर आनु!!
नारद भव बिरंचि सनकादी। जे मुनिनायक आतमबादी॥

 नारद जी का वैराग्य देखिये माया ने सौ योजन सुन्दर नगर बनाया वह उनको मोहित ना कर सका, रति सामान सुन्दर स्त्री बनाई उनको भी देख कर वो मोहित ना हुए, सेकड़ो इंद्र के सामान वैभव विलास रचा उसको भी देख कर नारद का मन ना डिगा, ऐसा परम वैराग्य था पर विश्वमोहनी का सौन्दर्य ऐसा था कि वे मुग्ध हो गए वैराग्य ना रहा टकटकी लगाय देखते रहने से वैराग्य चला गया। विश्वमोहिनी नाम की एक (ऐसी रूपवती) कन्या थी, जिसके रूप को देखकर लक्ष्मीजी भी मोहित हो जाएँ॥ वह सब गुणों की खान भगवान की माया ही थी। उसकी शोभा का वर्णन कैसे किया जा सकता है। (बड़ी=देर,समय) देखि रूप मुनि बिरति बिसारी अतः बिरति (वैराग्य) की इच्छा ना रह गई वैराग्य को भूल कर बड़ी देर तक देखते रह गए अथार्त मोह को प्राप्त हो गए। रूप ऐसा है की जो देखे मोहित हो जाय श्री जी तक मोहित हो जाय।

 तब नारद कैसे ना मोह को प्राप्त होते ? (बिमोह=मतिभ्रम,भ्रम)

देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बड़ी बार लगि रहे निहारी॥
बिस्वमोहनी तासु कुमारी। श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी॥
बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू। अवसि देखिअहिं देखन जोगू॥

 (सूत्र) देखने के लिए मानस में मना नहीं किया है पर निहारने अर्थात एक टक देखने में दोष है यही दोष नारद जी को ले डूबा। (भगवान की) माया के वशीभूत हुए मुनि ऐसे (मूढ़=मूर्ख) हो गए कि वे भगवान की अगूढ़ (स्पष्ट) वाणी को भी न समझ सके। ऋषिराज नारद तुरंत वहाँ गए जहाँ स्वयंवर की भूमि बनाई गई थी। (रिषिराई=ऋषिराज नारद)

माया बिबस भए मुनि मूढ़ा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा॥
गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई॥

शिवजी कहते- हे पार्वती ब्रह्माजी मन में विचार करने लगे कि कवि, कोविद और ज्ञानी सभी माया के वश हैं। भगवान की माया का प्रभाव असीम है, जिसने मुझ तक को अनेकों बार नचाया है। (कोबिद=पंडित, विद्वान,ज्ञानवान,प्रबुद्ध) (ग्याता=ज्ञानी) (बिपुल=अधिक,पर्याप्त,विशाल)  

मन महुँ करइ बिचार बिधाता। माया बस कबि कोबिद ग्याता।
हरि माया कर अमिति प्रभावा। बिपुल बार जेहिं मोहि नचावा।।

ब्रह्माजी कहते है – यह सारा चराचर जगत् तो मेरा रचा हुआ है। जब मैं ही मायावश नाचने लगता हूँ, तब गरुड़ को मोह होना कोई आश्चर्य (की बात) नहीं है। तदनन्तर ब्रह्माजी सुंदर वाणी बोले- श्री रामजी की महिमा को महादेवजी जानते हैं। (अग=अचल,वक्र गतिवाला) (जगमय=सारा चराचर जगत्)

अग जगमय जग मम उपराजा। नहिं आचरज मोह खगराजा॥
तब बोले बिधि गिरा सुहाई। जान महेस राम प्रभुताई॥

माया से बचाव छुटकारा 

माया के आकर्षण से निकलना तो तब हो जब हमें बुरा लगे माया जादूगरनी की ऐसी आकर्षण वृत्ति है जो वो रचती है सब का सब प्रिय लगता है जिससे आपको घृणा होती है वही दूसरे अपना जीवन समझ रहा है हमें किसी भी वस्तु ,व्यक्ति ,स्थान का आकर्षण हमें भगवत विस्मरण ना करा पावे या किसी भी प्रकार का मान अपमान , लाभ हानि, निंदा इस्तुति, हमें अपने मार्ग से विचलित न कर पावे तब समझना चाहिए माया का प्रभाव पड़ना आप पर कम हो रहा  है और यह तभी संभव होगा जब प्रभु की कृपा होगी कोई ये ना सोचे कि में माया से मुक्त हूँ जब तक सोच है तभी तक माया है शिव जी जीवन मुक्त है पर मोहनी रूप देख कर भाग पड़े ,ब्रह्मा जी समस्त ज्ञान शिरोमणि भी भी इस माया के प्रभाव से नहीं बच सके जब जब जीव को भगवत विस्मरण हुआ कि माया जाल में फसे। अतः हमेशा भगवत स्मरण चिंतन करें। 

प्रभु कृपा के बिना माया  से निवृत्ति संभव ही नहीं है 

अतिसय प्रबल देव तब माया। छूटइ राम करहु जौं दाया।।
क्रोध मनोज लोभ मद माया। छूटहिं सकल राम कीं दाया।।
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला। ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला॥

प्रभु कृपा कब होगी? जब आपका भाव 

अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें। दीन दयाल अनुग्रह तोरें॥
जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा॥
देव एक बिनती सुनि मोरी। उचित होइ तस करब बहोरी॥
जेहि बिधि प्रभु प्रसन्न मन होई। करुना सागर कीजिअ सोई॥
सीता राम चरन रति मोरें। अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें॥
अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँति। सब तजि भजनु करौं दिन राती॥

जब मन वचन कर्म से सम्पूर्ण शरणागति होगी 

नाथ सकल संपदा तुम्हारी। मैं सेवकु समेत सुत नारी।।
तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीति न पद सरोज मन माहीं।।
नाथ सकल साधन मैं हीना। कीन्ही कृपा जानि जन दीना॥
तुम्ह प्रभु गुर पितु माता। जाउँ कहाँ तजि पद जलजाता॥
ता पर मैं रघुबीर दोहाई। जानउँ नहिं कछु भजन उपाई॥

उपरोक्त भाव होने पर भगवान ने स्वयं कहा है में उसकी सुरक्षा बच्चे की तरह करता हूँ इस तरह जीव माया से निवृत होता है। 

करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी।।

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Mahender Upadhyay

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