उत्तम कुल पुलस्ति कर नाती।
अंगद की रावण को सलाह- कुल परम्परा को लेकर अंगद हितोपदेश करते हैं कि तुम बड़े कुल वाले को बढ़े उत्तम काम करने चाहिये, आपका कुल उत्तम है और आपने कर्म भी उत्तम किये कि शिवादि का पूजन किया, जिससे उनकी प्रसन्नता से वर पाया, अखण्ड चक्रवर्ती राज्य किया, जन्मभर बड़े ही काम करते आये,पर रावण तुमने राजमद से अथवा मोह वश से एक काम छोटा, हो गया कि तुम जगत माता श्री सीता जी को हर लाये हो। (सिव=शंकर) (बिंरचि=ब्रह्मा)
बर पायहु कीन्हेहु सब काजा। जीतेहु लोकपाल सब राजा॥
इन सब कर्मो का फल होना चाहिये हरिभक्ति,पर तुम इसके विपरीत कर्म करे हो जो उचित नहीं हैं और जिससे कुल में कलंक लगता है! (अविरल= निरंतर,अखंड)
सेवा कर फल सुत सोई। अविरल भगति राम पद होई।।
हे रावण जिनको तुमने पूजा है वे स्वयं शिवजी और ब्रह्मा जी भी श्री रामजी को भजते हैं (फिर) नीच मनुष्य की तो बात ही कितनी है?
रामहि भजहिं तात सिव धाता। नर पावँर कै केतिक बाता॥
अंगद- आपको नृप-अभिमान यह कि मेरे समान संसार में दूसरा कोई नहीं है। राजमद से या मोहवश तुम श्री सीता जी को हर लाए हो। तुमने उत्तम से उत्तम कर्म किये अतःयह कर्म तुमसे नहीं होना चाहिये था पर जान पड़ता है कि राजमद या मोह हो गया होगा इसी कारण तुमसे ऐसा बुरा कर्म जाने या अनजाने में हो गया। (किंबा=अथवा,या) (नृप अभिमान=राजमद)
नृप अभिमान मोह बस किंबा। हरि आनिहु सीता जगदंबा॥
हे रावण अभिमान (राजमद) ने केवल तुमको ही नहीं है इसने तो सभी को कलंकित किया है। (सुरनाथ=देवराज इंद्र)
सहसबाहु सुरनाथु त्रिसंकू। केहि न राजमद दीन्ह कलंकू॥
नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥
और हे रावण मोह तो सभी (व्याधियों =समस्या) का (मूल=मुख्य) कारणहै!
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला॥
मोह न अंध कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव नजेही॥
“अब” का भाव कि जो कुछ हुआ सो हुआ, अब भी कुछ विशेष हानि नहीं हुई है। “शुभ कहा! अर्थात् इससे तुम्हारा कल्याण होगा । पुनः शुभ का भाव कि इससे हम सभी का कल्याण है । ‘रघुनाथ जी पुलस्ति- के कुल वध के पाप से बचेंगे! श्री सीता जी सुखी होगी, मुझ को भी यश होगा, तेरा राज्य अचल होगा; मन्दोदरी आदि का सुहाग बना रहेगा। (सब अपराध- और तुम सीताहरण, जटायुबध, विभीषण का अनादर और चरणप्रहार, ब्राह्मण, गौ, ऋषि, मुनि, और देवतादि को मदमत्त होकर सताने आदि के अपराध, से बच जाओगे।
अब सुभ कहा सुनहु तुम्ह मोरा। सब अपराध छमिहि प्रभु तोरा॥
हे रावण यह सब कैसे होगा? इसका रास्ता में बताता हूँ।
सादर जनकसुता करि आगें। एहि बिधि चलहु सकल भय त्यागें॥
रावण ने कहा- अरे बंदर के बच्चे! सँभालकर बोल! मूर्ख! मुझे देवताओं के शत्रु को तूने जाना नहीं? ‘सुरारी का भाव कि मैंने इन्द्रादि देवताओं को जीता है ऐसे मुझे पराक्रमशाली रावण को मनुष्य के अधीन होने, उससे विनती करने को कहता है। मुझे तृणवत् समझता है। में तो मनुष्य को कुछ नहीं समझता हूँ। (पोत=पशु पक्षी आदिका छोटा बच्चा लघु बालक) (सुरारी=देवताओं का शत्रु, राक्षस,असुर)
रे कपिपोत बोलु संभारी। मूढ़ न जानेहि मोहि सुरारी॥
अंगद ने रावण से कहा- मूर्ख! सुन, भेद उसी के मन में पड़ सकता है, (भेद नीति उसी पर अपना प्रभाव डाल सकती है) जिसके हृदय में श्री रघुवीर न हों। शिव, ब्रह्मा (आदि) देवता और मुनियों के समुदाय जिनके चरणों की सेवा करना चाहते हैं। (सठ=मूर्ख) (भेद नीति =दूसरों में फूट डालने की नीति)
सुनु सठ भेद होइ मन ताकें। श्री रघुबीर हृदय नहिं जाकें॥
सिव बिरंचि सुर मुनि समुदाई। चाहत जासु चरन सेवकाई॥
अंगद ने रावण से कहा- चतुराई (कपट) छोड़कर सुन। कृपा के समुद्र श्री रघुनाथजी का तू भजन क्यों नहीं करता? अरे दुष्ट! यदि तू श्री रामजी का वैरी हुआ तो तुझे ब्रह्मा और रुद्र भी नहीं बचा सकेंगे। (रुद्र= रुद्र का भाव है कि जो कराल रूप से प्रलय में संहार करते है वे भी नहीं बचा सकते)
सुनु रावन परिहरि चतुराई। भजसि न कृपासिंधु रघुराई॥
परिहरि चतुराई। भजसि= चतुराई रहते हुए प्रभु कृपा नहीं करते अतः इसका त्याग करने को कहकर तब भजन करना चाहिए यथा।
मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई। भजत कृपा करिहहिं रघुराई॥
कपट चतुराई यथार्थ नहीं है राम भजन ही यथार्थ चतुराई है।
कठिन काल मल कोस धर्म न ग्यान न जोग जप।
परिहरि सकल भरोस रामहि भजहिं ते चतुर नर।।
रावण कपट चतुराई करता है चतुराई अतः बुद्धि का चमत्कार बहुत अच्छ है यदि उसका सदुपयोग किया जाय दुष्प्रयोग से जितनी ही अच्छी वस्तु होगी, वह उतनी ही बुरी हो जायगी ,चतुराई का सदुपयोग सुतीक्ष्ण मुनि ने किया जिसको देखकर रामजी हंस पड़े।
देखि कृपानिधि मुनि चतुराई। लिए संग बिहसै द्वौ भाई।
भुशुण्डि जी चतुराई पर खुश हो गए कहने लगे।
सुनु बायस तैं सहज सयाना। काहे न मागसि अस बरदाना॥
अतः राम जी की सनमुखता के लिए जितनी चतुराई की जाय वह सब ठीक है और जिस चतुराई से प्राणी राम विमुख होता है वह सर्वथा (हेय=घृणित,तुच्छ) है। अतः राम विमुख करने वाली चतुराई रावण में और सन्मुख करने वाली चतुराई अंगद में है।
पर राम जी बाली की चतुराई पर बिगड़ गए और मूड़,अधम, अभिमानी आदि कहने लगे जब बाली ने चतुराई छोड़ी तभी खुश हुए।
सुनहु राम स्वामी सन चल न चातुरी मोरि।
प्रभु अजहूँ मैं पापी अंतकाल गति तोरि॥
जौं खल भएसि राम कर द्रोही। ब्रह्म रुद्र सक राखि न तोही॥
रुद्र का भाव कि जो कराल रूप से प्रलय में संहार करते हैं वे भी रक्षा नहीं कर सकते। तूने रुद्रों की पूजा सिर चढ़ाकर की इन्हीं के वर के अभिमान से रावण फूला है। इसी से यहाँ इन दो का नाम- दिया है। जिनके बल पर तू इतराता है वे तेरी रक्षा करने में असमर्थ है।
जिनके बल से हे दशशीश! ब्रह्मा, विष्णु, महेश (क्रमशः) सृष्टि का सृजन, पालन और संहार करते हैं, क्योकि
जाकें बल बिरंचि हरि ईसा। पालत सृजत हरत दससीसा॥
अंगद सुन=रावण के समान शूरवीर कौन है? जिसने अपने हाथों से सिर काट-काटकर अत्यंत हर्ष के साथ बहुत बार उन्हें अग्नि में होम दिया! स्वयं गौरीपति शिवजी इस बात के साक्षी हैं। स्वकर! का भाव कि अपने हाथ अपना सिर काटकर हवन करने वाला कोई नहीं सुना होगा पर यह सब मैंने किया है। दूसरे से भी अपना सिर कोई नहीं कटवायेगा फिर भला अपने हाथ कौन काटेगा। क्योकि सभी को,अपने प्राण प्रिय हैं| अतः मेरे बराबर कोई नहीं है! (साखि= साक्षी,आँखों से प्रत्यक्ष देखने वाला ) (सरिस=समान,तुल्य)
सूर कवन रावन सरिस स्वकर काटि जेहिं सीस।
हुने अनल अति हरष बहु बार साखि गौरीस॥
अंगद और सुन=मस्तकों के जलते समय जब मैंने अपने ललाटों पर लिखे हुए विधाता के अक्षर देखे, तब मनुष्य के हाथ से अपनी मृत्यु होना बाँचकर, विधाता की वाणी (लेख को) असत्य जानकर मैं हँसा, हँसने और झूठ मानने का कारण यह कि जिस मनुष्य की मृत्यु दासी हो उसकी मृत्यु मनुष्य के हाथ हो ही नहीं सकती।
ब्रह्मा की इस बुद्धि पर मुझको बहुत हंसी आयी।यह तामसी प्रकृति का ज्वलंत उदाहरण है कि ब्रह्म देव के लेख को तो झूठ माना और उनकी वाणी की अमोघ मानकर उनसे वरदान माँगता है, अपने बल का इतना अभिमान है कि उसके सामने ब्रह्मा के वचन को भी तुच्छ समझता है। और बोला देखें कि मनुष्य मुझे कैसे मार सकता है? (गिरा=वाणी)
जरत बिलोकेउँ जबहि कपाला। बिधि के लिखे अंक निज भाला॥
नर कें कर आपन बध बाँची। हसेउँ जानि बिधि गिरा असाँची॥
अंगद और भी सुन=उस बात को (स्मरण करके) भी मेरे मन में डर नहीं है। (क्योंकि मैं समझता हूँ कि) बूढ़े ब्रह्मा ने बुद्धि भ्रम से ऐसा लिख दिया है। अरे मूर्ख! तू लज्जा और मर्यादा छोड़कर मेरे आगे बार-बार दूसरे वीर का बल कहता है! (जरठ=बूढा,वृद्ध)
सोउ मन समुझि त्रास नहिं मोरें। लिखा बिरंचि जरठ मति भोरें॥
आन बीर बल सठ मम आगें। पुनि पुनि कहसि लाज पति त्यागें॥
अंगद ने रावण से कहा=अरे स्त्री के चोर! अरे कुमार्ग पर चलने वाले! अरे दुष्ट, पाप की राशि, मन्द बुद्धि और कामी! तू सन्निपात में क्या दुर्वचन बक रहा है? अरे दुष्ट राक्षस! तू काल के वश हो गया है! (जल्पसि=जल्पना=व्यर्थ बकवास करना, बहुत बढ़ चढकर बाते करना,डींग मारना) (मनुजाद= राक्षस) (सन्निपात=उतरना, गिरना) (सन्निपात एक ऐसी शारिरिक समस्या है जिसमें आयुर्वेद अनुसार वात पित्त एवं कफ तीनों बढ़ जाते है जिसके कारण व्यक्ति अपना मानसिक एवं शारीरिक सन्तुलन खो देता है)
पुनि सकोप बोलेउ जुबराजा। गाल बजावत तोहि न लाजा॥
रे त्रिय चोर कुमारग गामी। खल मल रासि मंदमति कामी॥
सन्यपात जल्पसि दुर्बादा। भएसि कालबस खल मनुजादा॥